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सफलता की कहानियां और केस स्टडी
सिमोन के हौसले को सलाम
Posted on 07 Mar, 2016 11:44 AM15 वर्ष की उम्र में सिमोन उरांव ने झरिया नाला को बाँधने का साहसिक निर्णय लिया। अपने पिता
सूखे तालाबों में उड़ेला अमृत
Posted on 05 Mar, 2016 03:33 PMअमृत सरोवर के शहर अमृतसर के जगमोहन सिंह गिल ने सूखे तालाबों में ‘अमृत’ उड़ेल उन्हें नया जीवन दिया है। उनके ‘भागीरथ’ प्रयास से अमृतसर, तरनतारन व गुरदासपुर के 30 ऐतिहासिक तालाब पुनर्जीवित हो गए हैं। बोपारायकलां में शेर-ए-पंजाब महाराजा रंजीत सिंह द्वारा बनाए गए ढाई सौ साल पुराना तालाब भी लबालब हो चुका है। जल संरक्षण की दिशा में 14 साल से जुटे जगमोहन के इस प्रयास ने उन्हें जल का ‘मोहन’ बना दिया है। उनके इस प्रयास से तालाब ही नहीं विरासत भी जिंदा हो उठी है।
पवन गुरु, पानी पिता, माता धरती। पानी को पिता बताने वाले गुरु साहिबान की इस वाणी के मूल को लोग अब समझ चुके हैं। सूख चुके 30 तालाब के पुनर्जीवित होने से हजारों लोगों को लाभ हुआ है। उनकी सोच बदली है। जल की महत्ता को समझ चुके हैं। ये तालाब अब उनके लिये पूजनीय हो गए हैं। गाँव के लोग दूसरों को भी जल संरक्षण के लिये प्रेरित करने लगे हैं।
पर्यावरण और जल संरक्षण को धार देता कुल्हार
Posted on 01 Feb, 2016 03:14 PM
भोपाल-बीना रेल लाइन पर स्थित कुल्हार गाँव में इसकी शुरुआत सन 1983 में हुई जब तत्कालीन सरपंच वीरेंद्र मोहन शर्मा ने क्रमश: 14 हेक्टेयर, 26 हेक्टेयर, 05 हेक्टेयर और 10 हेक्टेयर शासकीय भूमि को अतिक्रमण से मुक्त कराया और भूमि, जल एवं वन प्रबन्धन की आधुनिक सोच के साथ इस जमीन का विकास किया। यह काम पढ़ने में जितना आसान प्रतीत हो रहा है हकीक़त में उतना ही मुश्किल था। दबंगों के कब्जे से अतिक्रमित भूमि को मुक्त कराना, गाँव वालों के उसके सार्वजनिक उपयोग के लिये समझाना तथा उससे जुड़े लाभों को उनके समक्ष पेश करना कतई आसान नहीं था।
विदिशा जिले के गंज बासोदा तहसील में पहुँचते-पहुँचते हमें पानी के संकट का अन्दाजा होने लगा था। आम लोगों से बातचीत में पता चला कि तहसील के 90 प्रतिशत बोरवेल विफल हो चुके हैं यानी उनमें पानी नहीं रहा, वहीं जलस्तर 300 फीट से भी नीचे जा चुका है। हमारी इस यात्रा का मकसद भी पानी और पर्यावरण से जुड़ा हुआ था लेकिन कहीं सकारात्मक अर्थों में।
गंज बासोदा तहसील का कुल्हार गाँव, ग्रामीण भारत के लिये स्थायी विकास का एक अनुकरणीय मॉडल पेश करता है। एक ऐसा मॉडल जिसमें ग्राम पंचायत, गाँववासियों, किसानों, पर्यावरण और जल सब एक दूसरे पर आश्रित हैं और एक दूसरे के काम आते हैं।
कुल्हार मॉडल के निर्माण का श्रेय जाता है गाँव के पूर्व सरपंच वीरेंद्र मोहन शर्मा को।
मछुआरों ने बचाई ‘हडसन’
