सचिन कुमार जैन

सचिन कुमार जैन
जंगल से गुफ्तगु और थकान की ताजगी
Posted on 01 Nov, 2014 10:02 AM

विविधता में एकता को किसी भी जंगल में पाया जा सकता है। आज की सबसे बड़ी समस्या यह है कि हम स्वयं

जंगल से एकतरफा संवाद
Posted on 28 Sep, 2014 01:38 PM

जब आस-पास शोर नहीं होता, तो डर क्यों लगता है?

Forest
डिब्बाबंद भोजन यानि धीमा जहर
Posted on 20 Sep, 2014 10:48 AM
बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव में आकर भारत सरकार एक बार पुनः मध्या
मनरेगा और लैंगिक उत्पीड़न
Posted on 08 Feb, 2014 10:11 AM
भारत में सर्वाधिक रोजगार देने वाले मनरेगा के कार्यस्थलों में महिला
Manrega
चुटका के बहाने शहरों से एक संवाद
Posted on 11 Jun, 2013 04:01 PM
अधिसूचना में जहां बड़े बांधों पर पूरी तरह से रोक की बात है वहीं 25 मेगावाट से छोटे बांधों को पूरी तरह से हरी झंडी देने का प्रयास है। अस्सीगंगा में 4 जविप निर्माणाधीन हैं जो 10 मेगावाट से छोटी हैं। जिनमें एशियाई विकास बैंक द्वारा पोषित निमार्णाधीन कल्दीगाड व नाबार्ड द्वारा पोषित अस्सी गंगा चरण एक व दो जविप भी है। उत्तरकाशी में भागीरथीगंगा को मिलने वाली अस्सीगंगा की घाटी पर्यटन की दृष्टि से ना केवल सुंदर है वरन् घाटी के लोगो को स्थायी रोज़गार दिलाने में भी सक्षम है।मध्य प्रदेश के जबलपुर, भोपाल, इंदौर सहित अन्य शहरों में रहने वाले निवासियों को यह पता भी नहीं होगा कि मंडला के पांच गांवों में 10 अप्रैल से 24 मई 2013 के बीच में क्या-क्या हुआ? मंडला जिले में राज्य सरकार चौदह सौ मेगावाट बिजली पैदा करने के लिए दो परमाणु ऊर्जा संयंत्र लगा रही है। नियम यह कहता है कि इस परियोजना की स्थापना के लिए ऐसा अध्ययन किया जाना चाहिए जिससे इस परियोजना के पर्यावरण यानी हवा, पानी, जमीन, पेड़-पौधों, चिड़िया, गाय, केंचुओं, कीड़े-मकोड़ों आदि पर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में जानकारी मिल सके और सरकार-समाज मिल कर यह तय करें कि हमें यह संयंत्र लगाना चाहिए कि नहीं। चुटका के लोगों और संगठनों ने पूछा कि राजस्थान के रावतभाटा संयंत्र की छह किलोमीटर की परिधि में बसे गांवों में कैंसर और विकलांगता पर सरकार चुप क्यों है? क्या यह सही नहीं कि इन संयंत्रों से निकलने वाले रेडियोधर्मी कचरे का यहीं उपचार भी होगा और वह जमीन में जाकर 2.4 लाख वर्षों तक पर्यावरण को नुकसान पहुंचाता रहेगा?
जमीन की राजनीति और संघर्ष की मशाल
Posted on 10 Nov, 2012 11:50 AM
आज देश में 3000 खदान परियोजनाएं हैं, 5000 से ज्यादा बांध हैं, शेरों को बचाने के नाम पर एक तरफ आदिवासि
आखिरी लड़ाई की जद्दोजहद
Posted on 28 Sep, 2012 04:49 PM

बांध और विकास योजनाओं की नींव में पत्थर नहीं डले, बल्कि आदिवासियों और ग्रामीणों की हड्डियां डाली गई। आज तक भारत

जल सत्याग्रह: न्याय का आग्रह
Posted on 25 Sep, 2012 03:09 PM
देश में चल रही बड़ी परियोजनाओं का दो कारणों से जनविरोध है। पहला ज्यादातर परियोजनाएं गांव, जंगल और नदियों, समुद्र के आसपास हैं और उन पर लोगों की आजीविका ही नहीं बल्कि उनकी सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान भी निर्भर करती है इसलिए उन परियोजनाओं से प्रभावित होने वाले लोग प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा चाहते हैं। वे एक एकड़ जमीन के बदले 10 लाख रुपए नहीं, बस उतनी ही जमीन चाहते हैं। वे एक सम्मानजनक पुनर्वास चाहते हैं। दूसरा, लोग यानी समाज जानता है कि यदि जंगल खत्म हो गए, नदियां सूख गईं और हवा जहरीली हो गई तो मानव सभ्यता खत्म हो जाएगी। मध्यप्रदेश के खंडवा जिले में स्थित घोघलगांव और खरदना गांव में 200 लोग 17 दिनों तक नर्मदा नदी में ठुड्डी तक भरे पानी में खड़े रहे। वे न तो कोई विश्व रिकार्ड बनाना चाहते थे और ना ही उन्हें अखबार में अपना चित्र छपवाना था। बल्कि विकास के नाम पर उनकी जलसमाधि दी जा रही थी, जिसके विरोध में उन्होंने जल सत्याग्रह शुरू किया। उनका कहना था कि यदि यह बांध देश के विकास के लिए बना है तो इससे उनके जीवन के अधिकार को क्यों खत्म किया जा रहा है। वैसे भी जमीन, पानी और प्राकृतिक संसाधन ही उनके जीवन के अधिकार के आधार हैं। मध्यप्रदेश में दो बड़े बांधों - इंदिरा सागर और ओंकारेश्वर से बिजली बनती है और इनसे थोड़ी बहुत सिंचाई भी होती है। इन बांधों के दायरे के बाहर की दुनिया को इन बांधों से बिजली मिलती है और उनके घर इससे रोशन होते हैं। रेलगाड़ियां भी चलती हैं। नए भारत के शहरों को, उन उद्योगों को, जो रोजगार खाते हैं, मॉल्स और हवाई अड्डों को भी यही की बिजली रोशन करती है।
विरासत में मिलता है मैला ढोने का काम
Posted on 05 May, 2012 02:18 PM
असभ्य समाज में भी मैला ढोने की प्रथा का प्रचलन नहीं था पर विकसित होते समाज में बदस्तूर ऐसी प्रथा का पालन किया जा रहा है जिसमें इंसान का इंसान से ही मल साफ करवाया जा रहा है। सरकार मानती है कि मैला ढोने का काम बंद करते ही उन्हें दूसरे अच्छे काम मिल जाते हैं जबकि वास्तविकता यह है कि ऐसा करने से उनके दूसरे विकल्प भी छिन जाते हैं। समाज का मैला ढोना जैसे उनको विरासत में मिली हो। इसी सभ्य समाज के इन क
गरीबी की रेखा
Posted on 01 Sep, 2011 01:37 PM

113 मानव विकास प्रतिवेदन की अवधारणा लाने वाला संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम मानता है कि आय क

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