सूचना का अधिकार कानूनः धुंधली होती पारदर्शिता

सूचना का अधिकार अधिनियम को कमजोर करने के सरकारी प्रयास पूरे जोर-शोर से जारी हैं। आजादी के बाद पहली बार एक ऐसा कानून प्रचलन में आया है, जिसमें आम जनता को सवाल पूछने का अधिकार मिला था। परंतु सरकारों और अधिकारियों को आम जनता को जवाब देना नागवार गुजर रहा है इसलिए वे इस कानून में परिवर्तन कर इसकी आत्मा को ही नष्ट कर देना चाहते हैं। का. सं.

जिस तरह से अभी तक सूचना के अधिकार की स्थिति रही है, उससे यह भी सामने आ रहा है कि जमीनी स्तर पर लोगों में जागरूकता का अभाव है और सरकार को जागरूकता बढ़ाने के लिये जो कदम उठाने थे, वो उसने नहीं उठाये हैं। इस वजह से जमीनी स्तर तक लोगों के पास जानकारियां ही नहीं पहुंची हैं। इसके बावजूद जमीनी स्तर पर काम कर रही संस्थाओं या व्यक्तियों के कारण यदि कहीं जागरूकता आई है तो भ्रष्ट अधिकारियों की मिलीभगत उन्हें अपने मंसूबे में सफल नहीं होने देना चाहती है। दूसरी ओर सूचना के अधिकार पर काम कर रहे 13 व्यक्तियों को अब तक मौत के घाट उतारा जा चुका है। जानकारी के अभाव में कानून में प्रस्तावित नए संशोधनों को लेकर भी कोई विरोध नहीं हो रहा है। इस तरह सरकार जनसामान्य के हाथ से सूचना का अधिकार छीनने की तैयारी कर रही है।

हाल ही में केन्द्रीय कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग ने यह प्रस्ताव दिया है कि अब आवेदक को सूचना के अधिकार के अंतर्गत अपना आवेदन 250 शब्दों में ही बनाना होगा। यानी सूचना का अधिकार कानून के तहत् आवेदन पर अब शब्दों का पहरा हो सकता है। शब्दसीमा बढ़ने पर आपका आवेदन नामंजूर किया जा सकता है। केवल यही नहीं बल्कि वांछित सूचना का आवेदन एक ही विषय से संबंधित होना चाहिये। अन्यथा आपका आवेदन अमान्य कर दिया जायेगा। एक अन्य विशेष प्रस्ताव विभाग ने दिया है कि यदि किसी व्यक्ति को वांछित सूचना दिये जाने के लिये सरकार को किसी मशीन या उपकरण आदि की व्यवस्था करनी पड़ी तो फिर उसका व्यय आवेदक को वहन करना पडे़गा। उदाहरणार्थ यदि आपने किसी विभाग से 3000 पृष्ठों के दस्तावेज की प्रति चाही है और विभाग को उसके लिये किसी फोटोकॉपी मशीन की व्यवस्था करनी पड़ी तो फिर विभाग आवेदक से उसका शुल्क भी वसूल सकता है।

उपरोक्त समस्त सुझाव कार्मिक विभाग ने जनसामान्य के समक्ष रखे हैं और इन पर उनकी राय मांगी है। सुझाव के संबंध में तो यह प्रक्रिया बहुत ही लुभावनी लगती है कि यदि जनसामान्य इन सुझावों को नकार देगा तो यह सुझाव मान्य ही नहीं किये जायेंगे। लेकिन यह तो तब संभव होगा जबकि जनसामान्य इस पर अपनी आपत्ति दर्ज कराएगा और जनसामान्य अपनी आपत्ति इसलिये दर्ज नहीं करा पाएगा क्योंकि ये सुझाव इंटरनेट पर मांगे गये हैं। हम सभी जानते हैं कि हमारे देश में कितने प्रतिशत आम आदमी इंटरनेट उपभोक्ता है? इसके मायने साफ हैं कि बहुत कम टिप्पणियां आएंगी तथा उसे जनसामान्य की आवाज बनाकर प्रस्तुत किया जाएगा और सरकार का खेल कामयाब हो जाएगा।

सूचना के अधिकार आंदोलन को गति देने वाले मैग्ससे पुरस्कार प्राप्त अरविंद केजरीवाल का इस मसले पर कहना है कि इस पूरी कवायद से सरकार का दोमुंहा चरित्र उजागर होता है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तो सरकार अपनी पारदर्शी छवि दिखाने की जुगत में लगी है जबकि दूसरी ओर सरकार पिछले दरवाजे से इस असरकारी कानून में सेंध लगाने की तैयारी कर रही है। वे कहते हैं कि आज सूचना आयोगों की भूमिका संदेहास्पद है क्योंकि सूचना आयोग भी इक्का दुक्का अफसरों पर ही दंड की कार्यवाही कर रहे हैं। दरअसल आयोगों में आयुक्तों की नियुक्तियां राजनैतिक ही होती हैं और जब नियुक्ति ही आकाओं ने की हों तो आकाओं को नाराज करने की जहमत कम लोग ही उठाते हैं। इसका दूसरा कारण यह भी है कि इन पदों पर अधिकांश सेवानिवृत्त प्रशासनिक अधिकारी ही बैठते हैं। इसलिए भी यह कानून अपने असली रंग में नहीं दिखता है।

मध्यप्रदेश में भी सरकार ने कुछ दिनों पहले सूचना के अधिकार अंतर्गत् फीस के नियमों में संशोधन (मध्यप्रदेश फीस एवं अपील नियम -2005) करते हुये यह तय किया है कि अब गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करने वाले परिवारों को केवल 50 पृष्ठों तक ही निःशुल्क सूचना मिल पायेगी। इससे ज्यादा सूचना केवल उस स्थिति में ही निःशुल्क दी जा सकती है जबकि उस सूचना के लिये उस आवेदक को यह सिद्ध करना होगा कि यह सूचना उससे संबंधित है। सवाल यह है कि अब यह कौन तय करेगा कि यह सूचना आवेदक से संबंधित है या नहीं? इसके अलावा प्रदेश सरकार प्रथम अपील और द्वितीय अपील के लिये भी शुल्क वसूलती है जबकि कानून के अनुसार तो यह कार्य निःशुल्क होना चाहिये।

सूचना का अधिकार कानून अपने प्रभावी रूप में आ ही नहीं पाया था कि प्रशासनिक कुमंशाओं ने इस पर अपनी जुगलबंदी शुरू कर दी है। देश भर में लगातार सूचना के अधिकार के पर कतरने की कोशिशें की जा रही हैं जिससे यह कारगर कानून भी बौना साबित हो रहा है। दरअसल तंत्र, सत्ता को पारदर्शी रखना ही नहीं चाहता है क्योंकि सत्ता के पारदर्शी होने से उनका वजूद भी खतरे में ही रहता है। अधिकारीगण आज भी सूचनाओं पर कुण्डली मारे बैठे हैं और सूचना आयोग चुपचाप बैठा देख रहा है।

लोकतंत्र पर जब भी आम आदमी अपना विश्वास जमाने की कोशिश ही करता है तभी इसके दरकने की भी कवायद शुरु हो जाती है। यह रेल से दिखने वाले तार की तरह ही है जिसमें जैसे ही लगता है कि तार नीचे आ रहा है, तभी एक खंभा आकर आपके विश्वास को तोड़ जाता है। कमोबेश यही हाल इस समय सूचना के अधिकार का है। यह पारदर्शिता में सेंध लगाने की सरकारी साजिश है, जिससे सूचनायें छिपी रहें और जनता हलाकान होती रहे। (सप्रेस)

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