Posted on 26 Dec, 2015 04:06 PMडच जहाजी ‘डेविड हडसन’ लाल-भारतीयों के देश अमेरिका में जिस नदी के रास्ते घुसे थे, उसी नदी-धारा का नाम ‘हडसन’ है। हडसन नदी भारत की गंगा और नर्मदा जैसी बड़ी नदी नहीं है। इसकी लंबाई सिर्फ 507 किलोमीटर है और यह एडिरौंडेक पर्वत शृंखला से निकलती है और न्यूयार्क सिटी, न्यू जर्सी जैसे कई बड़े शहरों के किनारे होती हुई अटलांटिक सागर में गिरती है। गहराई और प्रवाह इतना कि जहाजें चलती हैं। पानी इतना साफ कि बिना फिल्टर किए सीधे न्यूयार्कवासियों के घरों में सप्लाई होता है। 40 लाख से ज्यादा लोगों के घरों में हडसन का पानी बिना किसी फिल्टर के पहुंचता है, इसे यूं भी कह सकते हैं कि पानी इतना साफ कि उसे फिल्टर करने की जरूरत ही नहीं पड़ती।
ऐसा नहीं है कि हमेशा से यह नदी शुद्ध रही है। नदी ने काफी बुरे दिन देखे हैं। 1947-77 तक के दौर को नदी के सबसे प्रदूषित कालखण्ड के रूप में याद किया जाता है।
नाली गाँव में जल स्रोत अभयारण्य विकास
Posted on 03 Sep, 2015 03:36 PMजल स्रोत के जल समेट क्षेत्र का समुचित संरक्षण व संवर्धन करने के साथ ही नौले व हैंडपम्प में पानी के प्रवाह में गुणात्मक परिवर्तन आया है। ग्रामवासियों के अनुसार वर्ष 2003 में उक्त नौले में वर्ष भर पानी बना रहा तथा इस वर्ष हैंडपम्प से औसतन 1200 लीटर पानी प्रतिदिन प्राप्त हुआ। जल समेट क्षेत्र में मलमूत्र विसर्जन करने पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाने के साथ ही गाँव में पेयजल सम्बन्धित बीमारियाँ भी काफी कम हुई हैं।
नाली गाँव अल्मोड़ा जिले के धौला देवी ब्लॉक में अल्मोड़ा-पिथौरागढ़ मार्ग पर दन्यां बाजार के निकट बसा एक छोटा सा गाँव है। इस गाँव में 17 हरिजन परिवार निवास करते हैं, इस गाँव के लिये पेयजल की कोई सरकारी योजना नही है। गाँववासी पानी की दैनिक जरूरतों की पूर्ति गाँव के निकट स्थित नौले से करते रहे हैं। ग्रामवासियों के अनुसार विगत 15 वर्षों से इस सदाबहार नौले का जल प्रवाह निरन्तर कम होता गया तथा वर्ष 1999 तक यह नौला गर्मियों में पूर्ण-रुप से सूख गया। इस नौले के सूखते ही गाँववासियों को पेयजल का गम्भीर संकट उत्पन्न हो गया तथा उन्हें पेयजल हेतु गाँव से डेढ़ किलोमीटर नीचे स्थित दूसरे स्रोत पर निर्भर होना पड़ा। इतनी दूर से पानी ढोने में महिलाओं को 2-3 घण्टे का समय लगने लगा। साथ ही साथ पानी ढोने से उनके सिर में निरन्तर दर्द रहने लगा।
गाँव में पानी की समस्या को दूर करने के लिये ग्राववासियों ने परती भूमि विकास समिति, नई दिल्ली व कस्तूरबा महिला उत्थान मण्डल, दन्या के साथ मिलकर विकल्प ढूँढ़ने प्रारम्भ किये। चूँकि इस गाँव के आस-पास कोई दूसरा उचित जल स्रोत उपलब्ध नहीं था इस कारण इस गाँव में केवल हैंडपम्प व बरसाती जल एकत्रण टैंक ही मुख्य समाधान निकले।
पड़ाई धारा संरक्षण एवं संवर्धन-एक पहल
