गरीबी की रेखा

113 मानव विकास प्रतिवेदन की अवधारणा लाने वाला संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम मानता है कि आय के साथ बुनियादी शिक्षा, लोक संसाधनों तक पहुंच का अभाव और आय का मापदण्ड गरीबी को मापने के लिए जरुरी है। उदारीकरण और खुले बाजार की प्रतिस्पर्धा को सार्थक सिद्ध करने के लिये सरकार पर हमेशा विकसित देशों, विश्व बैंक और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का दबाव रहा है कि वह अपने देश की गरीबी को या तो कम करें या कम दिखायें।

'गरीबी की रेखा एक ऐसी रेखा है जो गरीब के ऊपर से और अमीर के नीचे से निकलती है।' यह परिभाषा किसी भी मायने में सैद्धांतिक न हो परन्तु व्यावहारिक और जमीनी परिभाषा इससे अलग नहीं हो सकती है। वास्तव में गरीबी की रेखा के जरिए राज्य ऐसे लोगों के चयन की औपचारिकता पूरी करता है जो इससे ज्यादा अभाव में जी रहे हैं कि उन्हें रोज खाना नहीं मिलता है, रोजगार का मुद्दा तो सट्टे जैसा है, नाम मात्र को छप्पर मौजूद है या नहीं है, कपड़ों के नाम पर कुछ चीथड़े वे लपेटे रहते हैं। ये वे लोग हैं जिन्हें विकास की प्रक्रिया में घोषित रुप से सबसे बड़ी बाधा माना जाने लगा है। हालांकि विकास का यह एक अहम् मापदण्ड भी है कि लोगों को गरीबी के दायरे से बाहर निकाला जाये इस दुविधा की स्थिति में लगातार संसाधन झोंके जाते हैं। दो दशकों में ग्रामीणों पर इस काम के लिये 45 हजार करोड़ रुपए व्यय किये गये हैं। परन्तु अध्ययन बताते हैं कि निर्धारित लक्ष्यों का 20 प्रतिशत हिस्सा ही हासिल किया जा सका है। राज्य में रहने वाले विपन्न तबके की उन्नति के उद्देश्य से हर पंच वर्षीय योजना के अन्तर्गत गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले लोगों का सर्वेक्षण (बीपीएल सर्वे) कराया जाता रहा है। इस सर्वे के मूलत: दो व्यावहारिक उद्देश्य होते हैं। एक-विगत् पांच वर्षों में राज्य में कितनी गरीबी कम हुई है? कौन अब गरीब नहीं रहा और कौन हैं जिनके नाम इस सूची में नये सिरे से जोड़े जाने हैं। यह सूची बहुत महत्वपूर्ण इसलिये होती है क्योंकि इसी के आधार पर गरीब और आर्थिक रुप से अति कमजोर लोगों, निराश्रितों, वृद्धों और विधवा महिलाओं को जनकल्याणकारी योजनाओं का लाभ मिलता है। वर्तमान में 12 योजनायें ऐसी हैं जो बीपीएल परिवार को ध्यान में रखकर ही संचालित की जा रही हैं जबकि 9 जनकल्याणकारी कार्यक्रम उनके हितों की रक्षा के लिए संचालित हो रहे हैं।

सबसे अहम् बिन्दु तो यही है कि विगत् पांच वर्षों के दौरान प्रदेश में कितनी गरीबी या गरीब कम हुये इसका आंकड़ा नेशनल सैम्पल सर्वे द्वारा कुछ चुने हुये क्षेत्रों का सर्वेक्षण करके अन्तर्राष्ट्रीय मापदण्डों के आधार पर तय किया जाता है। इस प्रक्रिया की शुरुआत 1960 में घरेलू उपभोग व्यय के आधार पर हुई। 1960-61 में एक विशेषज्ञ समूह द्वारा यह तय किया गया कि ग्रामीण क्षेत्रों में 20 रुपए और शहरी क्षेत्र में 25 रुपए का उपभोग करने वाले लोग बीपीएल सूची में होंगे। 1973-74 में तय किया गया कि ग्रामीण क्षेत्र में 2400 कैलोरी और शहरी क्षेत्र में 2100 कैलोरी जीवन के लिये जरुरी है और क्रमश: 49 और 55.6 रुपए प्रतिमाह खर्च करके यह ऊर्जा हासिल की जा सकती है। भारत के सन्दर्भ में 1993-94 पुन: संशोधन करते हुये बीपीएल का नया सूचक 1968 कैलोरी (205.84 रुपए) का ग्रामीण स्तर पर और 1890 कैलोरी (281.35 रुपए) का शहरी स्तर पर तय किया गया। विश्लेषण से यह पता चलता है कि 1962 से 1997 तक गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले लोगों की सूची में निरन्तर नये नाम जुड़ते ही रहे और गरीबी का स्तर कम नहीं हुआ। तब 1997 में यह तय किया गया कि अब नये नाम सूची में नहीं जोड़े जायेंगे और यदि जोड़े जाते हैं तो पुराने नाम काट कर ही ऐसा किया जा सकेगा। सबसे अहम् विवाद तो यही है कि रामपुर गांव में 120 परिवारों में से कितने प्रतिशत परिवार गरीब हैं या देवास जिले के कितने प्रतिशत परिवार गरीब हैं, यह पहले योजना आयोग के सौजन्य से नेशनल सैम्पल सर्वे द्वारा तय किया जाता है। तब हर राज्य और जिले को उनके 'टारगेट' के बारे में सूचित कर दिया जाता है और उसी के आधार पर बीपीएल सर्वे की प्रक्रिया होती है। जैसे ही निर्धारित प्रतिशत पूर्ण हो जाता है, लोगों को सूची से बाहर किया जाने लगता है। होना तो यह चाहिये कि गांव के स्तर से गरीबों की पहचानने की प्रक्रिया शुरु हो और जिले से राज्य तक पहुंचे ताकि सही हितग्राहियों की पहचान की जा सके।

