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रंग बरसे
Posted on 30 Dec, 2010 09:50 AM
बदरंग सर्दी विदा लेने को है और होली के रंग आँखों में तैरने लगे हैं। मौसम बदल तो रहा है पर संसार के हर कोने में शायद रंगभरी होली नहीं खेली जा सके। सिर्फ रंग लगा लेने या रंग में नहा लेने से ही तो होली नहीं हो जाती, रंगों की विविधता वाले इस पर्व को जीवन के अनेक रंगों में शामिल किया जा सकता है।
प्राकृतिक रंगों की खोज घर - बाहर
Posted on 30 Dec, 2010 09:43 AM

होली के सूखे रंगों को गुलाल कहा जाता है। मूल रूप से यह रंग फूलों और अन्य प्राकृतिक पदार्थों से बनता है जिनमें रंगने की प्रवृत्ति होती है। समय के साथ इसमें बदलाव आया और होली के ये रंग अब रसायन भी होते हैं और कुछ तेज़ रासायनिक पदार्थों से तैयार किए जाते हैं। ये रासायनिक रंग हमारे शरीर के लिए हानिकारक होते हैं, विशेषतौर पर आँखों और त्वचा के लिए। इन्हीं सब समस्याओं ने फिर से हमें प्राकृतिक रंगों की

बिन पानी सब सून
Posted on 30 Dec, 2010 09:23 AM
तेज़ रफ़्तार ज़िंदगी, ढेरों ज़िम्मेदारियां और व्यस्तता का आलम फिर भी कोमल त्वचा, फुर्तीला बदन और शांत मन किसे पसंद नहीं? तो क्यों न इसके लिए कुछ करें। बिलकुल आसान उपाय और ढेरों फ़ायदे— खूब पानी पिएं, एक ही हफ़्ते बाद इसका जादू आपको साफ़ दिखाई देने लगेगा। न केवल त्वचा का सौंदर्य बल्कि स्वास्थ्य भी निश्चित रूप से बेहतर होगा।
अम्लीकरण को करना है समाप्त, तो समुद्री शैवाल का करें विकास
Posted on 27 Dec, 2010 01:24 PM

समुद्र में अम्लीकरण बढ़ता जा रहा है, जो कि पर्यावरण के साथ-साथ मनुष्यों के लिए भी हानिकारक है। इसे रोका जाना बहुत जरूरी है। इसी मुद्दे पर यूनिवर्सिटी ऑफ एम्सटर्डम के शोधकर्ताओं ने एक नया शोध प्रस्तुत किया है। नए शोध में शोधकर्ताओं ने समुद्र में बढ़ते अम्लीकरण को रोकने के लिए शैवाल को महत्वपूर्ण माना है। प्रमुख शोधकर्ता रोनाल्ड ओसिंगा ने बताया कि यदि समुद्र में शैवाल का विकास होगा, तो अम्लकरण घट

हिंसक खेती से अशान्त होती धरती
Posted on 25 Dec, 2010 01:02 PM दूसरे विश्वयुद्ध के पश्चात युद्धक सामग्रियों का प्रयोग कृषि कार्य में लेने से कृषि का स्वरूप भी हिंसक हो गया है। हमारे यहां तो अनादिकाल से माना जाता रहा है कि जैसा अन्न खाएंगे वैसा ही मन बनेगा। प्रस्तुत आलेख इसी मान्यता का विस्तार है और यह मानव जीवन की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि ‘कृषि’ की वर्तमान स्थिति पर तीखी टिप्पणी करते हुए यह सोचने पर मजबूर कर रहा है कि किस प्रकार हम पुनः जैविक खेती की ओर लौटे और
भारतीय गायों के अस्तित्व का प्रश्न
Posted on 25 Dec, 2010 12:55 PM अधिक दूध की मांग के आगे नतमस्तक होते हुए भारतीय पशु वैज्ञानिकों ने बजाए भारतीय गायों के संवर्धन के विदेशी गायों व नस्लों को आयात कर एक आसान रास्ता अपना लिया। परंतु इसके दीर्धकालिक प्रभाव बहुत ही हानिकारक हो सकते हैं। आज ब्राजील भारतीय नस्ल की गायों का सबसे बड़ा निर्यातक बन गया है। क्या यह हमारे लिए शर्म का विषय नहीं है? का. सं.
सूचना का अधिकार कानूनः धुंधली होती पारदर्शिता
Posted on 25 Dec, 2010 12:45 PM सूचना का अधिकार अधिनियम को कमजोर करने के सरकारी प्रयास पूरे जोर-शोर से जारी हैं। आजादी के बाद पहली बार एक ऐसा कानून प्रचलन में आया है, जिसमें आम जनता को सवाल पूछने का अधिकार मिला था। परंतु सरकारों और अधिकारियों को आम जनता को जवाब देना नागवार गुजर रहा है इसलिए वे इस कानून में परिवर्तन कर इसकी आत्मा को ही नष्ट कर देना चाहते हैं। का. सं.
बढ़ता जल प्रदूषण और ग्राम्य जीवन
Posted on 20 Dec, 2010 10:21 AM

जल जीवन की आधारभूत आवश्यकता है । भोजन के अभाव में मानव कुछ सप्ताह जीवित रह सकता है लेकिन जल के अभाव में शायद एक सप्ताह भी जिंदा नहीं रह सकता । मानव शरीर में जल के अस्तित्व का महत्त्वपूर्ण स्थान है, हमारे सौर मण्डल में पृथ्वी ही एक मात्र ऐसा ग्रह है, जिसमें जीवन हर रंग और रूप में मौजूद हैं । पेयजल पर जीवन की निर्भरता के लिए यदि कहा जाए कि जल ही जीवन है तो असंगत नहीं होगा । जल की आवश्यकता केवल मन

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