खेतिहर समाज में पानी के प्रबंध का सारा काम ग्राम स्तर पर ही होता रहा है। इसमें तालाब आदि की योजना बनाना, उसके लिए धन और श्रम जुटाना और फिर उसका सतत रख-रखाव करना-इन तीनों स्तरों पर आज जिसे हम ‘जन भागीदारी’ कहते हैं -उसी का पूरा सहारा लिया जाता था। ग्राम सभा या पंचायत के स्तर पर खड़ा यह बुनियादी ढांचा अंग्रेजी राज के दौर से पूरी तरह नष्ट हो गया था। आजादी के बाद उसे कुछ हद तक वापस लाने का प्रयत्न जरूर हुआ पर मोटे तौर पर वह सरकारी पंचायतों के ढांचे में बदल गया था। कोई भी समाज शून्य में नहीं रह सकता। उसे अपने को व्यवस्थित ढंग से चलाने के ढांचे विकसित करने ही पड़ते हैं। इसमें भी यदि समाज का मुख्य आधार कृषि और पशुपालन है तो उस खेतिहर समाज को मिट्टी, पानी, गोबर तथा वनों के ठीक उपयोग का एक सशक्त ढांचा ढालना ही पड़ता है। इन्हीं संसाधनों पर खेतिहर, पशुपालक, समाज टिका रहता है। इसलिए इन ढांचों में कई तरह के और कई स्तर पर लागू हो सकने वाले नियम-कायदे बनाने पड़ते हैं। फिर इस बात का भी ध्यान रखना पड़ता है कि इन नियम-कायदों में न सिर्फ सबकी सहमति हो, सब उन्हें अपने ऊपर लागू करने में भी बिना किसी दबाव के सहर्ष स्वेच्छा से आगे आएं। तब समाज अपनी ठीक गति से, अपनी धुरी पर चलता है, आगे बढ़ता है तथा उत्पादन के साधनों का, प्राकृतिक साधनों का बेहतर उपयोग करते हुए अपना विकास करता है।
समाज को चलाने का यह ढांचा तभी व्यवस्थित हो पाता है जब समाज की नींव से लेकर शिखर तक सब स्तर उसमें शामिल हों। इनमें समय के अनुसार कुछ परिवर्तन जरूर आ सकते हैं, कुछ नीतियां यहां-वहां बदली जा सकती हैं पर उसकी मूलधारा वर्षों के साझे अनुभव से ही संचालित होती है।
किसी भी खेतिहर समाज में ऐसे ढांचे की बुनियादी इकाई ग्राम स्तर पर ही बनती है। हमारे यहां यह ग्राम सभा या पंचायत के रूप में रही है। प्राकृतिक संसाधनों के संवर्धन, संरक्षण और सातत्य और समता के आधार पर उनका प्रबंध पंचायतों के जिम्मे रहा है। दुर्भाग्य से गुलामी के दौर में इनमें से अधिकांश ढांचे उपेक्षा और अंग्रेजी राज के नए नियमों के आने से टूटे भी थे। उन ढांचों को समझने के लिए हमें अपने-अपने क्षेत्रों में पुरानी व्यवस्थाओं के बारे में बातचीत के जरिए फिर से मेहनत करनी चाहिए।
खेतिहर समाज में पानी के प्रबंध का सारा काम ग्राम स्तर पर ही होता रहा है। इसमें तालाब आदि की योजना बनाना, उसके लिए धन और श्रम जुटाना और फिर उसका सतत रख-रखाव करना-इन तीनों स्तरों पर आज जिसे हम ‘जन भागीदारी’ कहते हैं -उसी का पूरा सहारा लिया जाता था। ग्राम सभा या पंचायत के स्तर पर खड़ा यह बुनियादी ढांचा अंग्रेजी राज के दौर से पूरी तरह नष्ट हो गया था। आजादी के बाद उसे कुछ हद तक वापस लाने का प्रयत्न जरूर हुआ पर मोटे तौर पर वह सरकारी पंचायतों के ढांचे में बदल गया था। आज फिर से शासन ने पंचायतों की भूमिका का महत्व समझा है। इंटर कोआपरेशन अपनी अन्य सहयोगी संस्थाओं के साथ इन ढांचे के माध्यम से ग्राम स्तर पर ग्राम विकास की नई जिम्मेदारी के अवसर बढ़ाने में प्रयासरत हैं।
