अधिसूचना में जहां बड़े बांधों पर पूरी तरह से रोक की बात है वहीं 25 मेगावाट से छोटे बांधों को पूरी तरह से हरी झंडी देने का प्रयास है। अस्सीगंगा में 4 जविप निर्माणाधीन हैं जो 10 मेगावाट से छोटी हैं। जिनमें एशियाई विकास बैंक द्वारा पोषित निमार्णाधीन कल्दीगाड व नाबार्ड द्वारा पोषित अस्सी गंगा चरण एक व दो जविप भी है। उत्तरकाशी में भागीरथीगंगा को मिलने वाली अस्सीगंगा की घाटी पर्यटन की दृष्टि से ना केवल सुंदर है वरन् घाटी के लोगो को स्थायी रोज़गार दिलाने में भी सक्षम है।मध्य प्रदेश के जबलपुर, भोपाल, इंदौर सहित अन्य शहरों में रहने वाले निवासियों को यह पता भी नहीं होगा कि मंडला के पांच गांवों में 10 अप्रैल से 24 मई 2013 के बीच में क्या-क्या हुआ? मंडला जिले में राज्य सरकार चौदह सौ मेगावाट बिजली पैदा करने के लिए दो परमाणु ऊर्जा संयंत्र लगा रही है। नियम यह कहता है कि इस परियोजना की स्थापना के लिए ऐसा अध्ययन किया जाना चाहिए जिससे इस परियोजना के पर्यावरण यानी हवा, पानी, जमीन, पेड़-पौधों, चिड़िया, गाय, केंचुओं, कीड़े-मकोड़ों आदि पर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में जानकारी मिल सके और सरकार-समाज मिल कर यह तय करें कि हमें यह संयंत्र लगाना चाहिए कि नहीं। चुटका के लोगों और संगठनों ने पूछा कि राजस्थान के रावतभाटा संयंत्र की छह किलोमीटर की परिधि में बसे गांवों में कैंसर और विकलांगता पर सरकार चुप क्यों है? क्या यह सही नहीं कि इन संयंत्रों से निकलने वाले रेडियोधर्मी कचरे का यहीं उपचार भी होगा और वह जमीन में जाकर 2.4 लाख वर्षों तक पर्यावरण को नुकसान पहुंचाता रहेगा?ज्यादातर परमाणु संयंत्र समुद्रों के पास लगाए जाते हैं ताकि पानी की विशाल मात्रा होने के कारण पानी का तापमान न बढ़े और संयंत्र से निकलने वाला विकिरणयुक्त पानी इंसानों के सीधे उपयोग में ना आ पाए। तो फिर नर्मदा नदी के क्षेत्र में चुटका संयंत्र लगाने का क्या मतलब है? सक्रिय भूकंप वाले इलाके में इतना संवेदनशील संयंत्र क्यों लगाया जा रहा है? हमारे विशेषज्ञ, परमाणु उर्जा के समर्थक विद्वान और कम्पनी सरकार सीधे-सीधे इन सवालों का उत्तर नहीं देना चाहते। ऐसे में चुटका, टाटीघाट, कुंडा, पता और भीलवाडा गांव के लोगों ने 24 मई को चुटका में जनसुनवाई नहीं होने दी।
राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान (नागपुर) ने चुटका के बारे में बनाई गई रिपोर्ट पर मंडला जिले के चुटका (नारायणपुर) में जनसुनवाई होना तय किया गया। नियमानुसार लोगों को परियोजना से जुड़ी हुए रिपोर्ट्स और दस्तावेज उपलब्ध करवाए जाने चाहिए, ताकि वे उन्हें पढ़कर अपनी आपत्तियां भी दर्ज करा सकें। जंगल, पानी, पेड़-पौधों, चिड़िया और जंगली जानवरों के साथ जीवन जीने वाले इन आदिवासी बहुल गांवों के लोगों को अंग्रेजी भाषा में बेइमानी से तैयार दो हजार छह सौ पन्नों की रिपोर्ट्स दे दी गई। वैसे आप इन्हें अशिक्षित मत मानिए, इन समाजों ने प्रकृति को पढ़ा है और उसी से अपने जीवन का ताना-बाना बुना है। क्या हम और सरकार इन्हें अपने जाल में फंसा नहीं रहे हैं, ताकि ये अपनी जमीन और गांव छोड़कर जाने के लिए मजबूर हो जाएं। लेकिन आप कहेंगे कि समाज के बड़े हित के सामने 10-20 गांवों को यदि अपना बलिदान देना पड़े तो इसमें क्या बुराई है। यह संकेत है कि अधिकांश लोगों के भीतर मूल्य, इंसानियत और समझ तीनों मर चुकी हैं।
