भोपाल-बीना रेल लाइन पर स्थित कुल्हार गाँव में इसकी शुरुआत सन 1983 में हुई जब तत्कालीन सरपंच वीरेंद्र मोहन शर्मा ने क्रमश: 14 हेक्टेयर, 26 हेक्टेयर, 05 हेक्टेयर और 10 हेक्टेयर शासकीय भूमि को अतिक्रमण से मुक्त कराया और भूमि, जल एवं वन प्रबन्धन की आधुनिक सोच के साथ इस जमीन का विकास किया। यह काम पढ़ने में जितना आसान प्रतीत हो रहा है हकीक़त में उतना ही मुश्किल था। दबंगों के कब्जे से अतिक्रमित भूमि को मुक्त कराना, गाँव वालों के उसके सार्वजनिक उपयोग के लिये समझाना तथा उससे जुड़े लाभों को उनके समक्ष पेश करना कतई आसान नहीं था।
विदिशा जिले के गंज बासोदा तहसील में पहुँचते-पहुँचते हमें पानी के संकट का अन्दाजा होने लगा था। आम लोगों से बातचीत में पता चला कि तहसील के 90 प्रतिशत बोरवेल विफल हो चुके हैं यानी उनमें पानी नहीं रहा, वहीं जलस्तर 300 फीट से भी नीचे जा चुका है। हमारी इस यात्रा का मकसद भी पानी और पर्यावरण से जुड़ा हुआ था लेकिन कहीं सकारात्मक अर्थों में।
गंज बासोदा तहसील का कुल्हार गाँव, ग्रामीण भारत के लिये स्थायी विकास का एक अनुकरणीय मॉडल पेश करता है। एक ऐसा मॉडल जिसमें ग्राम पंचायत, गाँववासियों, किसानों, पर्यावरण और जल सब एक दूसरे पर आश्रित हैं और एक दूसरे के काम आते हैं।
कुल्हार मॉडल के निर्माण का श्रेय जाता है गाँव के पूर्व सरपंच वीरेंद्र मोहन शर्मा को। उन्होंने सन 1978 से 1994 तक बतौर सरपंच तथा उसके बाद एक सजग नागरिक की हैसियत से गाँव में जो बदलाव लाये, उनका देशव्यापी स्तर पर अनुकरण किया जाये तो एक तीर से कई निशाने साधे जा सकते हैं। यह मॉडल अन्न उत्पादन बढ़ाने, वर्षाजल संरक्षण, सामान्य जल संरक्षण और पर्यावरण संरक्षण का एक स्थायी मॉडल हमारे सामने पेश करता है।
भोपाल-बीना रेल लाइन पर स्थित कुल्हार गाँव में इसकी शुरुआत सन 1983 में हुई जब तत्कालीन सरपंच वीरेंद्र मोहन शर्मा ने क्रमश: 14 हेक्टेयर, 26 हेक्टेयर, 05 हेक्टेयर और 10 हेक्टेयर शासकीय भूमि को अतिक्रमण से मुक्त कराया और भूमि, जल एवं वन प्रबन्धन की आधुनिक सोच के साथ इस जमीन का विकास किया।
यह काम पढ़ने में जितना आसान प्रतीत हो रहा है हकीक़त में उतना ही मुश्किल था। दबंगों के कब्जे से अतिक्रमित भूमि को मुक्त कराना, गाँव वालों के उसके सार्वजनिक उपयोग के लिये समझाना तथा उससे जुड़े लाभों को उनके समक्ष पेश करना कतई आसान नहीं था।
कोशिश यह की गई कि अतिक्रमण मुक्त ज़मीन पर ऐसे पेड़ पौधे लगाए जाएँ जो स्थानीय आबादी के लिये रोजगारपरक भी साबित हों और भविष्य की मानवीय आवश्यकताओं को पूरा करने में मददगार भी साबित हो सकें। इस तरह कुल्हार में एक विशाल भूखण्ड पर स्थायी विकास का वह मॉडल सामने आया जिसे यदि देशव्यापी स्तर पर अपनाया जाये तो वह बहुत बड़े पैमाने पर बदलाव का साधन बन सकता है।