समाज के शोषण की प्रवृत्ति रहती है तो उस पर नियंत्रण करने की सजगता भी रहती है। यह व्यवस्था न हो तो समाज का बलवान अंग कमजोर पक्ष को दबाकर ही रखेगा। पानी और भूमि के प्रबंध में चकों की व्यवस्था इसी सजगता और समता आधारित न्याय के प्रति सम्मान के कारण बनी थी। दुर्भाग्य से आजादी के बाद हमारी अपनी चुनी हुई लोकप्रिय सरकारों ने, किसान नेताओं ने, प्रशासकों ने और नीति निर्धारकों ने इसे ठीक से समझा नहीं और चकबंदी का व्यापक अभियान चलाकर इसे तोड़ दिया।
एक ही किसान के दो-तीन जगह बंटे खेत जल के उचित प्रबंध के कारण रखे जाते थे। गांव में सार्वजनिक तालाब से सिंचित कमांड क्षेत्र में लगभग पूरे गांव के, हर परिवार के छोटे-छोटे खेत होते थे। इन्हें राजस्थान में ‘बिगोड़ी’ कहा जाता था। यह नामकरण बीघा के नाप से आया था। इसमें बड़े किसानों का भी छोटा सा ही टुकड़ा रखा जाता था। फिर इसके आगे के क्षेत्र में अपेक्षाकृत थोड़े बड़े खेत होते थे। इनकी सिंचाई अपने निजी कुओं से होती थी। फिर अंत में खेतों में से सबसे बड़े टुकड़े होते थे और ये असिंचित होते थे।
बिगोड़ी यानी सभी के कुछ बीघा बराबर छोटे-छोटे खेत सामाजिक न्याय के साथ-साथ अन्न सुरक्षा की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण थे। तालाब की सिंचाई से हरेक परिवार को अपने छोटे खेतों से कुछ न कुछ अनाज पक्के तौर पर मिल जाता था। अकाल की स्थिति में भी इनमें कुछ फसल तो हो ही जाती थी।
तालाब से सिंचित खेतों की सिंचाई के लिए भी हमारे ग्राम समाज ने पुख्ता प्रबंध दिए थे। दक्षिण भारत में एरी नामक तालाबों से किस खेत को कब और कितना पानी देना है इसकी व्यवस्था ‘नीरघंटी’ नामक पद के पास सुरक्षित रखी जाती थी। यह पद गांव के भूमिहीन परिवार के सदस्य को सर्वसम्मति से दिया था। उसका निर्णय अंतिम होता था। नीरघंटी बड़े से बड़े किसान के खेत में कितना पानी दिया जाना है- इसका फैसला करता था।
इन सेवाओं के बदले उसे सभी किसानों से फसल का एक निश्चित भाग वेतन की तरह अदा किया जाता था। एक निश्चित भाग वेतन की तरह अदा किया जाता था। लेकिन चकबंदी के कारण दो तीन जगह बंटी यह जमीन, एक जगह कर दी गई और एक बार फिर ग्राम समाज में बलशाली के पास सबसे अच्छी जमीन आ गई। कमजोर और छोटे किसान चकबंदी में सिंचित भूमि से बाहर फेंक दिए गए। नीरघंटी आदि का भी व्यवस्थित ढांचा पूरी तरह टूट गया।
कुंई के संदर्भ में भी देखें तो निजी और सार्वजनिक स्वामित्व के बीच परंपरागत समाज ने अच्छी समतामूलक व्यवस्था बनाई थी। कुंई हरेक परिवार की निजी संपत्ति मानी जाती है पर वह जिस जगह बनती है, वह ग्राम समाज की सार्वजनिक भूमि होती है। उस क्षेत्र में जिप्सम की पट्टी के कारण जो नमी संचित होती है वह सार्वजनिक होती है। इसलिए यदि किसी परिवार को एक नई कुंई और खोदनी हो तो उसे इस काम के लिए बाकायदा ग्राम सभा से इजाजत लेनी पड़ती थी।
इस व्यवस्था की तुलना आज के ट्यूबवेल से करके देखें। अब जब जो चाहे हर कहीं ट्यूबवेल लगा लेता है- भूजल को सार्वजनिक नहीं माना जाता इसलिए इस अव्यवस्था, अराजकता के कारण आज देश के अधिकांश जिलों में भूजल चिंताजनक स्थिति में नीचे उतर चुका है।
