सफलता की कहानियां और केस स्टडी

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लोगों की गाड़गंगा
Posted on 01 Dec, 2013 09:20 AM 30 सालों के दौरान गाँवों के समाज ने करीब 30 हजार चाल-खाल बनाई हैं। उनके लगे जंगल 100 फिट कैनोपी तक के हैं। जमीन पर ह्यूमस की परत काफी मोटी है। पशु पक्षी भी वहां मौजूद हैं। जंगल खेती और चारा सभी कुछ उगाने के लिए पर्याप्त पानी मौजूद है। इन जंगलों में अब हर तरह का जीवन संगीत गूँज रहा है। बाढ़ और सुखाड़ दोनों ही उस इलाके से जा चुके हैं। ग्लेशियर सूखने की घोषणा और बातें वहां के जंगल अपनी हवा में उड़ा देते हैं। अपने धर्म-कर्म के लिए एक गंगा बहा देते हैं।उफरैखाल, पौड़ी, चमोली और अल्मोड़ा तीन जिलों के बीच स्थित गांव है। जो जिम कार्बेट नेशनल पार्क के उत्तर में और समुद्र तल से 6000 फीट ऊपर पहाड़ों में है। दरअसल उफरैखाल ‘दूधातोली पर्वत श्रृंखला का हिस्सा है।’

उत्तराखंड में बहुत से कस्बों और गाँवों के नाम खाल के नाम पर हैं जैसे... उफरैखाल, चौबाटाखाल, नौगांवखाल, गुमखाल, बूबाखाल, चौखाल, परसुंडाखाल, पौंखाल, बीरोंखाल, भदेलीखाल, अदालीखाल, सतेराखाल, पड़जीखाल, किनगोड़ीखाल आदि। पूरे उत्तराखंड में लगभग ढाई हजार खाल पूर्वजों के बनाए हुए हैं।
कचरे का पूर्ण प्रबंधन ही पर्यावरण को बेहतर ढंग से सुरक्षित रखता है
Posted on 09 Nov, 2013 12:59 PM एमयूटीबीटी ने कुछ समय पहले एक राष्ट्रीय स्तर का बिजनेस प्लान कंपीटिशन आयोजित किया था। इसमें पेपरट्री को तीसरा स्थान मिला। इनाम के तौर पर दो लाख रुपए नकद दिए गए। एक अन्य राष्ट्रीय स्तर के ही ग्रीन बिजनेस प्लान कंपीटिशन में कंपनी को पहला स्थान मिला। यह कंपनी दुनिया की उन 50 कंपनियों में भी शुमार हो चुकी है, जिन्हें शुरुआत में ही बड़े-बड़े इनाम मिल गए। पेपरट्री के बारे में सबसे खास बात ये है कि वे कचरे से क्रिएशन कर रहे हैं। जिस चीज को ज्यादातर लोग बेकार समझकर फेंक देते हैं, कंपनी उसे फिर काम का बना रही है। हम भारतीय अब भी कागज़ की रद्दी के बारे में पूरी तरह सचेत नहीं हैं। हालांकि हम सब जानते हैं कि कागज़ पेड़ों को काटने के बाद बनाया जाता है। इसके बावजूद हम कागज़ की बर्बादी रोकने के लिए ज्यादा जागरूक नहीं हैं और अगर बात किसी शैक्षणिक संस्थान की हो तो वहां कुछ ज्यादा ही कागज़ बर्बाद होता है। न सिर्फ स्टूडेंट बल्कि टीचर भी इसमें शामिल होते हैं। चूंकि कागज़ पढ़ने-पढ़ाने के काम की मूलभूत आवश्यकता है इसलिए कोई इसकी बर्बादी को लेकर चिंता नहीं करता।
टिकाऊ खेती ने दिखाई राह
Posted on 07 Nov, 2013 10:38 AM

पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में कई वर्षों से प्रयासरत गोरखपुर एंवायरमेंटल एक्शन ग्रुप ने इस दिशा में अच्छा काम किया है। इस संस्था ने जिले के सरदार नगर और कैंपियरगंज ब्लाकों के गाँवों में खेती किसानी को नई राह दिखाई है। अन्य संस्थाओं के सहयोग से इसे पूर्वांचल के जिलों में फैलाने में भी मदद की है। इस संस्था ने तीन बिंदुओं पर ध्यान दिया है। पहली बात तो यह है कि कृषि के लिए बाजार के महंगे उत्पादों पर निर्भर होने के स्थान पर स्थानीय स्तर पर उपलब्ध निशुल्क, संसाधनों का बेहतर प्रयोग किया जाए और इसकी वैज्ञानिक सोच को किसानों तक ले जाया जाए।