विकासशील देशों में गरीबों का प्रतिशत विश्व बैंक द्वारा बिना किसी सर्वे के तय कर दिया जाता है। वह संबंधित देश में कोई अध्ययन नहीं करता है। उसके अनुसार एक डालर प्रतिदिन से कम अर्जित करने वाला परिवार गरीबी की श्रेणी में आता है, इससे ज्यादा आय अर्जित करने वाला व्यक्ति अमीर होगा। कई अनुभवों से यह पता चलने के बावजूद कि 2 से 5 डालर प्रतिदिन में भी जीवन की बुनियादी जरुरतें पूर्ण नहीं हो सकती है, विश्व बैंक के मापदण्ड नहीं बदले हैं। मानव विकास प्रतिवेदन की अवधारणा लाने वाला संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम मानता है कि आय के साथ बुनियादी शिक्षा, लोक संसाधनों तक पहुंच का अभाव और आय का मापदण्ड गरीबी को मापने के लिए जरुरी है। उदारीकरण और खुले बाजार की प्रतिस्पर्धा को सार्थक सिद्ध करने के लिये सरकार पर हमेशा विकसित देशों, विश्व बैंक और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का दबाव रहा है कि वह अपने देश की गरीबी को या तो कम करें या कम दिखायें। इस दबाव में भारत में गरीबी की रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या में पांच वर्ष में 9.06 प्रतिशत कम कर दी गई हैं जबकि जम्मू एवं कश्मीर में 21.69 प्रतिशत, बिहार में 12.36 प्रतिशत, राजस्थान में 12.13 प्रतिशत मध्यप्रदेश में 5. 09 प्रतिशत कम कर दी गई है।

गरीबी का अनुपात


ग्रामीण

शहरी

कुल

राज्य

1973-1974

1993- 1994

1999- 2000

1973- 1974

1993- 1994

1999- 2000

1973- 1974

1993- 1994

1999- 2000

आंध्र प्रदेश

48.41

15.92

11.05

50.61

38.33

26.63

48.86

22.19

15.77

बिहार

62.99

58.21

44.30

42.96

34.50

32.91

61.91

54.96

42.60

गुजरात

46.35

22.18

13.17

52.57

27.89

15.59

48.15

24.21

14.07

हरियाणा

34.23

28.02

8.27

40.18

16.38

9.99

35.36

25.05

 8.74

जम्मू तथा कश्मीर

45.51

30.34

3.97

21.32

9.18

1.98

40.83

25.17

 3.48

मध्यप्रदेश

62.66

40.64

37.06

57.65

48.38

38.44

61.18

42.52

37.43

महाराष्ट्र

57.71

37.93

23.72

43.87

35.15

26.81

53.24

36.86

25.02

उड़ीसा

67.28

49.72

48.01

55.62

41.64

42.83

66.18

48.56

47.15

राजस्थान

44.76

26.46

13.74

52.13

30.49

19.58

46.14

27.41

15.28

उत्तर प्रदेश

56.53

42.28

31.22

60.09

35.39

30.89

57.07

40.85

31.15

दिल्ली

24.44

 1.90

0.40

52.23

16.03

9.42

49.61

14.69

 8.23

भारत

56.44

37.27

27.09

49.01

32.36

23.62

54.88

35.97

26.10


स्रोत : योजना आयोग

मध्यप्रदेश की स्थिति इस मामले में चौंकाने वाली है। इस वर्ष होने जा रहे सर्वे के अन्तर्गत मध्यप्रदेश में तय किया गया है कि 298.54 लाख लोग गरीबी की रेखा के नीचे हैं और यह प्रतिशत 1997 - 98 में 42. 52 से घटाकर 37. 43 प्रतिशत कर दिया गया है जबकि प्रदेश में बेरोजगारों की संख्या निरन्तर बढ़ रही है। यहां एक दशक की में रोजगार वृद्धि ग्रामीण क्षेत्रों में 2.51 प्रतिशत सालाना से घटकर 0.69 प्रतिशत हो गई है। इसके साथ ही यहां सीमांत एवं लघु किसानों के जोत क्षेत्रों का अनुपात 1970-71 में 9.6 प्रतिशत था जो 1995-96 में बढ़कर 21.5 प्रतिशत हो गया। आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि 61 फीसदी जमीन के मालिक छोटे और सीमांत किसान हैं। जिनके जोत का रकबा 0. 91 हेक्टेयर था। यह आर्थिक रुप से पूरी तरह से अनुपयोगी था और जीवनयापन के लिये पूरी तरह अपर्याप्त था। आंकड़ों की बाजीगरी के बीच इस तथ्य का उल्लेख बहुत महत्वपूर्ण है कि मध्यप्रदेश में 70 फीसदी बच्चे कुपोषण और 50 फीसदी महिलायें खून की कमी की शिकार हैं, जिसका सीधा संबंध भोजन की अनुपलब्धता से है।

सर्वेक्षण पर सवाल


गरीबी के सूचक- वर्तमान सन्दर्भों में गरीबी को आंकना भी एक नई चुनौती है क्योंकि जल, जंगल और जमीन पर सरकार और सरकार समर्थन पूंजीवादी ठेकेदारों का नियंत्रण लगातार बढ़ रहा है। उनकी नीतियाँ मशीनीकृत आधुनिक विकास को बढ़ावा देती है, औद्योगिकीकरण उनका प्राथमिक लक्ष्य है। बजट में वह जीवन रक्षक दवाओं और खाद के दाम बढ़ाकर विलासिता की वस्तुओं के दाम कम करने में विश्वास रखती है। किसी गरीब के पास आंखें रहे न रहें परन्तु घर में रंगीन टीवी की उपलब्धता सुनिश्चित करने में सरकार पूरी तरह से जुटी हुई है। इस वर्ष गरीबों की पहचान के लिये सरकार ने कुल 13 सूचक तय किये हैं :-

