बढ़ता जल प्रदूषण और ग्राम्य जीवन

जल जीवन की आधारभूत आवश्यकता है । भोजन के अभाव में मानव कुछ सप्ताह जीवित रह सकता है लेकिन जल के अभाव में शायद एक सप्ताह भी जिंदा नहीं रह सकता । मानव शरीर में जल के अस्तित्व का महत्त्वपूर्ण स्थान है, हमारे सौर मण्डल में पृथ्वी ही एक मात्र ऐसा ग्रह है, जिसमें जीवन हर रंग और रूप में मौजूद हैं । पेयजल पर जीवन की निर्भरता के लिए यदि कहा जाए कि जल ही जीवन है तो असंगत नहीं होगा । जल की आवश्यकता केवल मनुष्य के लिए ही नहीं बल्कि उन सबको भी है, जिनमें प्राण हैं । चाहे वह पशु-पक्षी हों या फिर पेड-पौधे । पुरातन समय से ही जल की महत्ता को मानव ने जाना और समझा है । ऋग्वेद की रचनाओं में जल की स्तुति की गई है । इतिहास गवाह है कि विश्व के सभी देश विभिन्न नदियों एवं घाटियों की गोद में फले-फूले और विकसित हुए हैं । आज उद्योग, कृषि तथा अन्य विभिन्न क्षेत्रों में जल की मांग निरंतर बढ़ती जा रही है । पेयजल और स्वच्छता का चोली-दामन का साथ है । जल न केवल-जीवन की मूलभूत आवश्यकता है बल्कि वह सभी के लिए स्वास्थ्य सम्बन्धी लक्ष्य प्राप्ति के लिए महत्वपूर्ण भी है ।

गांवों को छवि प्रदान करने वाली झील और तालाब कहाँ हैं ? जो हैं, उनमें अधिकांश सूख गए हैं । झील तथा तालाब की संस्कृति तथा प्रथा से हम दूर हो गए हैं । उन्हें हमने कूड़ा करकट, विषाक्त मल-जल और गंदगी का आगार बना दिया है । शौचालयों के अभाव में गाँववासी इन्हीं तालाबों और झीलों के किनारे खुले में मल-मूत्र त्याग करते हैं और उसी पानी में मल-मूत्र की सफाई करते हैं । इतना ही नहीं वह इनमें स्वयं को नहाते ही हैं साथ ही पशुओं को भी स्नान कराते हैं । रसोई के बर्तन धुलते हैं और कपड़े साफ करते हैं । इससे इन ताल-तलैया का पानी इतना गंदला तथा प्रदूषित हो जाता है कि जल का रंग तक हरा हो गया है, जिसे पीते ही लोगों का जी मिचलाने लगता है ।

गावों में तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण जल की मांग में काफी वृद्धि हुई । बढ़ती जनसंख्या के कारण प्रत्येक वर्ष लगभग ६४ अरब घन मीटर स्वच्छ जल की मांग बढ़ रही है । भारत वर्ष में भी जहां विश्व की कुल आबादी के १६ प्रतिशत लोग रहते हैं, वहां विश्व के कुल भू-भाग का केवल २.४५ प्रतिशत और जल संसाधनों का केवल ४ प्रतिशत भाग ही हमारे पास है । फलत: जल की गुणवत्ता में कमी आई है । वैसे तो जल में स्वयं शुद्धीकरण का सामर्थ्य होता है । लेकिन जब मानवजन्य प्रदूषकों का जल में इतना अधिक एकत्रीकरण हो जाता है कि वह जल की स्वयं की शुद्धिकरण की सामर्थ्य से बाहर हो जाता है तो जल प्रदूषित हो जाता है ।

गांवों में मानव कृषि में प्रयुक्त होने वाले रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशी ओर रोगनाशी कृत्रिम रसायनों, खर-पतवार तथा पौधों के अपशिष्ट पदार्थों अधजले मानव शवों तथा अधजली लकड़ियों, औद्योगिक मल-जल तथा अपशिष्टों को बिना उपचार के ही अधिकांशत: नदियों, झीलों, तालाबों आदि में बहता चला आ रहा है । इस प्रकार वह अनेक बीमारियों को न्योता दे रहा है । केन्द्रीय जल स्वास्थ्य इंजीनियरिंग अनुसन्धान संस्थान के अनुसार ग्रामीणों में होने वाली टाइफाइड, पीलिया, हैजा और पेचिस जैसी बीमारियां अशुद्ध जल से ही होती है ।

केन्द्र सरकार ने जल प्रदूषण की समस्या के समाधान हेतु १९७४ में जल प्रदूषण और निवारण अधिनियम बनाया जिसका उद्देश्य मानव उपयोग के लिए जल की गुणवत्ता को बनाए रखना था । पुन: पेयजल की गुणवत्ता में विशेष सुधार लाने के उद्देश्य से सन् १९८६ में राष्ट्रीय पेयजल मिशन बनाया गया ताकि अशोधित जल से होने वाली बीमारियों के बढ़ते स्तर को रोका जा सके । १९९१ में इस मिशन का नाम राजीव गांधी पेयजल मिशन रखा गया । इस प्रकार ग्रामीण क्षेत्रों में गिरती जल की गुणवत्ता में सुधार के लिए उचित प्रयास किए जा रहे हैं ।

परन्तु अब तक जो भी प्रयास हुए हैं, वे पर्याप्त् नहीं हैं । आज भी लगभग सवा लाख गांव ऐसे हैं जिनमें स्वच्छ पेयजल की व्यवस्था नहीं हैं । देश की लगभग सात हजार बस्तियों का पानी फ्लोरोसिस रोग पैदा करता है । यही नहीं जहाँ पेयजल की आपूर्ति ठीक है वहां भी यह दायित्व बनता है कि जल की गुणवत्ता बनाए रखने में सहयोग दें, जल-प्रबंधन हेतु बनाए गए अधिनियम के परिपालन पर निगरानी रखें अन्यथा जन सहभागिता के अभाव में मानव जीवन को आधार प्रदान करने वाले प्राकृतिक जल के अस्तित्व को बचाने में हम सब समर्थ रहेंगे ।

अनेक सरकारी ताम-झाम के बावजूद स्वच्छ जल के अभाव में आज ग्राम्य जीवन संकट में हैं तथा समस्या सुधरने के बजाय गहराती जा रही हैं । इसके साथ-साथ गांवों में अबाध गति से बढ़ते हुए जल प्रदूषण की रोकथाम हेतु हर नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह सरकारी प्रयासों के साथ हाथ से हाथ मिलाकर चले ताकि इस समस्या से छुटकारा मिल सके और सभी प्राणियों का जीवन सुखमय रहे ।

जल की गुणवत्ता को बनाए रखने तथा जल प्रदूषण को नियंत्रित करने के उद्देश्य से केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा समय-समय पर बनाए गए कानूनों का कड़ाई से पालन कराया जाना चाहिए । अपने विकास के लिए ऐसा रास्ता तलाशना होगा जिससे धरती पर उपलब्ध जल का प्राकृतिक रूप में अस्तित्व बना रहे तथा सभी प्राणियों को पीने योग्य स्वच्छ पानी मिलता रहे । लेकिन यह तभी संभव है जब मनुष्य जल के महत्व को समझे और उसे प्रदूषित होने से बचाने के लिए सतत प्रयत्नशील रहें ।
 

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