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दिल्ली
Term Path Alias
/regions/delhi
आ देख जरा तू आने वाले पानी को
अतुल शर्मा
Posted on 15 Dec, 2012 02:26 PM
आ देख जरा तू आने वाले पानी को
जंगल! ओ जंगल।
नया गीत दे, बादल भरी, कहानी को
जंगल, ओ जंगल।
कई कथाओं वाले पर्वत पढ़ ले तू।
बर्फीले जंगल में आग पहन ले तू।
और गीत दे पंखों भरी जवानी को
जंगल! ओ जंगल
परिकथाओं को भी थोड़ा पानी दे,
शहराते बच्चों को चिड़िया रानी दे।
नई तान दे लोक गीत की बानी को
जंगल! ओ जंगल।
भूकम्प (संदर्भः 1991 का उत्तरकाशी भूकम्प)
अतुल शर्मा
Posted on 15 Dec, 2012 02:22 PM
सहमी-सी गंगा की धार
कांपे है बदरी-केदार
बादल घिर-घिर के आये
फैले जहरीले साये।
ऐसा तो देखा पहली बार रे।
कहीं-कहीं मांजी के आंसू पोंछ रही है बहना,
अपने दुख दर्दों को बाबा भूल गये हैं कहना।
बच्चों के सिर से परिवारों की छत टूट गई है,
आंसू डूबी नावों में अब है बस्ती को रहना।
प्रश्नों के गहरे साये,
उसमें है नींद समायें।
नदी के साथ बहें, सदी के साथ बहें
अतुल शर्मा
Posted on 15 Dec, 2012 02:17 PM
नदी के साथ बहें,
सदी के साथ बहें,
टूटते हुए नदी के इन किनारों से
राजधानियों की भ्रष्ट इन बहारों से
जरा दूर रहें
थकन से चूर रहें।
बहाव तेज है नदी का तू संभल के चल
बिजलीयों में इस बहाव को बदल के चल
ये बात मन से कहें
से बात जन से कहें
सवाल से भरी गुफा से तू निकल के आ
बोलते हुए इन जंगलों में हाथ मिला
अब तो सड़कों पर आओ ओ शब्दों के सौदागर
अतुल शर्मा
Posted on 15 Dec, 2012 02:13 PM
अब तो सड़कों पर आओ ओ शब्दों के सौदागर,
अब तो होश में आ जाओ शब्दों के कारीगर,
सेमिनार में लेखक जी बात करें मज़दूरों की
एयर कंडीशन में बैठे चिंता है मज़दूरों की
चरित्रहीन सत्ता त्यागों ओ शब्दों के कारीगर
संसद में कुछ प्रश्न उठे और उठते ही बैठ गए
उत्तर जिनके पास न था उत्तर देकर बैठ गए
बात सड़क पर उठवाओ ओ शब्दों के सौदागर
अब नदियों पर संकट है सारे गांव इकट्ठा हों
अतुल शर्मा
Posted on 15 Dec, 2012 12:19 PM
अब नदियों पर संकट है सारे गांव इकट्ठा हों।
अब सदियों पर संकट है सारे गांव इकट्ठा हों।
पानी डूबा फाइल में
गाड़ी में मोबाइल में
सारे वादे डूब गए
खून सने मिसाइल में
एक घाव पर संकट है
सारे गांव इकट्ठा हो
एक गांव पर संकट है सारे गांव इकट्ठा हों
निजी कम्पनी आई हैं, झूठे सपने लाई हैं
इन जेबों में सत्ता है सारी सुविधा पाई हैं
नदी तू बहती रहना
अतुल शर्मा
Posted on 15 Dec, 2012 12:15 PM
पर्वत की चिट्ठी ले जाना, तू सागर की ओर,
नदी तू बहती रहना।
एक दिन मेरे गांव में आना, बहुत उदासी है,
सबकी प्यास बुझाने वाली, तू खुद प्यासी है,
तेरी प्यास बुझा सकते हैं, हम में है वो जोर।
तू ही मंदिर तू ही मस्जिद तू ही पंच प्रयाग,
तू ही सीढ़ीदार खेत है तू ही रोटी आग
तुझे बेचने आए हैं ये पूँजी के चोर।
कहीं पे आग कहीं पर नदी बहा के रहो
अतुल शर्मा
Posted on 15 Dec, 2012 11:29 AM
गांवों-गांवों में नई किताब लेके रहो
कहीं पे आग कहीं पर नदी बहा के रहो
हर आंख में सवाल चिखता रहेगा क्या
जवाब अब टोपियों में बंद रहेगा क्या
गांव-गांव में अब पैर को जमा के रहो
कहीं पे आग कहीं पर नदी बहा के रहो
भ्रष्ट अंधकार का समुद्र आयेगा
सूर्य झोपड़ी के द्वार पहुंच जाएगा
आंधियों के घरों में भी जरा जा के रहो
आज तो नदियां हमारे पास हैं
अतुल शर्मा
Posted on 15 Dec, 2012 11:16 AM
आज तो नदियां हमारे पास हैं,
कम न होगी यह नहीं आभास है।
पेड़ सांसों के कटे, नदियां बिकीं,
कुछ लुटेरों की यहां, रोटी सिकीं,
जेब भरते लोग अक्सर खास हैं
कम न होगी यह नहीं आभास है।
प्यास की नदियां बही है आजकल,
सूखती लहरें बहीं हैं आजकल,
गुम हुआ हर मौसमी आभास है
कम न होगी यह नहीं आभास है।
कह रही हर बार ये अपनी नदी
अतुल शर्मा
Posted on 15 Dec, 2012 11:11 AM
कब से बह रही, यार ये अपनी नदी
कह रही हर बार ये अपनी नदी।
शोर है, गम्भीरता का, रंग है,
एक जीवित व्यक्ति है अपनी नदी।
काट डाले हाथ और फिर पैर उसके,
एक सिसकता गांव है, अपनी नदी,
औरतों के पेट तलवारों से चीरे
दंगों में फंसी हर सांस है, अपनी, नदी।
पंचतारा होटलों में बैठ कर,
बेचते हैं हुकमरां, अपनी नदी।
नदियों में आग लगी है इन दिनों
अतुल शर्मा
Posted on 15 Dec, 2012 11:01 AM
पानी में आग लगी हैं, इन दिनों
नदियों में आग लगी है इन दिनों
सूरज के ताप से सागर की भाप से
हाथों में अंगारों, सूने पदचाप से
जंगल में आग लगी है इन दिनों
नदियों में आग लगी है इन दिनों
बहते पानी वाले, रिश्ते सब टूट रहें,
कितने गहरे वाले पीछे छूट रहे हैं
रिश्तों में आग लगी है इन दिनों
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