हाल के वर्षों में खेती-किसानी का जो गंभीर संकट उत्पन्न हुआ उसका एक मुख्य कारण यह था कि छोटे किसानों की ज़रूरतों को नज़रअंदाज़ कर कृषि विकास का प्रयास किया गया। ऐसी तकनीकों का प्रसार हुआ जो न केवल महंगी है बल्कि मिट्टी के प्राकृतिक उपजाऊपन को क्षतिग्रस्त कर भविष्य में और ज्यादा खर्च की भूमिका भी तैयार करती हैं। पर्यावरण से खिलवाड़ कर कई नई बीमारियों और समस्याओं को निमंत्रण देती हैं। महंगी तकनीकों के कारण छोटे किसानों में कर्ज की समस्या बढ़ गई। उधर भूमि सुधार की विफलता के कारण भूमिहीन कृषि मज़दूरों को छोटे किसान बनाने का कार्य भी पीछे छूट गया। चिंताजनक स्थिति में भी उत्साहवर्धक बात यह है कि कई संस्थाओं और संगठनों के प्रयोग ने देश के करोड़ों किसानों को संकट से बाहर निकालने की राह भी दिखाई है। तमाम सीमाओं के बावजूद आर्गेनिक खेती ने अपना असर दिखाया है।
जैविक खेती का गुरू बना गोविंदपुर
Posted on 07 Nov, 2013 10:12 AM अन्न संकट दूर करने के लिए 60 के दशक में हरित क्रांति लाई गई। अधिक अन्न का उत्पादन तो जरूर हुआ, पर मिट्टी ऊसर होती गई। मिट्टी, जल व वायु प्रदूषित होती गई और मनुष्य व पशुओं की सेहत पर बुरा प्रभाव पड़ने लगा। कृषि विज्ञान केंद्र सरैया के मृदा वैज्ञानिक के.के. सिंह रासायनिक खेती के दुष्परिणामों को गिनाते हुए कहते हैं कि पेड़-पौधे काटे जा रहे हैं। पेस्टीसाइड्स और नाइट्रोजन के अधिक प्रयोग करने से वायुमंडल के साथ-साथ जल प्रदूषण भी हो रहा है। फसल की पैदावार बढ़ाने के चक्कर खेतों में रासायनिक खाद व कीटनाशक दवाओं का इस्तेमाल भी धड़ल्ले से हो रहा है, जिससे मिट्टी ऊसर होती जा रही है। पहले खेतों में नाइट्रोजन की मात्रा 3-5 किलो प्रति कट्ठा के हिसाब होती थी जो आज रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं के इस्तेमाल से 10-20 लौकी प्रति कट्ठा हो गई है। वजह साफ है किसानों का अत्यधिक मात्रा में रासायनिक खाद व कीटनाशक दवाओं का इस्तेमाल करना। रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं के इस्तेमाल से धरती दिनों दिन दूषित होती जा रही है और इससे जलवायु प्रदूषण का खतरा बढ़ रहा है। यह प्रकृति के साथ-साथ फसल चक्र को भी प्रभावित कर रहा है।
पहिया पानी
Posted on 27 Oct, 2013 04:26 PM

भारत के कई ग्रामीण इलाकों में पानी काफी दूर-दूर से लाना पड़ता है। घड़े, मटके और नए आए प्लास्टिक के घड़े भी महिलाओं को सिर पर उठाकर ही चलना पड़ता है। कई जगहों पर तो महिलाओं को 5-10 किलोमीटर दूर से भी जरूरत का पानी लाना पड़ता है। इस काम में उन्हें रोजमर्रा के कई-कई घंटे लगाने पड़ते हैं। घर की औरतों के अलावा बच्चियों को भी इस काम में लगाया जाता है। बच्चियों की शिक्षा-दिक्षा और स्वास्थ्य काफी प्

water wheel
परंपरा का पुनः प्रयोग
Posted on 23 Aug, 2013 10:58 AM सूखे से पस्त बुंदेलखंड जैसे इलाकों को वित्तीय पैकेज की नहीं बल्कि परंपरा से उपजे उस प्रयोग की जरूरत है जो देवास का कायाकल्प करके महोबा पहुंच चुका है..

