अतुल शर्मा

अतुल शर्मा
नदीः एक लम्बी कविता
Posted on 20 Dec, 2012 12:10 PM
आंखों की नमी
बचा सको तो बचाओ
पर्वत पुत्र

यह समय की धार
लोहे को जलाकर
कुदाली बनाये या तलवार
तय करना है यही

जैसे
कांच की तरह
चट्टानों से बहती धार

नदी बने या भाल
मुनाफा बने या
संस्कृति का हार

इस नदी का काम बहना है
वह बह रही है
उसके जंगल, उसके लोग

भाषा में उसकी ही
कह रहे हैं
पहाड़, जंगल, जमीन सब बेच दोगे अगर
Posted on 15 Dec, 2012 03:11 PM
(1)
झोपड़ियों के तन झुलसाती हैं
ये नदियां महानगर को जाती हैं।

सड़के हैं या पीठ अजगरों की
महानगर है या उसका फन है
धुंध धुए के फूल महकते हैं
इमारतों का यह चंदन वन है।

कटी जेब सा मन लुटवाती है
ये नदियां महानगर को जाती हैं।

ये जो रक्त शिरायें हैं
सारी पगडंडियां गांव की हैं
ये जो अपनी शब्द शिलाऐं हैं
क्या नदी बिकी (नुक्कड़ों पर एकल पाठ के लिये)
Posted on 15 Dec, 2012 03:04 PM
बहती नदी के साथ बहता
वह समय
आता हुआ
छूटती है दूर तक
लहरों से बनी कृतियां
शब्दों से दूर बसी
नदी की गहराई में कविता
पर्वतों के बीच से
सबसे तरल दिल
बह रहा है
धड़कनों के साथ
किनारों पर
मिल रहा है जो
बस छूटता है
फिर भी अकेली
जंगलों और पर्वतों के
गांव
प्यासे हैं
दूर है अब भी नदी
नदी के होंठ से
मुनाफाखोर नदियों को भी बाजारों में लाये
Posted on 15 Dec, 2012 02:55 PM
कंधों पर लदी इसके एक सदी है
यह बहते हुए पानी से लदी है।

जल वर्षा का खलियानों में रोको
खुशहाली की अब फसलों को रोपो

नदी ये, नदी ये सबकी नदी है
यह बहते हुए पानी से लदी है।

पेड़ की यह जड़े मिट्टी की है बांधे
तभी तो मजबूत है पर्वत के कांधे

यह रोई तो सदा रोई सदी है
यह बहते हुए पानी से लदी है।
सुनता है नदियों का बहता पानी
Posted on 15 Dec, 2012 02:46 PM
उठती हुई आवाज की बानी
सुनता है नदियों का बहता पानी

गंगा की आंखों में आंसू भरे हैं
यहां वहां के लोग डरे हैं

कौन दिलायेगा हिस्सेदारी
सुनता है नदियों का बहता पानी

खेतों में उगते हैं डंडे-झंडे
जिंदा है लोगों के पैने हथकंडे

पर्वत से बहती पानी जवानी
सुनता है नदियों का बहता पानी

कर्जे में डूबे देश को देखो
सूखेंगी नदियां तो, रोयेगी, सदियां
Posted on 15 Dec, 2012 02:39 PM
तुम हो पर्वत पर,
या हो घाटी में।

है अपना दर्द एक, एक ही कहानी,
सूखेंगी नदियां तो, रोयेगी, सदियां,

ऐसा न हो प्यासा, रह जाये पानी।
हमने जो बोया वो काटा है, तुमने,
मौसम को बेचा है बांटा है, तुमने,
पेड़ों की बांहों को काटा है, तुमने।

इस सूनी घाटी को,
बांहों में भर लो,
सूखे पर्वत की धो डालो, वीरानी।
आ देख जरा तू आने वाले पानी को
Posted on 15 Dec, 2012 02:26 PM
आ देख जरा तू आने वाले पानी को
जंगल! ओ जंगल।

नया गीत दे, बादल भरी, कहानी को
जंगल, ओ जंगल।

कई कथाओं वाले पर्वत पढ़ ले तू।
बर्फीले जंगल में आग पहन ले तू।
और गीत दे पंखों भरी जवानी को
जंगल! ओ जंगल

परिकथाओं को भी थोड़ा पानी दे,
शहराते बच्चों को चिड़िया रानी दे।
नई तान दे लोक गीत की बानी को
जंगल! ओ जंगल।
भूकम्प (संदर्भः 1991 का उत्तरकाशी भूकम्प)
Posted on 15 Dec, 2012 02:22 PM
सहमी-सी गंगा की धार
कांपे है बदरी-केदार

बादल घिर-घिर के आये
फैले जहरीले साये।
ऐसा तो देखा पहली बार रे।

कहीं-कहीं मांजी के आंसू पोंछ रही है बहना,
अपने दुख दर्दों को बाबा भूल गये हैं कहना।

बच्चों के सिर से परिवारों की छत टूट गई है,
आंसू डूबी नावों में अब है बस्ती को रहना।

प्रश्नों के गहरे साये,
उसमें है नींद समायें।
नदी के साथ बहें, सदी के साथ बहें
Posted on 15 Dec, 2012 02:17 PM
नदी के साथ बहें,
सदी के साथ बहें,

टूटते हुए नदी के इन किनारों से
राजधानियों की भ्रष्ट इन बहारों से

जरा दूर रहें
थकन से चूर रहें।

बहाव तेज है नदी का तू संभल के चल
बिजलीयों में इस बहाव को बदल के चल

ये बात मन से कहें
से बात जन से कहें

सवाल से भरी गुफा से तू निकल के आ
बोलते हुए इन जंगलों में हाथ मिला
अब तो सड़कों पर आओ ओ शब्दों के सौदागर
Posted on 15 Dec, 2012 02:13 PM
अब तो सड़कों पर आओ ओ शब्दों के सौदागर,
अब तो होश में आ जाओ शब्दों के कारीगर,

सेमिनार में लेखक जी बात करें मज़दूरों की
एयर कंडीशन में बैठे चिंता है मज़दूरों की
चरित्रहीन सत्ता त्यागों ओ शब्दों के कारीगर

संसद में कुछ प्रश्न उठे और उठते ही बैठ गए
उत्तर जिनके पास न था उत्तर देकर बैठ गए
बात सड़क पर उठवाओ ओ शब्दों के सौदागर
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