Posted on 03 Sep, 2015 03:18 PMवर्तमान में जल स्रोत के नियमित प्रबन्धन व रखरखाव से प्रत्येक परिवार को बिना इन्तजार किये शुद्ध पेयजल मिल रहा है तथा पानी के संग्रहण हेतु टैंक का प्रयोग करने से महिलाओं के समय की बचत हो रही है, साथ ही साथ पशुओं के पानी पीने की अलग से व्यवस्था करने से पशुओं को भी शुद्ध जल प्राप्त हो रहा है।
पड़ाई गाँव अल्मोड़ा जिले के धौलादेवी ब्लाक में स्थित एक छोटा से गाँव है जिसमें रहने वाले परिवारों की कुल संख्या 23 है। इस गाँव का एक मात्र जल स्रोत गाँव से तीन सौ मीटर नीचे की तरफ स्थित है। इस स्रोत पर पड़ाई के 23 परिवारों के अलावा निकटवर्ती गाँव खूना के 20 परिवार गर्मियों में पेजयल एवं अन्य घरेलू उपयोग हेतु निर्भर रहते हैं। ग्रामवासियों के अनुसार 50 वर्ष पूर्व यह स्रोत नौले के रूप में था जो कि भू-स्खलन से दब गया, जिसे बाद में खोद कर धारा बना दिया गया। किन्तु इस धारे की निरन्तर उपेक्षा एवं कुप्रबन्धन के कारण इसमें पानी का प्रवाह काफी कम हो गया था, जिससे गाँव में जल संकट काफी गहरा गया था। गाँव का एक परिवार जब अपने जानवरों को पानी पिलाकर लाता था तभी दूसरा परिवार अपने जानवरों को पानी पिलाने जा पाता था। स्रोत के आस-पास कीचड़ व गन्दगी हो जाने के कारण गर्मी के मौसम में अनेक बीमारियाँ फैल जाती थी।जल स्रोत संरक्षण से आबाद हुई बंजर भूमि
Posted on 03 Sep, 2015 11:52 AMआर्थिक स्तर में सुधार के साथ ही गाँववासियों का वनों व जल स्रोतों के संरक्षण के प्रति जागरूकता बढ़ी फलस्वरूप ग्रामवासियों ने वर्ष 1998 में अपनी सम्पूर्ण सिविल भूमि पर वन पंचायत का गठन किया। वर्तमान में सभी ग्रामवासी वन पंचायत संगठन के अन्तर्गत अपने वनों का प्रबन्धन सुचारू रूप से कर रहे हैं।
छियोड़ी गाँव नैनीताल जिले के कोश्यिा-कुटौली तहसील में समुद्र तल से 1700 मीटर की ऊँचाई पर बसा है। इस गाँव में पहुँचने के लिए अल्मोड़ा-नैनीताल मोटर मार्ग में स्थित सुयाल खेत से 6 कि.मी. की सीधी चढ़ाई चढ़नी पड़ती है इस कारण यह गाँव हर प्रकार से उपेक्षित रहा है। वर्तमान में गाँव में कुल 33 परिवार निवास करते हैं जबकि लगभग इतने ही परिवार गाँव में मूलभूत सुविधाओं की कमी, पेयजल संकट व आय स्रोतों की कमी के कारण गाँव से स्थाई रूप से पलायन कर चुके हैं। स्थानीय निवासी परम्परागत खेती व पशुपालन में अपना जीविकोपार्जन करते हैं। गाँव में निजी भूमि के अतिरिक्त 60 हेक्टेयर सिविल वन भूमि है। किन्तु सिविल वन भूमि की कोई प्रबन्धन व्यवस्था न होने के कारण अधिकतर भूमि वृक्ष विहीन होने लगी थी। वर्ष 1995 में स्थानीय स्वयंसेवी संस्था ‘चिराग’ ने गाँववासियों के साथ मिल कर सिविल वनों के संरक्षण एवं संवर्धन का कार्य प्रारम्भ किया।बंजर पहाड़ी तक पहुँचाया पानी और उगा दिए जंगल