देवास के हर गांव में आज सफलताओं की ऐसी कई छोटी-बड़ी कहानियां मौजूद हैं। पानी और चारा होने के कारण लोगों ने दोबारा गाय-भैंस पालना शुरू कर दिया है और अकेले धतूरिया गांव से ही एक हजार लीटर दूध प्रतिदिन बेचा जा रहा है। पर्यावरण पर भी इन तालाबों का सकारात्मक असर हुआ है। आज विदेशी पक्षियों और हिरनों के झुंड इन तालाबों के पास आसानी से देखे जा सकते हैं। किसानों ने भी पक्षियों की चिंता करते हुए अपने तालाबों के बीच में टापू बनाए हैं। इन टापुओं पर पक्षी अपने घोंसलें बनाते हैं और चारों तरफ से पानी से घिरे रहने के कारण अन्य जानवर इन घोंसलों को नुकसान भी नहीं पहुंचा पाते।

किस्सा 17वीं शताब्दी का है बुंदेलखंड के महाराजा छत्रसाल के बेटे जगतराज को एक गड़े हुए खज़ाने की खबर मिली जगतराज ने यह ख़ज़ाना खुदवा कर निकाल लिया। छत्रसाल इस पर बहुत नाराज़ हुए और उन्होंने इस खज़ाने को जन हित में खर्च करने के आदेश दिए, जगतराज को आदेश मिला कि इस खज़ाने से पुराने तालाबों की मरम्मत की जाए और नए तालाब बनवाए जाएं, उस दौर में बनाए गए कई विशालकाय तालाब आज भी बुंदेलखंड में मौजूद हैं, सदियों तक ये तालाब किसानों के साथी रहे। कहा जाता है कि बुंदेलखंड में जातीय पंचायतें भी अपने किसी सदस्य को गलती करने पर दंड के रूप में तालाब बनाने को ही कहती थीं। सिंचाई से लेकर पानी की हर आवश्यकता को पूरा करने की ज़िम्मेदारी तालाबों की होती थी।
‘राज और समाज’ का साझा प्रयास: बकुलाही पुनरोद्धार
Posted on 03 Aug, 2013 10:58 AM

बकुलाही का मुद्दा सिर्फ प्यासे समाज अथवा बकुलाही के भगीरथ समाज शेखर का अकेला नहीं रहा बल्कि अब यह मुद्दा अर्थात बकुलाही का पुनरोद्धार राज और समाज की साझा ज़िम्मेदारी बन गया है। जिसे युद्ध स्तर पर पूरा करने का प्रयास ‘राज और समाज’ दोनों कर रहे है। ‘राज और समाज’ के साझा प्रयास एवं साझी संस्कृति का यह उदाहरण प्रदेश का एक नायाब उदाहरण बन चुका है। बकुलाही नदी की धारा को 25 वर्ष पहले कुछ निहित स्वार्थों की खातिर बीच से ‘लूप कटिंग’ कर तकरीबन 18 किमी. छोटा कर दिया गया था। इस कृत्य के बाद 18 किमी. के इर्द-गिर्द बसे करीब 25 खुशहाल गाँवों से उनकी हरियाली रूठती चली गई। जल स्तर नीचे गिरता चला गया।

