Posted on 05 Oct, 2013 03:09 PMनदी बिलकुल शांत कभी नहीं हो पाती चाहकर भी कोई न कोई आवाज या सन्नाटा गूँजता हुआ-सा उसके तट पर उसके मझधार में किसी चट्टान से नीरव टकराते उसके जल में।
नदी बहती है धरातल पर सूखकर रेत के नीचे थमकर प्रतिपल जाती हुई अपने विलय की ओर फिर थी उच्छल धूप अँधेरे लू-लपट सुख की झूलती हुई डालों दुःख के खिसकते-ढहते ढूहों से हर सर्वनाम को लीलता हुआ
Posted on 05 Oct, 2013 03:07 PMशाम देर गए घर लौटना है काम से उसे, जंगल में पछिया गई चिड़िया को और सुनसान के गले में पड़ी हँसुली-सी ईब को। कौन लौटता है : वह या ईब या सिर्फ उसका घर सरककर पास आ जाता है।
Posted on 05 Oct, 2013 03:05 PMवहीं से लौटना होगा घर वहीं से फूटेगी ईब वहीं से होगा एक शुभारंभ। वहीं से कारीगर गारे से भरेगा दरारें वहीं से जलघास टटोलेगी अतल वहीं से वह करेगी स्वीकार।