Posted on 04 May, 2015 11:31 AMकहीं सूबे की राजधानी तो कहीं आदिवासी अंचलों में पर्यावरणविदों और कार्यकर्ताओं की जीवटता बनी मिसाल।सात साल पहले शुरू हुई यह कोशिश अब हरियाली चादर बनकर साफ़ दिख रही है। तब से यहाँ नीम के अलावा कई नए पौधे लग रहे हैं और उनके लिये खाद, पानी, दीमक ट्रीटमेंट और खरपतवार का काम लगातार जारी है। इन सालों में यहाँ हरियाली ही नहीं दिखती है, बल्कि मोर, तोता और कोयल की आवाजों को भी सुना जा सकता है। जीवों को फलदार घर मिल गए हैं। पहले सुरक्षा न होने से कई पेड़ जल गए थे, पर अब ऐसा नहीं है।
इंसान जहाँ अपने लालच के लिये पानी तक को लूट रहा है और उस पर रहने वाले जंगल, जमीन और जानवरों को भी नहीं छोड़ रहा है, वहीं कई बड़े शहरों और सुदूर गाँवों में ऐसे लोग आज भी हैं जो पानी के जरिए एक सुन्दर संसार को बनाने और उसकी रखवाली में लगे हुए हैं।मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में एक पर्यावरणप्रेमी की जिद बंजर पहाड़ी पर जंगल उगा रही है, वहीं रतलाम जिला मुख्यालय से कई कोस दूर जनजाति बाहुल्य गाँवों में सामूहिक प्रयासों से बंजर ज़मीन इस हद तक हरी बन रही है कि यहाँ पचास हजार से ज्यादा आम के पेड़ लोगों की आजीविका का बड़ा सहारा बन गए हैं। जाहिर है उन्होंने पानी से न केवल जंगल, जमीन और जानवरों को खुशहाल बनाया, बल्कि जल से जीवन के सिद्धान्त को अपनी जीवन शैली में उतारा।
गर्मी में बहती है ठंडी बयार
Posted on 14 Apr, 2015 11:48 AMपृथ्वी दिवस पर विशेष
अब तक लगाए 11 लाख पौधे, आसपास का बदल गया है पर्यावरण
मीणा के इस समर्पण की भाषा वन्य प्राणी भी समझने लगे हैं, तभी तो जब वे मोर को पुकारते हैं, तो वह उनके पास आकर दाना चुगने लगता है और हिरण और अन्य छोटे जानवर उनके पास कुलाँचे भरने में भयभीत नहीं होते। वृक्ष मित्र होने के नाते श्री मीणा लोगों को प्रेरित करते हैं कि वे ज्यादा-से-ज्यादा पौधा लगाएँ और हाँ, जो लोग यह सोचते हैं कि पानी के अभाव में पौधा कैसे लगा सकते हैं, तो उन्हें वे सन्देश देते हैं कि एक पौधे को जीवित रखने के लिये बहुत ही कम पानी की जरूरत होती है, जिसे ड्रॉप तकनीक का उपयोग कर पौधारोपण किया जा सकता है।
राजस्थान की सीमा से लगे मध्य प्रदेश के श्योपुर जिले के एक छोटे से गाँव बांसोद में प्रवेश करते ही आसपास के इलाके से वहाँ कुछ अलग ही वातावरण मिलता है। मुख्य सड़क से गाँव को जोड़ने वाली सड़क के दोनों किनारे नीम, आम, जामुन, पीपल के बड़े-बड़े पेड़ और ठंडक का अहसास।
श्योपुर भले ही पालपुर कुनो नेशनल पार्क के सघन जंगल के कारण जाना जाता है, पर इसके कई इलाकों में सूखे जैसी स्थिति है। लेकिन इन सबसे हटकर बांसोद और उसके आसपास का इलाका हरियाली से ढँका हुआ है। यह किसी प्राकृतिक कारण से नहीं, बल्कि एक जुनूनी शख्सियत जयराम मीणा के कारण सम्भव हुआ है।
जयराम मीणा को आसपास के लोग वृक्ष मित्र के रूप में जानते हैं। जिला मुख्यालय से 20 किलोमीटर दूर बड़ोदा विकासखण्ड से थोड़ा आगे से दाईं ओर मुड़कर 10 किलोमीटर चलने के बाद बांसोद आता है। इस बीच कहीं भी वृक्ष मित्र के बारे में पूछा जाए, कोई शख्स उनका पता बताने में असमर्थ नहीं दिखता है।