प्रतापगढ़ के दक्षिणांचल में ज्वालामुखी की तरह सुलग रहे बकुलाही के मुद्दे को लगता है एक राह मिल गई है। पानी के प्यासे समाज के एक लंबे संघर्ष के बाद प्यास बुझाने की उम्मीद जाग गई है। बकुलाही पुनरोद्धार अभियान के बैनर तले जो जनांदोलन चल रहा था, उसे उसका अभीष्ट नजर आने लगा है। समाज शेखर की अगुवाई में अपनी नदी, अपने पानी के लिए ‘प्यासा समाज’ ने जागृति का जो शंखनाद किया उससे ‘राज’ की तन्द्रा टूट गई और समाज के इस महायज्ञ में आहुति डालने के लिए ‘राज’ आगे बढ़कर ‘समाज’ के बगल खड़ा हो गया।
मछली पालन कला है और खेल भी
Posted on 02 Jul, 2013 12:45 PM डोकाद गांव में अब खेती और जंगल के अलावा मछली पालन भी अहम रोजगार का रूप धारण कर चुका है। जिसके कारण गांव में लोगों की न सिर्फ आमदनी बढ़ी है बल्कि रोजगार के नाम पर होने वाला पलायन भी रुक गया है। अब नौजवान परदेस जाकर कमाने की बजाय विजय ठाकुर की तरह गांव में ही मछली पालन में रोजगार ढ़ूढ़ंने लगे हैं। यहां किसान कर्ज लेने के एक साल में ब्याज समेत चुका देता है। किसी भी इलाके के विकास के लिए केवल सरकार की योजनाएं ही काफी नहीं है। यदि समुदाय चाहे तो सरकारी योजनाओं का इंतजार किए बगैर मिसाल कायम कर सकता है। रांची से 35 किलोमीटर दूर जोन्हा पंचायत इसका उदाहरण है। जिसने विगत 6 सालों से मछली पालन से समृद्धि तो की है साथ ही गांव के विकास और पानी के श्रोत तथा मलेरिया जैसे बीमारियों पर भी काबू पा लिया। अनगड़ा प्रखंड का डोकाद गांव के विजय ठाकुर कभी अखबार से जुड़े हुए थे। लेकिन गांव के विकास और सामाजिक काम करने के प्रति उनकी इच्छाशक्ति के आगे उन्होंने इस काम को छोड़ दिया और गांव में ही रोजगार के साधन उपलब्ध कराने के लिए प्रयास करने लगे।
तालाब से खुशहाल हुआ किसान
Posted on 20 May, 2013 02:54 PM सन् 2005 में महोबा में आया सूखा बृजपाल सिंह के लिए एक नया संकट का दौर लेकर आया। उनके कुओं में पानी सूख गया। पीने के पानी की किल्लत इतनी भयावह हो गई कि उन्हें अपनी 6-9 लीटर दूध देने वाली भैसें भी औने-पौने दाम पर बेचनी पड़ी और वे उस साल कोई फसल भी ले नहीं सके। उनके खेतों के बीच से मिट्टी कटाव की वजह से बरसाती नाली बनने लगी थी। भूजल की अनुपलब्धता, बरसाती नाली से मिट्टी का कटाव एवं ज्यादा पानी आना; ये कुछ ऐसे कारण थे, जिससे दोनों फसल ले पाना संभव नहीं था। बृजपाल सिंह पुत्र श्री रामसनेही सिंह ग्राम बरबई,कबरई महोबा के एक किसान हैं। लगभग पचास की उम्र पार कर चुके बृजपाल सिंह और उनके परिवार के पास 34.6 एकड़ की खेती है। बृजपाल सिंह के गांव बरबई में कोई कैनाल (नहर) नहीं है। भूजल की उपलब्धता काफी नीचे है। बृजपाल सिंह ने अपने खेत को सिंचित करने के लिए डीप बोरवेल और बोरवेल का सहारा लेने की कोशिश की। अपने खेत के अलग-अलग हिस्सों में तीन बोरवेल लगभग 200 फिट के करवाए लेकिन तीनों असफल रहे। उनमें पानी नहीं उपलब्ध हो सका चौथा बोरवेल उन्होंने 680 फिट गहराई तक करवाया,उन्हें उम्मीद थी कि इतनी गहराई तक तो पानी मिल ही जायेगा पर उनकी उम्मीद पर पानी फिर गया और उन्हें पानी नहीं मिला।
पांडरपुरी के ग्रामीण बना रहे खंडी नदी में बाँध
Posted on 11 Jan, 2013 11:31 AM

छत्तीसगढ़ के एक गांव में डेढ़ सौ महिला-पुरुषों ने उठाया बीड़ा


श्रमदान कर खंडी नदी में बांध बनाने जुटे पांडरपुरी के ग्रामीणश्रमदान कर खंडी नदी में बांध बनाने जुटे पांडरपुरी के ग्रामीणप्रशासन की लगातार उपेक्षा के बाद गांव की निस्तारी की समस्या को हल करने ग्राम पांडरपुरी के ग्रामीणों ने 150 फीट चौड़ी खंडी नदी में श्रम दान कर अस्थाई बाँध बनाने का बीड़ा उठाया। ग्रामीणों ने 6 जनवरी से बाँध बनाने की शुरुआत भी कर दी है। सीमेंट की खाली बोरियों में रेत भर कर बनाए जा रहे इस अस्थाई बाँध में कोई रकम नहीं लगेगी बल्कि पुरा निर्माण श्रमदान से ही संपन्न होगा। इसके लिए गांव के 150 से अधिक महिला पुरुष जुट कार्य में जुटे हैं।
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