1. परिवार द्वारा धारित भूमि,
2. मकान का प्रकार,
3. प्रति व्यक्ति पहनने के कपड़े की उपलब्धता,
4. खाद्य सुरक्षा,
5. स्वच्छता,
6. उपभोक्ता वस्तुओं का स्वामित्व,
7. शिक्षा,
8. श्रम,
9.जीविकोपार्जन के साधन,
10. बच्चों का स्तर,
11. देनदारी,
12. पलायन,
13. सहायता की प्राथमिकता।

113 इनके प्रभाव से एक तरफ लोगों के लिये सामाजिक अवसर बढ़ेंगे और दूसरी तरफ हर वर्ग और बसाहट के व्यक्ति की उत्पादक सम्पत्तियाँ बढ़ सकें तथा इसके साथ ही उत्पादक अस्तियों तक समान रुप से पहुंच हो सके। अन्यथा, विकास से होने वाला लाभ, गरीब और पिछड़े इलाकों के लोगों को कदाचित नहीं मिलेगा और हो सकता है कि असमानता और भी गंभीर हो जाये।

इन तेरह सूचकों और उनकी परिभाषाओं को देखने पर पता चलता है कि विगत् 40 वर्षों में इस प्रक्रिया में गरीबी को देखने का नजरिया पहले से ज्यादा मानवीय हुआ है परन्तु सूचकों के निर्धारण में अभी कई विवाद हैं। इस बार स्वच्छता को पुन: विकास का कारण माना गया है। बीपीएल सूचक के हिसाब से यदि व्यक्ति खुले में शौच के लिये जाता है या अनियमित जल आपूर्ति के साथ गांव में सामूहिक शौचालय का उपयोग करता है तो उसके उत्तीर्ण (गरीब) होने की ज्यादा संभावनायें हैं। यह सूचक स्पष्ट रुप से ठेकेदारी विकास और विश्वबैंक के दबाव का परिणाम है। क्योंकि इससे लोगों की भुखमरी और निम्नतम जीवन स्तर का प्रत्यक्ष संबंध नहीं है। फिर भी विगत् दो पंचवर्षीय योजनाओं में कर्ज लेकर 9124534 शौचालय सरकार ने बनवाये हैं। सर्वे के नजरिए से इतने लोग तो चार अंक पाकर रेखा में प्रवेश की संभावना से दूर हो जायेंगे। कर्ज का मापदण्ड यह कहता है कि यदि व्यक्ति ने साहूकार से कर्ज लिया है तो वह गरीब है यदि बैंक से लिया तो नहीं। मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले के पेटलावद ब्लॉक के सन्दर्भ में उल्लेखनीय है कि वहां भील आदिवासी विगत् चार वर्षों में बैंक से 12 करोड़ का कर्ज ले चुके है, पर सब कुछ बेचकर भी नहीं चुका पा रहे हैं और बैंक कानूनी कार्रवाई पर उतारु है। इसी तरह पहनने के कपड़ों की संख्या के बारे में जानने की कोशिश की जा रही हैं परन्तु मौसम की जरुरत के अनुरुप और ओढ़ने बिछाने वाले कपड़े उपलब्ध हैं या नही, यह स्पष्ट नहीं किया गया है। उल्लेखनीय है कि दिल्ली में भीषण ठण्ड के कारण इसी वर्ष 800 से ज्यादा लोग फुटपाथ पर ही मर गये। बड़े ही आश्चर्य का विषय है कि 500 रुपए के पंखें, 150 रुपए के रेडियो, 200 रुपए के कुकर और 100 रुपए के सामान्य टीवी की मौजूदगी से व्यक्ति गरीबी रेखा में नहीं आयेगा।

भोजन की सुरक्षा वाले कालम के भरपेट भोजन के बारे में सवाल पूछा गया है लेकिन भरपेट का अर्थ क्या है, यह खुलासा नहीं किया गया है। यदि किसी परिवार को रोटी के साथ हरी सब्जी, दाल, गुड़, दूध, दही इत्यादि समय पर या बदलते क्रम में दिन में एक बार भोजन के साथ मिलता है तो वह भरपेट भोजन कर सकता है। यह सवाल प्रत्येक मनुष्य के साथ जुड़ा हुआ है लेकिन सीधा यह सवाल पूछा जाना कि वर्ष भर में अधिकांश दिनों में एक समय या एक समय भी भर पेट भोजन नहीं मिलता, तो इसका सही उत्तर नहीं मिलता। एक अध्ययन से पता चलता कि हरी सब्जी, दाल, दूध, दही, इनमें से कोई भी चीज एक बार मिलती है तो भरपेट भोजन हो जाता है और यदि सूखी लाल मिर्च या केवल प्याज के साथ रोटी खाना पड़ती है तो पेट भराई तो हो जाती है लेकिन भरपेट भोजन नहीं होता और फिर यदि हम कैलोरी की जरुरत सूचक बना रहे हैं तो यह जांचना कैसे भूल गये कि भोजन में मिलता क्या है?

सर्वोच्च न्यायालय ने क्या कहा ...