लेकिन जैसा कि हमने इस अध्याय के प्रारंभ में देखा है, कोई भी समाज शून्य में नहीं जी सकता। कोई न कोई व्यवस्था तो उसे संचालित करने के लिए बनानी ही होती है। इन नए दौर में भी महाराष्ट्र के पुणे जिले में ग्राम गौरव प्रतिष्ठान नामक एवं संस्था ने तालाब से सिंचित जमीन में ‘पानी पंचायत’ नामक एक नई व्यवस्था प्रयोग के तौर पर लागू की है। इसमें पानी केवल भूमिवान को ही नहीं, भूमिहीन को भी दिया है। इस तरह भूमिहीन अपने हिस्से के पानी को अन्य भूमिवानों में बांटकर उसकी एवज में फसल का एक निश्चित भाग प्राप्त कर सकता है।
राजस्थान के अलवर जिले में तरुण भारत संघ द्वारा बनाए गए सैकड़ों बांधों और तालाबों से जब एक सूखी पड़ी नदी जीवित हो उठी तो उसके किनारे के गाँवों में नए आए इस पानी के उचित और न्यायपूर्ण बंटवारे का प्रश्न भी उठा। साधन संपन्न किसान सीधे नदी में से पंप लगाकर सिंचाई का पानी खेतों तक ले जाने लगे थे। ऐसी अराजकता में पुनर्जीवित नदी को फिर से सूख जाने में कितने दिन लगते? तब अरवरी नदी के दोनों किनारों पर बसे गाँवों ने आपस में बैठकर इसके पानी के उपयोग की व्यवस्था के बारे में बातचीत की।
हर गांव से चुने गए दो सदस्यों को लेकर ‘अरवरी संसद’ नामक एक नया संगठन बनाया। यह संसद वर्ष में चार बार अपनी बैठक करती है और नदी के पानी की मात्रा, उसके उचित उपयोग, बँटवारे और उससे कौन सी फसल लेना है, कौन सी नहीं लेना है - आदि प्रश्नों के निर्णय सामूहिक तौर पर लेती है।
हमें अपने क्षेत्रों में सहयोग और समता की भावना बढ़ाने और शोषण की प्रवृत्ति को रोकने वाली ऐसी सभी पुरानी परंपरागत पद्धतियों के बारे में और अधिक जानकारी एकत्र करनी चाहिए। राजस्थान में वनवासी समाज में अड़सी-पड़सी प्रथा और लास खेलने की परंपरा बहुत व्यापक पैमाने पर रही है। यह अभी भी पूरी नष्ट नहीं हुई है। हमारे अपने कामों मे इनका फिर से उपयोग बढ़ाने का प्रयत्न किया जाना चाहिए। इधर शासन ने भी फिर से पंचायत के स्तर पर काम प्रारंभ किया है। ऐसे नए वातावरण में हम सबको फिर से अपने ग्राम आधारित संगठनों को मजबूत करना चाहिए।
समाज को चलाने का यह ढांचा तभी व्यवस्थित हो पाता है जब समाज की नींव से लेकर शिखर तक सब स्तर उसमें शामिल हों। इनमें समय के अनुसार कुछ परिवर्तन जरूर आ सकते हैं, कुछ नीतियां यहां-वहां बदली जा सकती हैं पर उसकी मूलधारा वर्षों के साझे अनुभव से ही संचालित होती है।
बुनियादी इकाई
किसी भी खेतिहर समाज में ऐसे ढांचे की बुनियादी इकाई ग्राम स्तर पर ही बनती है। हमारे यहां यह ग्राम सभा या पंचायत के रूप में रही है। प्राकृतिक संसाधनों के संवर्धन, संरक्षण और सातत्य और समता के आधार पर उनका प्रबंध पंचायतों के जिम्मे रहा है। दुर्भाग्य से गुलामी के दौर में इनमें से अधिकांश ढांचे उपेक्षा और अंग्रेजी राज के नए नियमों के आने से टूटे भी थे। उन ढांचों को समझने के लिए हमें अपने-अपने क्षेत्रों में पुरानी व्यवस्थाओं के बारे में बातचीत के जरिए फिर से मेहनत करनी चाहिए।
