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6500 करोड़ रुपए खर्च फिर भी यमुना मैली
Posted on 24 Feb, 2014 12:29 PM

संसद की एक समिति ने कहा- पहले से ज्यादा गंदी नजर आती है यमुना


रोशनी के लिए जतन
Posted on 23 Feb, 2014 04:02 PM आर्थिक महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर भारत के सवा सात करोड़ परिवार आज भी अपने घरों का अंधेरा भगाने के लिए मिट्टी के तेल पर निर्भर है। इस अंधेरी दुनिया को रोशनी देने के लिए शाश्वत ऊर्जा और वैकल्पिक स्रोतों से मदद ली जाए तो यह काम कठिन नहीं है। इस बारे में बता रहे हैं भारत डोगरा।
सामाजिक संगठन और प्रबंध
Posted on 22 Feb, 2014 10:57 AM खेतिहर समाज में पानी के प्रबंध का सारा काम ग्राम स्तर पर ही होता रहा है। इसमें तालाब आदि की योजना बनाना, उसके लिए धन और श्रम जुटाना और फिर उसका सतत रख-रखाव करना-इन तीनों स्तरों पर आज जिसे हम ‘जन भागीदारी’ कहते हैं -उसी का पूरा सहारा लिया जाता था। ग्राम सभा या पंचायत के स्तर पर खड़ा यह बुनियादी ढांचा अंग्रेजी राज के दौर से पूरी तरह नष्ट हो गया था। आजादी के बाद उसे कुछ हद तक वापस लाने का प्रयत्न जरूर हुआ पर मोटे तौर पर वह सरकारी पंचायतों के ढांचे में बदल गया था। कोई भी समाज शून्य में नहीं रह सकता। उसे अपने को व्यवस्थित ढंग से चलाने के ढांचे विकसित करने ही पड़ते हैं। इसमें भी यदि समाज का मुख्य आधार कृषि और पशुपालन है तो उस खेतिहर समाज को मिट्टी, पानी, गोबर तथा वनों के ठीक उपयोग का एक सशक्त ढांचा ढालना ही पड़ता है। इन्हीं संसाधनों पर खेतिहर, पशुपालक, समाज टिका रहता है। इसलिए इन ढांचों में कई तरह के और कई स्तर पर लागू हो सकने वाले नियम-कायदे बनाने पड़ते हैं। फिर इस बात का भी ध्यान रखना पड़ता है कि इन नियम-कायदों में न सिर्फ सबकी सहमति हो, सब उन्हें अपने ऊपर लागू करने में भी बिना किसी दबाव के सहर्ष स्वेच्छा से आगे आएं। तब समाज अपनी ठीक गति से, अपनी धुरी पर चलता है, आगे बढ़ता है तथा उत्पादन के साधनों का, प्राकृतिक साधनों का बेहतर उपयोग करते हुए अपना विकास करता है।

समाज को चलाने का यह ढांचा तभी व्यवस्थित हो पाता है जब समाज की नींव से लेकर शिखर तक सब स्तर उसमें शामिल हों। इनमें समय के अनुसार कुछ परिवर्तन जरूर आ सकते हैं, कुछ नीतियां यहां-वहां बदली जा सकती हैं पर उसकी मूलधारा वर्षों के साझे अनुभव से ही संचालित होती है।
water management
सभी राजनैतिक दलों को पानी की कार्यनीति बनाने की जरूरत - राजेन्द्र सिंह
Posted on 20 Feb, 2014 10:25 AM

2014 के लोक सभा चुनाव में सभी राजनैतिक दलों को पानी की कार्यनीति बनाने की जरूरत

टिहरी
Posted on 20 Feb, 2014 08:49 AM खोज रहे हैं आज हम
अनंत में गुम हुई
मानवता के अवशेष
हड़प्पा या मोहनजोदड़ो में
नहीं पहुंचे कहीं
भटकते ही रह गए
अनुमानों के बियाबान
मरुथल में
आधुनिक सभ्यता आकांक्षा
फिर लील गई
एक गौरवपूर्ण इतिहास को
जादुई भविष्य के लिए
ध्वंस हो गया है
स्वर्णिम अतीत टिहरी का
साथ ही विह्वल 'आज'
वो मार्ग और भवन भी
गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करने की मांग पर संघर्ष के लिए होगा समागम
Posted on 18 Feb, 2014 03:49 PM