• पी.यू.सी.एल. बनाम भारत सरकार एवं अन्य, प्रकरण क्रमांक 196/ 2001 के अन्तर्गत 8 मई 2002 को दिया गया अंतरिम आदेश -

• बिन्दु क्रमांक 14 गरीबी की रेखा के नीचे के परिवारों की पहचान ठीक से नहीं की जा रही है और इसके लिए मापदण्ड न तो एक से है न ही स्पष्ट है, इस शिकायत के मद्देनजर राज्य और केन्द्र सरकार को निर्देशित किया गया हैं कि वे प्रकरण को स्पष्ट करें तथा बीपीएल परिवारों की निष्पक्ष और प्रभावशाली पहचान के लिए नीति बनाये।

• दिनांक - 3 मार्च 2003- गरीबों की संख्या कम करने के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार को नोटिस जारी कर देश में गरीबी की रेखा के नीचे जीवन बसर करने वाले परिवारों की सूची में की गई छंटनी के आरोपों के बारे में कारण बताने के आदेश दिये।

मानव विकास प्रतिवेदन-2002 और गरीबी


योजना आयोग राष्ट्रीय तथा राज्य स्तरों पर गरीबों की संख्या तथा अनुपात का अनुमान लगाने के लिए गठित विशेषज्ञ समूह की रिपोर्ट पर समावेशित प्रक्रिया के आधार पर गरीबी की स्थिति का आंकलन करता आया है। वह इस प्रक्रिया को उपभोग व्यय के आंकड़ों पर लागू करता रहा है और यह आंकड़े उपभोक्ता व्यय पर किये गये व्यापक सर्वेक्षण पर आधारित हैं, जो राष्ट्रीय सैम्पल सर्वे संस्थान द्वारा किये जाते हैं। इस प्रकार शासकीय गरीबी अनुमान के आंकड़े वर्ष 1973-74, 1977-78, 1983, 1987-88, 1993-94 तथा 1999-2000 के लिए उपलब्ध हैं। इन अनुमानों को राज्यस्तरीय गरीबी का नक्शा बनाने के लिए स्वीकार्य मापदंड माना जा सकता है। कई राज्यों में छोटे अंतराल में अलग गरीबी में बदलाव देखें जाये तो काफी उतार-चढ़ाव देखने में मिलते हैं। यह सही तस्वीर नहीं पेश करते और कई बार तो यह उतार चढ़ाव अपनाई गयी प्रक्रियाविधि में परिवर्तन के कारण होते हैं। हालांकि लम्बी अवधि में यह बातें सुलझ जाती हैं और सम्पूर्ण स्थिति उभरकर सामने आती है। राज्यों की पारस्परिक तुलना के लिए तीन दशकों की एक लम्बी अवधि उपलब्ध है, यदि हम यह अवधि वर्ष 1973-74 के अनुमान को लेकर 1999-2000 के अंतिम अनुमान के साथ मिलाकर विचार करें।

आर्थिक विकास का गरीबी कम करने पर पड़ने वाले प्रभाव के संबंध में दो विचारधाराएं हैं। एक दृष्टिकोण यह है कि विकास की वृद्धि से गरीबी कम करने पर प्रभाव पड़ता है और उसी आधार पर यह आशा बनती है कि तेजी से बढ़ रहे राज्यों में गरीबी तेजी से तथा अन्य राज्यों में धीमी गति से घटेगी। इस विचारधारा के अनुसार विकास की दर को काफी गति पकड़नी पड़ेगी तभी आय में उल्लेखनीय वृद्धि होगी तथा गरीबी कम करने के लिए आय के अवसरों की उपलब्धता बढ़ेगी। दूसरा दृष्टिकोण यह है कि यद्यपि आर्थिक प्रगति में गरीबी कम करने की संभावना है, किंतु वृद्धि या विकास को गरीबी कम करने के बराबर समझना सही नहीं हैं, प्रभावशाली सार्वजनिक नीति के हस्तक्षेपों की आवश्यकता है जिससे वृद्धि या विकास की दर को गरीबी के स्तर में कमी लाने के लिए अनुदित किया जा सके। यह हस्तक्षेप इस प्रकार के होने चाहिए कि वे भौतिक एवं सामाजिक अधोसंरचना में सुधार कर सके। इनके प्रभाव से एक तरफ लोगों के लिये सामाजिक अवसर बढ़ेंगे और दूसरी तरफ हर वर्ग और बसाहट के व्यक्ति की उत्पादक सम्पत्तियाँ बढ़ सकें तथा इसके साथ ही उत्पादक अस्तियों तक समान रुप से पहुंच हो सके। अन्यथा, विकास से होने वाला लाभ, गरीब और पिछड़े इलाकों के लोगों को कदाचित नहीं मिलेगा और हो सकता है कि असमानता और भी गंभीर हो जाये।

राज्यों की लम्बी अवधि के चलन में कुछ राज्यों में विकास की दर तथा गरीबी में कमी आने के मध्य धनात्मक संबंध होना प्रतीत होता है। ग्रामीण क्षेत्रों की गरीबी में कुल मिलाकर 33 प्रतिशत से 40 प्रतिशत की उल्लेखनीय गिरावट महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात, आन्ध्रप्रदेश जैसे राज्यों में देखने को मिली है, और इन प्रदेशों में तेज विकास दरें भी पाई गई हैं। मध्यप्रदेश के प्रकरण में साधारण विकास दर के साथ लम्बी अवधि में गरीबी के स्तर में भी कमी साथ-साथ दिखायी पड़ती है। बिहार तथा उड़ीसा दोनों राज्यों ने अपेक्षाकृत कम आर्थिक वृद्धि दर्ज की है और अपेक्षाकृत उस विकास वृद्धि का प्रभाव उन राज्यों में गरीबी में कमी होने पर कम ही पड़ा है।

ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी रेखा से नीचे लोगों का प्रतिशत