खेतिहर समाज में पानी के प्रबंध का सारा काम ग्राम स्तर पर ही होता रहा है। इसमें तालाब आदि की योजना बनाना, उसके लिए धन और श्रम जुटाना और फिर उसका सतत रख-रखाव करना-इन तीनों स्तरों पर आज जिसे हम ‘जन भागीदारी’ कहते हैं -उसी का पूरा सहारा लिया जाता था। ग्राम सभा या पंचायत के स्तर पर खड़ा यह बुनियादी ढांचा अंग्रेजी राज के दौर से पूरी तरह नष्ट हो गया था। आजादी के बाद उसे कुछ हद तक वापस लाने का प्रयत्न जरूर हुआ पर मोटे तौर पर वह सरकारी पंचायतों के ढांचे में बदल गया था। आज फिर से शासन ने पंचायतों की भूमिका का महत्व समझा है। इंटर कोआपरेशन अपनी अन्य सहयोगी संस्थाओं के साथ इन ढांचे के माध्यम से ग्राम स्तर पर ग्राम विकास की नई जिम्मेदारी के अवसर बढ़ाने में प्रयासरत हैं।
समाज के शोषण की प्रवृत्ति रहती है तो उस पर नियंत्रण करने की सजगता भी रहती है। यह व्यवस्था न हो तो समाज का बलवान अंग कमजोर पक्ष को दबाकर ही रखेगा। पानी और भूमि के प्रबंध में चकों की व्यवस्था इसी सजगता और समता आधारित न्याय के प्रति सम्मान के कारण बनी थी। दुर्भाग्य से आजादी के बाद हमारी अपनी चुनी हुई लोकप्रिय सरकारों ने, किसान नेताओं ने, प्रशासकों ने और नीति निर्धारकों ने इसे ठीक से समझा नहीं और चकबंदी का व्यापक अभियान चलाकर इसे तोड़ दिया।
एक ही किसान के दो-तीन जगह बंटे खेत जल के उचित प्रबंध के कारण रखे जाते थे। गांव में सार्वजनिक तालाब से सिंचित कमांड क्षेत्र में लगभग पूरे गांव के, हर परिवार के छोटे-छोटे खेत होते थे। इन्हें राजस्थान में ‘बिगोड़ी’ कहा जाता था। यह नामकरण बीघा के नाप से आया था। इसमें बड़े किसानों का भी छोटा सा ही टुकड़ा रखा जाता था। फिर इसके आगे के क्षेत्र में अपेक्षाकृत थोड़े बड़े खेत होते थे। इनकी सिंचाई अपने निजी कुओं से होती थी। फिर अंत में खेतों में से सबसे बड़े टुकड़े होते थे और ये असिंचित होते थे।
अन्न सुरक्षा
बिगोड़ी यानी सभी के कुछ बीघा बराबर छोटे-छोटे खेत सामाजिक न्याय के साथ-साथ अन्न सुरक्षा की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण थे। तालाब की सिंचाई से हरेक परिवार को अपने छोटे खेतों से कुछ न कुछ अनाज पक्के तौर पर मिल जाता था। अकाल की स्थिति में भी इनमें कुछ फसल तो हो ही जाती थी।
तालाब से सिंचित खेतों की सिंचाई के लिए भी हमारे ग्राम समाज ने पुख्ता प्रबंध दिए थे। दक्षिण भारत में एरी नामक तालाबों से किस खेत को कब और कितना पानी देना है इसकी व्यवस्था ‘नीरघंटी’ नामक पद के पास सुरक्षित रखी जाती थी। यह पद गांव के भूमिहीन परिवार के सदस्य को सर्वसम्मति से दिया था। उसका निर्णय अंतिम होता था। नीरघंटी बड़े से बड़े किसान के खेत में कितना पानी दिया जाना है- इसका फैसला करता था।
इन सेवाओं के बदले उसे सभी किसानों से फसल का एक निश्चित भाग वेतन की तरह अदा किया जाता था। एक निश्चित भाग वेतन की तरह अदा किया जाता था। लेकिन चकबंदी के कारण दो तीन जगह बंटी यह जमीन, एक जगह कर दी गई और एक बार फिर ग्राम समाज में बलशाली के पास सबसे अच्छी जमीन आ गई। कमजोर और छोटे किसान चकबंदी में सिंचित भूमि से बाहर फेंक दिए गए। नीरघंटी आदि का भी व्यवस्थित ढांचा पूरी तरह टूट गया।