गंगा को बचाने की मुहिम में तमाम धर्मों और विधाओं के लोगों ने मिल कर आवाज उठाने का फैसला किया है

पानी में घुलता जहर
Posted on 11 Feb, 2014 01:46 PM

हम जानते हैं कि जल का मुख्य स्रोत बारिश है, चाहें वह नदी हो या नहर या जमीन के नीचे मौजूद पानी का अथाह भंडार। सभी स्रोतों में जल की आपूर्ति बारिश ही करती है। बारिश के पानी को संचय करने के पारंपरिक ज्ञान को हम भुला बैठे थे और आज फिर उस ओर लौट रहे हैं। भारत में भारी बारिश लगभग 100 घंटों में हो जाती है, यानी साल के 8,760 घंटों में हमें सिर्फ 100 घंटों में बरसे पानी से ही काम चलाना है। आज औद्योगिकरण और गहन कृषि तथा शहरीकरण के चलते हमने नदियों और भूजल का अंधाधुंध दोहन किया है।

उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में जल प्रबंधन को लेकर दो मुख्य बदलाव आए हैं। पहला तो यह कि राज्य ने पानी उपलब्ध कराने की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली, जिससे कई विपरीत परिस्थितियां उत्पन्न हुई, जैसे समुदायों ने, परिवारों ने, जो पहले पानी के प्रबंधन और संरक्षण की पहली ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लेते थे, उन्होंने पानी को बचाने से अपना पल्ला ही झाड़ लिया।

दूसरा, मुख्य बदलाव यह आया कि पहले जैसे बारिश के पानी और बाढ़ के पानी का संचय कर उपयोग में लाया जाता था, उसके विपरीत सतही पानी (मुख्यतः नदियों) और भूजल पर हमारी निर्भरता बढ़ी।

यह बदलाव इसलिए आए क्योंकि उपनिवेशवाद के दिनों में अंग्रेजों ने पानी पर केंद्रीकृत अधिकार जमाया और उसे उद्योगों के विकास और मनचाही खेती के लिए उपयोग में लिया। आजादी के बाद की सरकारें भी इस नीति को ऐसे अपना कर चलाती रहीं।
बाढ़ का बेटा
Posted on 11 Feb, 2014 01:05 PM जब बाढ़ अपने ओज पर होती, वह बिसेसर को नाव पर बिठाकर चल पड़ते चौर की ओर! दिन में ही नहीं; अंधेरी रात को भी। ‘डरना मत बेटे, बाढ़ में देवी-देवता होते हैं, भूत-पिशाच नहीं।’ जब नाव बीच चौर में पहुँचती, बूढ़ा पतवार चलाना छोड़ देता, नाव को स्थिर कर देता और उसकी मांगी पर जाल लिए खड़ा होकर पानी की ओर एकटक घूरता! नाव धीरे-धीरे आप ही फिसल रही और बूढ़ा पानी की ओर इस तरह देख रहा होता, मानो अपनी नजर उसके भीतर तक घुसा देना चाहता हो! उस समय उसकी सूरत-लगता, नाव की मांगी पर तांबे की मूर्ति खड़ी है - निस्पंद निर्निमेष! ‘बाढ़ आ रही है,’ सुकिया ने कहा। बिसेसर ने जरा सिर उठाकर उसकी ओर देखा और फिर अपने जाल की मरम्मत में लगा रहा।

बाढ़ आ रही है - क्या बिसेसर यह नहीं जानता? आज चार दिनों से जो उमस-उमस रही, उत्तर ओर, हिमालय की तराई में जो लगातार बिजली चमकती रही, बादल गरजते रहे, वे क्या सूचना नहीं देते थे कि बाढ़ आएगी ही।

बाढ़ उसके लिए कोई नई चीज है?
बचपन से ही वह बाढ़ देखता आया है। देखता आया है, उससे खेलता आया है।

बीच चौर में है उसका यह गांव। चार महीने तक तो यह एक टापू ही बना रहता है और कहीं वर्षा से बाढ़ आती हो, यहां तो सूखे से भी बाढ़ आती रही है।

गांव सूखा, खेत सूखे, तालाब सूखे, नाले सूखे; कि एक दिन अचानक शोर मचा, बाढ़ आई, बाढ़ आई!
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