राज्य/ केन्द्र शासित प्रदेश

व्यक्तियों का प्रतिशत 1973-74

व्यक्तियों का प्रतिशत 1977-78

व्यक्तियों का प्रतिशत 1983-84

व्यक्तियों का प्रतिशत 1987-88

व्यक्तियों का प्रतिशत 1993.94

व्यक्तियों का प्रतिशत 1999.2000

बिहार

62.99

63.25

64.37

52.63

58.21

44.30

उड़ीसा

67.28

72.38

67.53

57.64

49.72

48.1

उत्तर प्रदेश

56.53

47.6

46.45

41.10

42.28

31.22

मध्य प्रदेश

62.66

62.52

48.90

41.92

40.64

37.06

राजस्थान

44.76

35.9

33.50

33.21

26.46

13.74

आन्ध्र प्रदेश

48.41

38.11

26.53

20.92

15.92

11.05


स्रोत : योजना आयोग, भारत सरकार

प्रो. एम रीन लिखते हैं कि ''लोगों को इतना गरीब नहीं होने देना चाहिए कि उनसे घिन आने लगे या वे समाज के नुकसान पहुंचाने लगें। इस नजरिए में गरीबों के कष्ट और दुखों का नहीं बल्कि समाज की असुविधाओं और लागतों का महत्व अधिक प्रतीत होता है। गरीबी की समस्या उसी सीमा तक चिंतनीय है जहां तक कि उसके कारण, जो गरीब नहीं हों, उन्हें भी समस्यायें भुगतनी पड़ती है।' शायद इस विचार का अर्थ यह है कि गरीब को उस सीमा तक गरीब रहने देना चाहिए जहां तक उसमें प्रतिक्रिया करने की भावना न जागे। इसके लिए उसे इतना भोजन (पोषण नहीं) उपलब्ध करा दिया जाना चाहिए जिससे उसके शरीर में मौजूद भोजन की थैली भरी रहे, हो सके तो तन को कपड़े से ढांका जा सके और वह भीगे न, इसके लिये छप्पर का इंतजाम हो जाये। एक प्रश्न यह भी है कि उसका गरीब रहना भी क्या किसी के हित में हो सकता है? निश्चित रुप से गरीबी में जीवन यापन करने वाला यह समुदाय मजदूर के रुप में सबसे ज्यादा उत्पादक समुदाय की भूमिका निभाता है और सत्ता के लिये यह मतहीन समुदाय मतदाता के रुप में सत्ता प्राप्ति का साधन है। इनकी गरीबी से मुक्त होने का मतलब बहुत ही खतरनाक है। जिस दिन गरीब, गरीबी से मुक्त हो जायेगा उस दिन वह निर्णय लेने लगेगा और अपने अधिकार हासिल करने की प्रक्रिया में शामिल होना चाहेगा; उसे मालूम चल जायेगा कि शोषण की उत्पत्ति उसी के लिये हुई है। मध्यप्रदेश में गरीबों की पहचान का मुद्दा विशेष मायने रखता है क्योंकि यहां 42.52 जनसंख्या गरीबी की रेखा के नीचे रहती है और यह प्रतिशत राष्ट्रीय औसत से कहीं ज्यादा है। वहीं दूसरी ओर यहां सामाजिक मुद्दों के प्रति संवेदनशील रवैया अपनाने वाली सरकार होने के नाते मध्यप्रदेश में एक बार फिर किसी नवाचार की अपेक्षा तो की ही जानी चाहिए। हालांकि अब तक संस्थाओं और मीडिया की सक्रियता के मद्देनजर प्रदेश में सर्वेक्षण से पहले 1997-98 में हुये सर्वेक्षण की कमज़ोरियाँ सामने आई और अपात्रों के सूची में नाम होने के 9000 से ज्यादा ऐसे मामले सामने आये जिनसे पता चला कि गरीबों की पहचान के लिये भी अभी संकट कम नहीं है।

113 गरीबी का एक मापदण्ड कैलौरी उपभोग भी है। वर्तमान सूचक यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों में 2410 कैलोरी (प्रति व्यक्ति व्यय 324.90 रुपए) और शहरी क्षेत्रों में 2070 कैलोरी (प्रति व्यक्ति व्यय 380.70 रुपए) न्यूनतम जरुरत है। योजना आयोग के अनुसार अगर व्यक्ति के पास इतनी आय है कि वह अपनी बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति कर लेता है, और इससे आगे कुछ नहीं तब योजना आयोग के अनुसार गरीब है।

यह बात किसी राज्य विशेष के संदर्भ में नहीं है बल्कि हर उस व्यवस्था के संदर्भ में है जो गरीबी को केवल आर्थिक मापदण्डों या न्यूनतम जरुरतों की पूर्ति के परिप्रेक्ष्य में परिभाषित करती है। भारत में विगत् 30 वर्षों से गरीबी की पहचान करने की प्रक्रिया चल रही है परन्तु विगत् एक दशक में हुये दो सर्वेक्षणों (गरीबी की रेखा का सर्वेक्षण) में इस प्रक्रिया से जुड़ाव बढ़ता गया है। यानी अब यह मामला केवल सरकार और गरीब के बीच का नहीं रहा बल्कि व्यापक नागर समाज (सिविल सोसायटी) को भी इस मुद्दे से अपने सरोकार खोजने पड़े। हर अवस्था की एक निश्चित उम्र होती है और गरीबी भी एक अवस्था के रुप मे भुखमरी के रुप में अपने चरम पर पहुंच रही है। यह वही अवस्था है जहां से समाज मे प्रतिक्रिया के रुप में संघर्ष और टकराव की प्रक्रिया शुरु हो जाती है। समुदाय अपने संगठन बनाकर व्यवस्था को चुनौती देने उठ खड़ा होता है। यही कारण है कि अब गरीबी केवल गरीब से संबंधित नहीं रही है बल्कि इसका गहरा प्रभाव लोकतांत्रिक व्यवस्था पर नकारात्मक रुप में नजर आना शुरु हो गया है। गरीबी के विकास में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका सरकार की समझ, मान्यताओं और नीतियों ने निभाई है। इस अवस्था का हमेशा आर्थिक विपन्नता की मानसिकता से विश्लेषण किया गया, इसे केवल गरीबों से संबंधित माना गया और इसे दूर करने के लिये आय (मजदूरी के अवसर बढ़ाने) में अस्थाई वृद्धि के प्रयासों की नीति अपनाई गई। जिसका परिणाम यह हुआ कि इस अवस्था ने समाज में स्थाई रुप से जड़ें जमा ली। इसकी गंभीरता को ज्यादा से ज्यादा नजर अंदाज करने की कोशिश की गई है।