पहली योजना
सन 1983 में 14 हेक्टेयर भूभाग को अतिक्रमण मुक्त करवाके इस पर बाँस, शीशम, सूबबूल, नीम और साज आदि के वृक्ष रोपे गए। जगह-जगह आम, आँवला, जामुन और अमरूद जैसे फलदार वृक्ष भी लगाए गए। इस बगीचे में अच्छी खासी धनराशि के फल हर वर्ष बेचे जाते हैं।
वर्ष 2001 के आसपास इस क्षेत्र के करीब से बहने वाले बरसाती नाले के अन्तिम सिरे पर एक पक्का वेस्टवियर तैयार किया गया। करीब ही एक परकोलेशन टैंक का निर्माण किया गया जिससे पानी नीचे जमीन में रिसता है।
दूसरी योजना
कुल्हार से पठारी जाने वाली सड़क पर गाँव से तकरीबन दो किलोमीटर दूर 26 हेक्टेयर क्षेत्र को अतिक्रमण से मुक्त करवा कर उस पर बाँस, नीम, शीशम, सूबबूल और सागौन आदि के जंगल रोपे गए। यह काम सन 1984 में आरम्भ किया गया था।
सड़क के किनारे ही एक परकोलेशन टैंक बनाया गया जिससे पानी सतह में रिसता रह सके। इसके अलावा जल भण्डारण के लिये दो विशालकाय तालाब भी निर्मित किये गए। जानवरों के उस पानी तक पहुँचने और बाहर निकलने के लिये बकायदा रैंप का निर्माण भी किया गया।
तीसरी योजना
वर्ष 1995-96 में 26 हेक्टेयर वाली योजना के करीब ही एक रेशम इकाई की स्थापना की गई। यहाँ एक परकोलेशन टैंक और एक कुआँ तो स्थापित किया गया साथ ही स्थानीय लोगों के लाभ के लिये दो हटमेंट बनाए गए ताकि वहाँ रेशम के कीड़े पाले जा सकें। यह अलग बात है कि कुछ समय के बाद ही यह इकाई नष्ट हो गई।
कठिन डगर
जैसा कि आमतौर पर होता है, यथास्थितिवादियों ने शर्मा की कोशिशों को शुरू से ही खारिज करना शुरू कर दिया। खुद कुल्हार गाँव के लोगों को यकीन नहीं हो रहा था कि कोई व्यक्ति निस्वार्थ भाव से यूँ किसी के लिये काम कर सकता है। लेकिन एक बार जब उसके लाभ सामने आने लगे तो जन भावनाओं में भी तब्दीली आनी शुरू हो गई।
लोगों को जब तालाब के पानी, उसकी वजह से बेहतर होते जलस्तर और परती पड़ी सामुदायिक भूमि पर किये गए उत्पादक कार्यों की वजह से सामने आ रहे सुपरिणाम दिखाई देने लगे तो लोगों का नजरिया भी बदलना शुरू हो गया। शायद यही वजह थी कि वह एक दो नहीं बल्कि लगातार तीन कार्यकालों तक सरपंच बने रहे।
सुर्खियों में आया कुल्हार मॉडल
कुल्हार में हो रही गतिविधियाँ मध्य प्रदेश में और शायद देश में भी जल और पर्यावरण संरक्षण के मामले में किये जा रहे शुरुआती काम में से थीं। बहुमूल्य शासकीय भूमि का प्रयोग यहाँ सामुदायिक लाभ के लिये जिस तरह से किया जा रहा था उस पर सभी का ध्यान जा रहा था।