हम और सरकार मिल कर उन लोगों को फिर से उजाड़ने की तैयारी कर रहे हैं, जिन्हें पहले भी बरगी बांध के नाम पर उजाड़ा जा चुका है। इनका कहना है कि हम परमाणु उर्जा इसलिए नहीं चाहते हैं, क्योंकि इससे पर्यावरण को नुकसान पंहुचेगा और इससे केवल मंडला के इन गांवों को ही नहीं बहुत बड़े इलाके में तबाही मचने की आशंका है। इससे जंगल खत्म हो सकता है और नर्मदा मैया को नुकसान पंहुचेगा। इस परमाणु बिजलीघर में संयंत्र को ठंडा रखने के लिए हर वर्ष 7.25 करोड़ घन मीटर पानी नर्मदा नदी पर बने बरगी बांध से लिए जाएगा। इस बांध का निर्माण सिंचाई का रकबा बड़ा कर प्रदेश में खाद्य सुरक्षा लाने के मकसद से किया गया था। यदि चुटका के लिए इतना पानी लिया गया तो बरगी बांध से सिंचाई के लिए बहुत कम पानी मिलेगा। चुटका संयंत्र के लिए बांध में ज्यादा पानी का भण्डारण किया जाएगा। जिससे नीचे नर्मदा का जलप्रवाह कम हो जाएगा।
चुटका के लिए बनाई गई पर्यावरण रिपोर्ट में यह तथ्य छिपा लिया गया कि जबलपुर के पास के इसी इलाके को भूकंप की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र घोषित किया जा चुका है। यहां 22 मई 1997 को रिक्टर स्केल पर 6.7 तीव्रता का भूकंप आ चुका है और अब भी यहां भूकंप की संभावना है।
एक और तथ्य पर गौर करिए नर्मदा नदी से परमाणु संयंत्र के लिए सवा सात करोड़ घन लीटर पानी लेकर वापस जलाशय में ही छोड़ दिया जाएगा। पूरी संभावना है कि इस पानी में रेडियोधर्मी तत्व मिल जायेंगे और पानी में विकिरण फैलता जाएगा। यह पानी बरगी जलाशय से आगे जाएगा और नर्मदा नदी में रहने वाली मछलियों, जलीय वनस्पतियों को तो प्रभावित करेगा ही, नर्मदा नदी के आस पास बसे पांच सौ गांवों और कस्बों को भी प्रभावित करेगा। नर्मदा के पानी से लाखों एकड़ खेतों की सिंचाई होती है। यदि शहरी कहते हैं कि इससे हमें क्या लेना-देना, तो यह भी सोचिये कि आपके घर में खाने की वस्तुएं क्या खेत से नहीं आती हैं? पता नहीं हमारे शहर अब यह क्यों मानने लगे हैं कि जंगल, पहाड़ नदी और जंगली जानवर खत्म हो जायेंगे तो हमें कुछ फर्क नहीं पड़ेगा। पानी दूषित हो जाएगा, तो बोतल बंद पानी तो मिलेगा ही, यही सोच उन्हें विकास, समाज के हितों और मूल्यों से जुड़े सवालों से दूर ले जाती है।
आधुनिक शिक्षा यह सिखाती है कि अपने हित तथा अपने सुख पर ध्यान दो और व्यापक सामाजिक हितों की बहस से दूर रहो। वह सिखाती है किसानों, मजदूरों और आदिवासियों के आन्दोलनों से दूर रहना, ये सब राज्य विरोधी हैं और देश का विकास नहीं चाहते हैं। यही कारण है कि चुटका के लोग हों या यूनियन कार्बाइड के द्वारा किए गए जनसंहार से प्रभावित लोग, सभी को अपनी लड़ाई अकेले लड़ना पड़ता है। सोचिये जब ये शहर जलेंगे तो उस आग को बुझाने कौन आयेगा? विकास की राजनीति ने शहर को गांवों के खिलाफ लाकर जरूर खड़ा कर दिया है।पिछले 10 सालों से भोपाल और इंदौर के लोगों, को नर्मदा नदी से पानी लाकर दिए जाने की परियोजनाएं चल रही हैं। पर वे नर्मदा नदी के अस्तित्व को लेकर कतई चिंतित दिखते। यह पानी भी चुटका परियोजना से होकर आयेगा। ये ऐसी परियोजना जो पानी में विकिरण फैला सकती है और विकिरणयुक्त पानी कैंसर जैसी बीमारियां, अविकसित और विकलांग बच्चों के जन्म का कारण बनता आया है।