1997 के बाद एक बार फिर इस वर्ष गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले लोगों की पहचान करने के लिये तकनीकी प्रक्रिया आधारित सर्वेक्षण किया जाने वाला है। उम्मीद तो इस बात की थी कि 1993-94 और 1997-98 में हुये सर्वेक्षणों की खामियों को गरीबों ने जिस तरह भोगा है, उससे इस बार उन्हें मुक्ति मिलेगी परन्तु सरकार के स्तर पर हो रहे प्रयासों से ऐसे कोई आसार नजर आते नहीं हैं। इस सर्वेक्षण की प्रक्रिया को लागू करने से पहले जरुरी था कि सरकार और विशेषज्ञ इस सवाल का संतोषजनक उत्तर खोजने की पहल करें कि क्या गरीबी को वास्तव में केवल आर्थिक विपन्नता के रुप में चिन्हित किया जाना चाहिए था? पिछले सर्वेक्षण के दौरान मानकों के आधार पर यह तय किया गया था कि 1700 रुपए प्रतिमाह या एक वर्ष में 20 हजार रुपए से कम आय अर्जित करने वाला परिवार गरीबी की रेखा के नीचे माना जाता है और इस आय का आकलन इस आधार पर किया जाता है कि वह परिवार औसत रुप से भोजन पर कितना व्यय करता है, उसके घर की बनावट कैसी है, वह किन सुविधाओं का उपयोग करता है जैसे- रेडियो, साइकिल या पंखा। यह आर्थिक सूचक भी विसंगतियों से भरे हुए हैं। गरीबी की इस श्रेणी में केवल उन 22 लाख परिवारों को रखा गया है जिनके पास आधा हेक्टेयर से कम भूमि है। जबकि हकीकत यह है कि पिछले चार वर्षों के सूखे ने सीमान्त कृषक समूहों को दोहरी मार मारी है। मध्यप्रदेश के 9.54 लाख एक हेक्टेयर भूमिधारियों को अति गरीब की श्रेणी मे नहीं रखा गया है।

आर्थिक पहलू से हटकर यदि नजर डालें तो पता चलता है कि गरीबी को मापने में स्वास्थ्य के अधिकार को कहीं कोई तवज्जो ही नहीं दी गई है। वहीं दूसरी ओर सामाजिक संरचना के आधार पर भी इस मुद्दे को पहचानने की अभी तक कहीं कोई कोशिश नहीं की गई है। मध्यप्रदेश में कुल जनसंख्या का 15 प्रतिशत भाग अनुसूचित जाति और 20 प्रतिशत भाग अनुसूचित जनजाति का है। ये दोनों वर्ग सामाजिक स्तर पर गरीबी की अनछुई परिभाषा से जूझने के लिए बाध्य है। काफी संघर्ष के बाद सरकार ने सहरिया आदिवासियों को इस सूची में रखने पर सहमति जताई है। मध्यप्रदेश में दलित अपने दलितपन के कारण नहीं बल्कि लगातार बढ़ती गरीबी के कारण शोषण का सबसे बड़ा शिकार बना है। नये-नये सामाजिक सिद्धांतों और विश्लेषणों ने उसकी स्थिति को ज्यादा खराब बना दिया है। इसी समुदाय के लोग गरीबी के कारण मैला ढोने, कचरा बीनने और देह व्यापार के काम में संलग्न हैं और विडम्बना देखिये कि इन कामों से यदि कोई प्रभावित होता है तो महिलायें या फिर बच्चे। ये वही समस्यायें हैं जो गरीबी के कारण पैदा होती हैं और प्रथा के रुप में समाज की पहचान बन जाती हैं। वहीं आदिवासी समुदाय सरकार की नीतियों और नव धनाढ्यों की रणनीतियों से लगातार असफल संघर्ष करता रहा है। इस असफलता का परिणाम यह हुआ कि प्राकृतिक संसाधनों पर से उसका पारम्परिक नियंत्रण खत्म होता गया और अपनी जड़ों से कटकर वह गरीबी के चंगुल में फंसता गया। यदि हम कुछ भूल रहे हैं तो यह ऐतिहासिक तथ्य फिर से याद कर लेना चाहिए कि गढ़ा मण्डला के गौंड राजाओं का राज्य मध्य भारत के सबसे बड़े क्षेत्र में सबसे लम्बे समय तक फैला रहा। परन्तु स्वतंत्र भारत में भी अंग्रेजों की वही नीति लागू की गई जिसमें प्राथमिकता के साथ आदिवासी को जंगल से बेदखल करना शुरु कर दिया गया। उनकी गरीबी का मूल्यांकन भी उसी आधार पर किया जाता रहा है जिस आधार पर किसी महानगर में किया जाता है यानी वह माह में कितने दिन मांस और शराब का सेवन करता है? जब जंगल में सहजता से उपलब्ध मांस या शराब का मूल्यांकन शहर के मूल्य के आधार पर किया जायेगा तब स्वाभाविक परिणाम यही होता है कि गरीबी के भीषण चक्र में फंसते हुये भी वह अपनी दरिद्रता को सिद्ध नहीं कर पाता है।

कौन तय करता है गरीबी?