उस दौर में विदिशा जिले के कलेक्टर रहे दीपक खांडेकर, सुधा चौधरी और वसीम अख्तर ने शर्मा के इन प्रयासों का मौके पर जाकर मुआयना किया और वे इससे काफी प्रभावित भी हुए। उन्होंने प्रदेश सरकार से इस बात की संस्तुति भी की कि इस मॉडल को सस्टेनेबल डेवलपमेंट के मॉडल के रूप में प्रदेश के अन्य इलाकों में अपनाया जाये।
हालांकि विभिन्न वजहों से ऐसा नहीं हो सका। उल्लेखनीय है कि कुल्हार में सामुदायिक भूमि पर लगाए गए बाँस और फलदार वृक्षों से अब तक ग्राम पंचायत को लाखों रुपए की आमदनी हो चुकी है। अकेले वर्ष 2013 में बाँसों की बिक्री से ही यहाँ 3.50 लाख रुपए अर्जित किये गए।
ऐतिहासिक छलांग
कुल्हार में मौजूद तालाबों के निर्माण की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है। जून 2010 में जब बासोदा-बीना रेलखण्ड पर तीसरी लाइन डालने का काम चल रहा था तब गाँव के लोगों ने आपस में राय-मशविरा कर एलऐंडटी कम्पनी की सब कॉन्ट्रैक्टर रघु इन्फ्रा प्राइवेट लिमिटेड से सम्पर्क किया।
गाँव की ओर से रेल लाइन के अगल-बगल डालने के लिये निशुल्क मिट्टी देने की पेशकश की गई। शर्त केवल यह थी कि मिट्टी गाँव में चुनिन्दा स्थानों से निकालनी होगी। प्रशासनिक सहमति के बाद कम्पनी इस बात के लिये तैयार हो गई।
बस गाँव में तालाब के लिये चिन्हित किये गए स्थानों से बड़ी-बड़ी मशीनों के जरिए लाखों टन मिट्टी निकाली गई। कम्पनी को बिना एक पैसा खर्च किये बड़ी मात्रा में मिट्टी मिल गई तो वहीं गाँवों को मिल गए कुछ शानदार तालाब।
क्या रहीं चुनौतियाँ?
ऐसा नहीं है कि ये सारे कार्य एकदम सुगम तरीके से हो गए। बल्कि इस दौरान बहुत बड़ी लड़ाइयाँ मोल लेनी पड़ीं।
1. स्थानीय स्तर पर सामुदायिक भूमि को दबंगों के अतिक्रमण से मुक्त कराना आसान काम नहीं था।
2. गाँववासियों की ओर से शुरुआत में कोई खास सहयोग नहीं मिला। उन्हें लगता रहा कि ये काम निहित स्वार्थ के वशीभूत होकर किये जा रहे हैं।
3. नौकरशाही ने भी अपने स्वभाव के अनुरूप ही शुरुआत में शिथिल ढंग से काम किया।
4. बीच में कुछ सरपंच ऐसे भी आये जिनकी इस कार्य में कोई रुचि नहीं थी। नतीजतन 30 सालों की इस मेहनत पर पानी फिरता नजर आया।
5. प्रशासनिक देखभाल के अभाव में खोदे गए तालाबों को नुकसान भी पहुँचा। मीडिया के कुछ हलकों में नकारात्मक रिपोर्टिंग ने भी परेशानी खड़ी की।
6. उदाहरण के लिये तालाबों के लाभों का जिक्र करने के बजाय कुछ पत्रकारों ने अखबारों में लिखा कि इन तालाबों में गिरने से लोगों और मवेशियों की मौत हो सकती है या अन्य दुर्घटनाएँ भी हो सकती हैं।
क्या रहे लाभ?
