दिल्ली

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नदी तट पर गहरा हो रहा था अंधकार
Posted on 01 Oct, 2013 04:03 PM नदी तट पर गहरा हो रहा था
अंधकार
और किनारे पर मैं
घिरती रही, घिरती रही।
डूबता रहा
मंद बहते जल का स्वर भी
उस अटूट मौन में

यकायक
मौत की चुप्पियाँ बेधते
आँसू-सरीखा
जीवन
निस्तब्ध वातावरण पर तिर आया।

1960

जीरो बजट-प्राकृतिक खेती
Posted on 01 Oct, 2013 01:03 PM

जीरो बजट का अर्थ है। चाहे कोई भी अन्य फसल हो या बागवानी की फसल हो। उसकी लागत का मूल्य जीरो होगा। मुख्य फसल का लागत मूल्य आंतरवर्तीय फ़सलों के या मिश्र फ़सलों के उत्पादन से निकाल लेना और मुख्य फसल बोनस रूप में लेना या आध्यात्मिक कृषि का जीरो बजट है। फ़सलों को बढ़ने के लिए और उपज लेने के लिए जिन-जिन संसाधनों की आवश्यकता होती है। वे सभी घर में ही उपलब्ध करना, किसी भी हालत में मंडी से या बाजार से ख

जीरो बजट खेती
गोमती से प्यार
Posted on 30 Sep, 2013 04:41 PM मुझको गोमती से प्यार।
चूमती मन-पुलिन उसकी दूधिया रस-धार।।
गोमती की कोख से पैदा हुआ,
साँवली माटी उसी की, रचा जिससे तन,
शिराओं में रक्त बनकर बह रहा
गोमती का नीर माँ के दूध-सा पावन,
मैं कहूँ कैसे कि वह केवल नदी है
एक ममता-मूर्ति मुझमें हो रही साकार।
मुझको गोमती से प्यार।।
हिंडोले-सी गोमती की मृदु लहर,
झूलते जिसमें गए दिन बीत बचपन के,
मेरी गंगा
Posted on 30 Sep, 2013 04:38 PM गंगा मेरे मन की सोना-घाटी में बहती है।

अपनी गंगा के उद्गम का उन्नत शिखर हिमालय मैं हूँ,
मैं ही उसका महादेव हूँ, कंचन-कलश शिवालय मैं हूँ,
मेरी प्रज्ञा के सागर में उसका सुंदर नील-निलय है-
मेरी भावसाधना में वह भागीरथी मगन रहती है।।

श्वासों में उसकी लय-धारा, प्राणों में उसका स्पंदन है,
रक्त-शिराओं में उसकी चंचल लहरों का आवर्तन है,
माँझी का पुल
Posted on 30 Sep, 2013 04:37 PM मेरे गाँव से दिखाई पड़ता है
माँझी का पुल

मैने पहली बार
स्कूल से लौटते हुए
उसकी लाल-लाल ऊँची मेहराबें देखी थीं
यह सर्दियों के शुरू के दिन थे
जब पूरब के आसमान में
सारसों के झुंड की तरह डैने पसारे हुए
धीरे-धीरे उड़ता है माँझी का पुल

वह कब बना था
कोई नहीं जानता
किसने बनाया था माँझी का पुल
यह सवाल मेरी बस्ती के लोगों को
मैंने गंगा को देखा
Posted on 30 Sep, 2013 04:36 PM मैंने गंगा को देखा
एक लंबे सफर के बाद
जब मेरी आँखें
कुछ भी देखने को तरस रही थीं
जब मेरे पास कोई काम नहीं था
मैने गंगा को देखा
प्रचंड लू के थपेड़ों के बाद
जब एक शाम
मुझे साहस और ताजगी की
बेहद जरूरत थी
मैंने गंगा को देखा एक रोहू मछली थी
डब-डब आँख में
जहाँ जीने की अपार तरलता थी
मैंने गंगा को देखा जहाँ एक बूढ़ा मल्लाह
बिना नाम की नदी
Posted on 30 Sep, 2013 04:34 PM मेरे गाँव को चीरती हुई
पहले आदमी से भी बहुत पहले से
चुपचाप बह रही है वह पतली-सी नदी
जिसका कोई नाम नहीं

तुमने कभी देखा है
कैसी लगती है बिना नाम की नदी?

कीचड़, सिवार और जलकुंभियों से भरी
वह इसी तरह बह रही है पिछले कई सौ सालों से
एक नाम की तलाश में
मेरे गाँव की नदी

कहीं कोई मरता है
लोग उठाते हैं
विस्थापन मतलब जिंदगी का उजड़ जाना
Posted on 30 Sep, 2013 01:29 PM मानव समाज आज उस मुकाम पर पहुंच चुका है, जहां दुनिया जाइरोस्कोप जैसी तेजी से बदल रही है। इसके बावजूद मनुष्य के स्वभाव में, उसकी सामाजिकता में इतना कम परिवर्तन हो सका है कि हम यह दावा नहीं कर सकते कि विज्ञान मनुष्य को अच्छा मनुष्य भी बनाता है। ‘भगवान सिंह’
भोजन, कुपोषण और परंपरागत खेती
Posted on 30 Sep, 2013 11:20 AM जो आदिवासी पिछले सालों में जंगलों से बाहर आ चुके थे उनमें लगातार स्
असंभव स्वप्न
Posted on 29 Sep, 2013 01:31 PM घाटी में बसे एक छोटे-से गाँव में
पहली बार जब मैं आया थाउमड़ती हुई पहाड़ी नदी के शोर ने
रात-रात भर मुझे जगाए रखा
मन हुआ था-
लुढ़कते पत्थरों के साथ बहता-बहता मैं
रेत बन अतीत में खो जाऊँ

फिर कुछ बरसों बाद
जब मैं वापस इधर आया-
जहाँ नदी थी
वहाँ सूखे बेढंगे, अनगढ़
ढेरों शिलाखंड बस बिखरे पड़े थे
अन्यमनस्क उनको लाँघते
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