भारत में गरीबी की परिभाषा तय करने का अधिकृत दायित्व योजना आयोग को सौंपा गया है। योजना आयोग इस बात से सहमत है कि किसी भी व्यक्ति को अपने जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए न्यूनतम रुप से दो वस्तुयें उपलब्ध होनी ही चाहिए:-

1.संतोषजनक पौष्टिक आहार, सामान्य स्तर का कपड़ा एक उचित ढंग का मकान और अन्य कुछ सामग्रियाँ जो किसी भी परिवार के लिए जरुरी है।

2.न्यूनतम शिक्षा, पीने के लिये स्वच्छ पानी और साफ पर्यावरण। यह राज्य की जिम्मेदारी है कि वह इन बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये जो कुछ भी कर सकती हैं करे।

गरीबी का एक मापदण्ड कैलौरी उपभोग भी है। वर्तमान सूचक यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों में 2410 कैलोरी (प्रति व्यक्ति व्यय 324.90 रुपए) और शहरी क्षेत्रों में 2070 कैलोरी (प्रति व्यक्ति व्यय 380.70 रुपए) न्यूनतम जरुरत है। योजना आयोग के अनुसार अगर व्यक्ति के पास इतनी आय है कि वह अपनी बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति कर लेता है, और इससे आगे कुछ नहीं तब योजना आयोग के अनुसार गरीब है। योजना आयोग ने गरीबी को दो कसौटियों पर देखा है। पहली - कैलोरी का उपभोग, दूसरी- कैलोरी पर खर्च होने वाली न्यनतम आय। इसे दो अवधारणाओं के रुप में प्रस्तुत किया जाता है। गरीबी की रेखा और गरीबी की रेखा के नीचे। वर्तमान स्थिति में यह माना जाता है कि जीवन की बुनियादी जरुरतों को पूरा करने के लिये ग्रामीण क्षेत्रों में 365 रुपए प्रतिव्यक्ति प्रति माह (12 रुपए प्रतिदिन) का उपभोक्ता व्यय होना चाहिये। शहरी क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति मासिक उपभोक्ता व्यय 580 रुपए प्रति व्यक्ति (19 रुपए प्रतिदिन) है।

गरीबी की रेखा- आवश्यक स्तर जिससे लोग अपना पोषण स्तर को पूरा कर सकें, गरीबी की रेखा है।

गरीबी की रेखा के नीचे- वे व्यक्ति जो मनुष्य की पहली बुनियादी आवश्यकता अर्थात् रोटी, कपड़ा और मकान की व्यवस्था नहीं कर सके, वे गरीबी की रेखा के नीचे हैं।

योजना आयोग गरीबी का प्रतिशत जानने के लिये नेशनल सैम्पल सर्वे के सर्वेक्षण का सहारा लेता है। राष्ट्रीय प्रतिवर्ष सर्वेक्षण लोगों के सात दिन के उपभोग को मापकर यह तय करता है कि लोगो को कितनी कैलोरी और आय का उपभोग कर रहे हैं। यह एक विवादास्पद तरीका है।

सर्वोच्च न्यायालय में गरीबी की पहचान


सर्वोच्च न्यायालय के आयुक्त एन. सी. सक्सेना की रिपोर्ट


सूखे एवं जनकल्याणकारी योजनाओं के अप्रभावी क्रियान्वयन के मुद्दे पर पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की है। इसके आधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने समय-समय पर ठोस और स्पष्ट अंतरिम आदेश जारी किये हैं। 8 मई 2002 को जारी एक आदेश में अदालत ने राष्ट्रीय स्तर पर योजनाओं और सरकार के प्रयासों की निगरानी कर उसे अवगत कराने की जिम्मेदारी निभाने के लिये एन.सी. सक्सेना और एस. आर. शंकरन की नियुक्ति की थी। योजना आयोग के पूर्व सचिव एन. सी. सक्सेना ने पूरी जिम्मेदारी के साथ अपने दायित्वों को निभाया है। 3 मार्च 2003 को उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को अपनी दूसरी रिपोर्ट सौंपी। इस रिपोर्ट में आयुक्त ने उल्लेख किया है कि

• सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों के बावजूद कई स्थानों पर उचित प्रक्रिया का पालन कर गरीबों की पहचान का काम नहीं हुआ है।
• गरीबों की पहचान की प्रक्रिया में पारदर्शिता का अभाव है।
• सर्वे करने वाले सूची में नाम दर्ज कराने के लिये गरीबों से रिश्वत मांगते हैं।
• कई जगहों पर सर्वेक्षण की सूचना का प्रचार-प्रसार नहीं हुआ। और सर्वे हो जाने के बाद भी वास्तविक हितग्राहियों के नाम सूची में दर्ज नहीं हैं।
• पंचायत प्रतिनिधियों ने बताया कि इतने कम समय में सर्वे का काम करके सूची नहीं बनाई जा सकती है।
• गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले लोगों को पहचान पत्र सर्वे के कई महीनों बाद तक नहीं मिल पाते हैं। अत: अब जरुरी है कि पहचान पत्र (राशन कार्ड) तुरन्त जारी हों।
• यह जरुरी है कि बीपीएल सर्वेक्षण की असफलता के लिए जिम्मेदारी तय की जायें और उनकी जांच हो।
• पलायन करके जाने वाले और घरविहीन लोगों (जो कि सर्वाधिक जरुरतमंद हैं) को ही सूची में शामिल नहीं किया जा रहा है