1. सामुदायिक भूमि अतिक्रमण से मुक्त हुई।
2. गाँव के आसपास की उजाड़ और अतिक्रमित भूमि पर अब फलदार वृक्ष और बाँस के जंगल लहलहाने लगे।
3. इनसे होने वाली उपज से ग्राम पंचायत को अतिरिक्त आय होने लगी।
4. अब तक लाखों रुपए के फल एवं बाँस बेचे जा चुके हैं।
5. कुल्हार और उसके आसपास बने छह और अधिक निजी तथा सार्वजनिक तालाबों से 1000 बीघा से अधिक ज़मीन की सिंचाई की जा रही है। जिसका असर उत्पादन में बढ़ोत्तरी के रूप में देखने को मिला है।
बेहतर भविष्य की आहट
हालांकि वर्ष 2004 से 2009 के दौरान तत्कालीन पंचायत ने इस पूरे कार्य के प्रति जबरदस्त उदासीनता का परिचय दिया लेकिन गाँव की मौजूदा सरपंच रेखा राय और उनके पति प्रकाश राय इन स्थगित परिपाटियों को आगे ले जाने के लिये पूरी तरह कटिबद्ध नजर आये।
हमारे साथ इस पूरे क्षेत्र का दौरा करते हुए प्रकाश ने बताया कि कैसे वर्ष 2004 से अभी हाल तक यह क्षेत्र तकरीबन उपेक्षित पड़ा रहा। इस दौरान पूर्व में किये गए तमाम सामुदायिक कार्य अन्तिम तौर पर नष्ट होने के कगार पर पहुँच गए। लेकिन अब हालात बेहतर हैं।
वीरेंद्र मोहन शर्मा की सक्रियता, प्रकाश राय की दूरदृष्टि और सहयोगी स्वभाव तथा अन्य अनुकूल लोगों की मदद से नष्ट होने के कगार पर पहुँच चुके मॉडल को एक बार फिर कारगर ढंग से लागू करने की पृष्ठभूमि तैयार हो रही है।
गंज-बासोदा तहसील में बतौर कृषि विस्तार अधिकारी पदस्थ सुरेंद्र सिंह डांगी पूर्व सरपंच वीरेंद्र मोहन शर्मा के काम पर बहुत करीबी नजर रखते आये हैं। उनकी माँ भी कुल्हार ग्राम की सरपंच रह चुकी हैं। डांगी कहते हैं कि गाँव में बने सभी तालाब शर्मा के उत्साह और उनकी अथक मेहनत का परिणाम हैं। इसमें एक भी पैसा शासन का नहीं लगा है। यदि शासन इस योजना को अपनाता तो इसके दूरगामी लाभ समाज को मिल सकते थे।
मानसिकता में बदलाव जरूरी
केवल तालाबों का निर्माण ही पर्याप्त नहीं है बल्कि इसके सभी लाभ हासिल करने के लिये शासन और गाँव दोनों स्तरों पर मानसिकता में अनिवार्य बदलाव आवश्यक थे। वीरेंद्र मोहन शर्मा ने यह प्रस्ताव भी रखा था कि उक्त तालाबों का पानी अगर 100-200 रुपए प्रति बीघा की दर पर सिंचाई के लिये दिया जाये तो इससे न केवल किसानों को सिंचाई के लिये सस्ता पानी मिलेगा बल्कि ग्राम पंचायत की भी अच्छी खासी आय हो जाएगा। परन्तु पर्याप्त प्रशासनिक सहयोग के अभाव में यह काम नहीं हो सका। हाँ, गाँव के जो किसान सार्वजनिक पानी के लिये प्रति बीघे 100 रुपए भी खर्च करने को तैयार नहीं हुए वही किसान निजी स्तर पर इससे कहीं अधिक दर पर पानी खरीदते रहे।
अपनी तमाम खूबियों के बावजूद कुल्हार मॉडल स्थानीय स्तर पर सिमट कर रह गया है। जरूरत इस बात की है कि न केवल आसपास की ग्राम पंचायतें बल्कि शासन भी इस मॉडल को आधिकारिक रूप से व्यवहार में लाने में मदद करे। ऐसा करके प्रदेश में ग्राम स्वराज और आत्मनिर्भर गाँवों केे स्वप्न को सही मायनों में साकार किया जा सकता है।
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