इन शहरों से हमें कोई उम्मीद नहीं करना चाहिए कि वे चुटका और उसके आसपास बसे दस गांवों के लोगों की बात समझ पाएंगे, क्योंकि शहर के लोग तो यही मानते हैं कि गांव के लोग और आदिवासी एक तो विकास को रोकते हैं और विरोध के नाम पर शहर में आकर यातायात प्रभावित करते हैं, शांति व्यवस्था भंग करते हैं और जगह-जगह गंदगी फैला देते हैं। हमारे शहर के लोग यह मानते हैं कि अपने लिए जमीन और बड़ा मुआवजा पाने के लिए ही आदिवासी और ग्रामीण विरोध करते हैं। खुली बहस के मंच अब उन सरकारों और कंपनियों के पक्ष में हैं, जिनसे आर्थिक लाभ होता है, फिर पानी और अनाज जहर हो जाए या चिड़िया मर जाए। अब तय होता जा रहा है कि महज आर्थिक उन्नति समाज को असभ्य बनाती है।
राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान (नागपुर) ने चुटका के बारे में बनाई गई रिपोर्ट पर मंडला जिले के चुटका (नारायणपुर) में जनसुनवाई होना तय किया गया। नियमानुसार लोगों को परियोजना से जुड़ी हुए रिपोर्ट्स और दस्तावेज उपलब्ध करवाए जाने चाहिए, ताकि वे उन्हें पढ़कर अपनी आपत्तियां भी दर्ज करा सकें। जंगल, पानी, पेड़-पौधों, चिड़िया और जंगली जानवरों के साथ जीवन जीने वाले इन आदिवासी बहुल गांवों के लोगों को अंग्रेजी भाषा में बेइमानी से तैयार दो हजार छह सौ पन्नों की रिपोर्ट्स दे दी गई। वैसे आप इन्हें अशिक्षित मत मानिए, इन समाजों ने प्रकृति को पढ़ा है और उसी से अपने जीवन का ताना-बाना बुना है। क्या हम और सरकार इन्हें अपने जाल में फंसा नहीं रहे हैं, ताकि ये अपनी जमीन और गांव छोड़कर जाने के लिए मजबूर हो जाएं। लेकिन आप कहेंगे कि समाज के बड़े हित के सामने 10-20 गांवों को यदि अपना बलिदान देना पड़े तो इसमें क्या बुराई है। यह संकेत है कि अधिकांश लोगों के भीतर मूल्य, इंसानियत और समझ तीनों मर चुकी हैं।
हम और सरकार मिल कर उन लोगों को फिर से उजाड़ने की तैयारी कर रहे हैं, जिन्हें पहले भी बरगी बांध के नाम पर उजाड़ा जा चुका है। इनका कहना है कि हम परमाणु उर्जा इसलिए नहीं चाहते हैं, क्योंकि इससे पर्यावरण को नुकसान पंहुचेगा और इससे केवल मंडला के इन गांवों को ही नहीं बहुत बड़े इलाके में तबाही मचने की आशंका है। इससे जंगल खत्म हो सकता है और नर्मदा मैया को नुकसान पंहुचेगा। इस परमाणु बिजलीघर में संयंत्र को ठंडा रखने के लिए हर वर्ष 7.25 करोड़ घन मीटर पानी नर्मदा नदी पर बने बरगी बांध से लिए जाएगा। इस बांध का निर्माण सिंचाई का रकबा बड़ा कर प्रदेश में खाद्य सुरक्षा लाने के मकसद से किया गया था। यदि चुटका के लिए इतना पानी लिया गया तो बरगी बांध से सिंचाई के लिए बहुत कम पानी मिलेगा। चुटका संयंत्र के लिए बांध में ज्यादा पानी का भण्डारण किया जाएगा। जिससे नीचे नर्मदा का जलप्रवाह कम हो जाएगा।