कुंई: समतातूलक व्यवस्था
कुंई के संदर्भ में भी देखें तो निजी और सार्वजनिक स्वामित्व के बीच परंपरागत समाज ने अच्छी समतामूलक व्यवस्था बनाई थी। कुंई हरेक परिवार की निजी संपत्ति मानी जाती है पर वह जिस जगह बनती है, वह ग्राम समाज की सार्वजनिक भूमि होती है। उस क्षेत्र में जिप्सम की पट्टी के कारण जो नमी संचित होती है वह सार्वजनिक होती है। इसलिए यदि किसी परिवार को एक नई कुंई और खोदनी हो तो उसे इस काम के लिए बाकायदा ग्राम सभा से इजाजत लेनी पड़ती थी।
इस व्यवस्था की तुलना आज के ट्यूबवेल से करके देखें। अब जब जो चाहे हर कहीं ट्यूबवेल लगा लेता है- भूजल को सार्वजनिक नहीं माना जाता इसलिए इस अव्यवस्था, अराजकता के कारण आज देश के अधिकांश जिलों में भूजल चिंताजनक स्थिति में नीचे उतर चुका है।
पानी पंचायत
लेकिन जैसा कि हमने इस अध्याय के प्रारंभ में देखा है, कोई भी समाज शून्य में नहीं जी सकता। कोई न कोई व्यवस्था तो उसे संचालित करने के लिए बनानी ही होती है। इन नए दौर में भी महाराष्ट्र के पुणे जिले में ग्राम गौरव प्रतिष्ठान नामक एवं संस्था ने तालाब से सिंचित जमीन में ‘पानी पंचायत’ नामक एक नई व्यवस्था प्रयोग के तौर पर लागू की है। इसमें पानी केवल भूमिवान को ही नहीं, भूमिहीन को भी दिया है। इस तरह भूमिहीन अपने हिस्से के पानी को अन्य भूमिवानों में बांटकर उसकी एवज में फसल का एक निश्चित भाग प्राप्त कर सकता है।
अरवरी संसद
राजस्थान के अलवर जिले में तरुण भारत संघ द्वारा बनाए गए सैकड़ों बांधों और तालाबों से जब एक सूखी पड़ी नदी जीवित हो उठी तो उसके किनारे के गाँवों में नए आए इस पानी के उचित और न्यायपूर्ण बंटवारे का प्रश्न भी उठा। साधन संपन्न किसान सीधे नदी में से पंप लगाकर सिंचाई का पानी खेतों तक ले जाने लगे थे। ऐसी अराजकता में पुनर्जीवित नदी को फिर से सूख जाने में कितने दिन लगते? तब अरवरी नदी के दोनों किनारों पर बसे गाँवों ने आपस में बैठकर इसके पानी के उपयोग की व्यवस्था के बारे में बातचीत की।
हर गांव से चुने गए दो सदस्यों को लेकर ‘अरवरी संसद’ नामक एक नया संगठन बनाया। यह संसद वर्ष में चार बार अपनी बैठक करती है और नदी के पानी की मात्रा, उसके उचित उपयोग, बँटवारे और उससे कौन सी फसल लेना है, कौन सी नहीं लेना है - आदि प्रश्नों के निर्णय सामूहिक तौर पर लेती है।
हमें अपने क्षेत्रों में सहयोग और समता की भावना बढ़ाने और शोषण की प्रवृत्ति को रोकने वाली ऐसी सभी पुरानी परंपरागत पद्धतियों के बारे में और अधिक जानकारी एकत्र करनी चाहिए। राजस्थान में वनवासी समाज में अड़सी-पड़सी प्रथा और लास खेलने की परंपरा बहुत व्यापक पैमाने पर रही है। यह अभी भी पूरी नष्ट नहीं हुई है। हमारे अपने कामों मे इनका फिर से उपयोग बढ़ाने का प्रयत्न किया जाना चाहिए। इधर शासन ने भी फिर से पंचायत के स्तर पर काम प्रारंभ किया है। ऐसे नए वातावरण में हम सबको फिर से अपने ग्राम आधारित संगठनों को मजबूत करना चाहिए।
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