चुटका के लिए बनाई गई पर्यावरण रिपोर्ट में यह तथ्य छिपा लिया गया कि जबलपुर के पास के इसी इलाके को भूकंप की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र घोषित किया जा चुका है। यहां 22 मई 1997 को रिक्टर स्केल पर 6.7 तीव्रता का भूकंप आ चुका है और अब भी यहां भूकंप की संभावना है।
एक और तथ्य पर गौर करिए नर्मदा नदी से परमाणु संयंत्र के लिए सवा सात करोड़ घन लीटर पानी लेकर वापस जलाशय में ही छोड़ दिया जाएगा। पूरी संभावना है कि इस पानी में रेडियोधर्मी तत्व मिल जायेंगे और पानी में विकिरण फैलता जाएगा। यह पानी बरगी जलाशय से आगे जाएगा और नर्मदा नदी में रहने वाली मछलियों, जलीय वनस्पतियों को तो प्रभावित करेगा ही, नर्मदा नदी के आस पास बसे पांच सौ गांवों और कस्बों को भी प्रभावित करेगा। नर्मदा के पानी से लाखों एकड़ खेतों की सिंचाई होती है। यदि शहरी कहते हैं कि इससे हमें क्या लेना-देना, तो यह भी सोचिये कि आपके घर में खाने की वस्तुएं क्या खेत से नहीं आती हैं? पता नहीं हमारे शहर अब यह क्यों मानने लगे हैं कि जंगल, पहाड़ नदी और जंगली जानवर खत्म हो जायेंगे तो हमें कुछ फर्क नहीं पड़ेगा। पानी दूषित हो जाएगा, तो बोतल बंद पानी तो मिलेगा ही, यही सोच उन्हें विकास, समाज के हितों और मूल्यों से जुड़े सवालों से दूर ले जाती है।
आधुनिक शिक्षा यह सिखाती है कि अपने हित तथा अपने सुख पर ध्यान दो और व्यापक सामाजिक हितों की बहस से दूर रहो। वह सिखाती है किसानों, मजदूरों और आदिवासियों के आन्दोलनों से दूर रहना, ये सब राज्य विरोधी हैं और देश का विकास नहीं चाहते हैं। यही कारण है कि चुटका के लोग हों या यूनियन कार्बाइड के द्वारा किए गए जनसंहार से प्रभावित लोग, सभी को अपनी लड़ाई अकेले लड़ना पड़ता है। सोचिये जब ये शहर जलेंगे तो उस आग को बुझाने कौन आयेगा? विकास की राजनीति ने शहर को गांवों के खिलाफ लाकर जरूर खड़ा कर दिया है।पिछले 10 सालों से भोपाल और इंदौर के लोगों, को नर्मदा नदी से पानी लाकर दिए जाने की परियोजनाएं चल रही हैं। पर वे नर्मदा नदी के अस्तित्व को लेकर कतई चिंतित दिखते। यह पानी भी चुटका परियोजना से होकर आयेगा। ये ऐसी परियोजना जो पानी में विकिरण फैला सकती है और विकिरणयुक्त पानी कैंसर जैसी बीमारियां, अविकसित और विकलांग बच्चों के जन्म का कारण बनता आया है।
इन शहरों से हमें कोई उम्मीद नहीं करना चाहिए कि वे चुटका और उसके आसपास बसे दस गांवों के लोगों की बात समझ पाएंगे, क्योंकि शहर के लोग तो यही मानते हैं कि गांव के लोग और आदिवासी एक तो विकास को रोकते हैं और विरोध के नाम पर शहर में आकर यातायात प्रभावित करते हैं, शांति व्यवस्था भंग करते हैं और जगह-जगह गंदगी फैला देते हैं। हमारे शहर के लोग यह मानते हैं कि अपने लिए जमीन और बड़ा मुआवजा पाने के लिए ही आदिवासी और ग्रामीण विरोध करते हैं। खुली बहस के मंच अब उन सरकारों और कंपनियों के पक्ष में हैं, जिनसे आर्थिक लाभ होता है, फिर पानी और अनाज जहर हो जाए या चिड़िया मर जाए। अब तय होता जा रहा है कि महज आर्थिक उन्नति समाज को असभ्य बनाती है।
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