सर्वोच्च न्यायालय में गरीबी के पहचान का सवाल


113 न्यायालय ने तात्कालिक रुप से यह माना कि बीपीएल सर्वेक्षण का मुद्दा अहम है क्योंकि केवल सूचीबद्ध परिवारों को ही जनकल्याणकारी योजनाओं का पात्र माना जाता है और उसी के आधार पर सरकार की गरीबी उन्मूलन योजनाओं के लिये धनराशि का आवंटन होता है। याचिकाकर्ता ने न्यायालय को बताया कि सरकार गरीबी रेखा की सूची से कई परिवारों के नाम गलत तरीके से हटा रही है।

राजस्थान में सक्रिय समूहों ने भी प्रत्यक्ष रुप से अनुभव किया कि सरकार गरीबी के स्तर में कमी न होने के बावजूद गरीबी रेखा की सूची को छोटा करती जा रही है। जब विश्लेषण किया गया तो पता चला कि अकेले राजस्थान में दस लाख से ज्यादा परिवार बीपीएल सूची में से बाहर निकाले जा रहे थे। ऐसी स्थिति में भोजन एवं काम का अधिकार सुनिश्चित करने के लिये सर्वोच्च न्यायालय में दायर जनहित याचिका पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज बनाम भारत सरकार एवं अन्य (सिविल प्रकरण 196/2001) के अन्तर्गत न्यायालय से गरीबों की पहचान की प्रक्रिया और तकनीक पर हस्तक्षेप का निवेदन किया गया। न्यायालय ने तात्कालिक रुप से यह माना कि बीपीएल सर्वेक्षण का मुद्दा अहम है क्योंकि केवल सूचीबद्ध परिवारों को ही जनकल्याणकारी योजनाओं का पात्र माना जाता है और उसी के आधार पर सरकार की गरीबी उन्मूलन योजनाओं के लिये धनराशि का आवंटन होता है। याचिकाकर्ता ने न्यायालय को बताया कि सरकार गरीबी रेखा की सूची से कई परिवारों के नाम गलत तरीके से हटा रही है। इस आरोप का सरकार न्यायालय में जवाब नहीं दे पाई और 5 मई 2003 को सर्वोच्च न्यायालय ने स्थगन आदेश दिया कि जब तक इस मामले पर सुनवाई नहीं हो जाती है तब तक किसी भी व्यक्ति/परिवार का नाम बीपीएल सूची में से नहीं हटाया जायेगा। न्यायालय के इस आदेश ने एक तरह से गरीबी की पहचान की प्रक्रिया पर लगे सवाल गहरा बना दिया।

5 मई 2003 के आदेश के बाद भी भारत सरकार और योजना आयोग ने इस मुद्दे को बहुत तवज्जो नहीं दी। याचिकाकर्ता स्पष्ट रुप से मांग कर रहे थे कि सरकार गरीबी रेखा के मामले में सन् 1993-94 का स्तर बनाये रखे और स्वीकार करें कि इस अवधि में दस फीसदी गरीबी कम नहीं हुई है। साथ ही जनकल्याणकारी योजनाओं गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों के लिये बजट आवंटन भी पूर्व के गरीबी स्तर (यानी भारत में 35 फीसदी गरीबी) के अनुरुप हो। भारत सरकार भूमण्डलीकरण के दौर में विश्व व्यापार संगठन की शर्तों के दबाव में यह स्वीकार नहीं कर पा रही थी वास्तव में गरीबी कम होने के बजाय बढ़ रही है। इसी परिप्रेक्ष्य में याचिकाकर्ता (यानी पीयूसीएल और अन्य संगठन) और भारत सरकार के बीच चर्चाओं के कई दौर चले। लगभग 34 महीने तक इस मुद्दे पर कोई निर्णय नहीं हो सका। इस अवधि में राज्य सरकारें लगातार भारत सरकार पर प्रकरण को सुलझाने के लिये दबाव बनाती रहीं क्योंकि पहचाने गये परिवारों को जनकल्याणकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिल पा रहा था। वैसे भी गरीबी की रेखा का सर्वेक्षण पांच वर्ष के अंतराल से होता है किन्तु इस बार विवाद के चलते चार वर्ष तक हितग्राहियों को कोई लाभ न मिल सका। इसके कारण खासतौर पर वे परिवार प्रभावित हुये जो इस बार पहली मर्तबा गरीबी रेखा की सूची में शामिल हुये थे।

अंतत: 14 फरवरी 2006को सर्वोच्च न्यायालय में दोनों पक्ष आपसी सहमति से एक मान्य निष्कर्ष तक पंहुचे; यही सहमति बिन्दु सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के आधार बने :-
• भारत सरकार लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अन्तर्गत वर्ष 1993-94 के गरीबी स्तर, यानी 36 प्रतिशत गरीब परिवार, के आधार पर खाद्यान्न का आवंटन करेगी या फिर जितने परिवारों को राज्य सरकारों द्वारा पहचान कर राशन कार्ड जारी किये गये हैं।
• अगले गरीबी सर्वेक्षण की पद्धति और प्रक्रिया ग्रामीण विकास मंत्रालय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त आयुक्तों के साथ मिलकर तय करेगा।
• अब गरीबी रेखा की सूची में नये नाम जोड़े और अपात्रों के नाम हटाये जा सकते हैं। यह प्रक्रिया लगातार चलती रहेगी। इसके साथ ही 5 मई 2003 को लगाया गया स्थगन निरस्त किया जाता है।

गरीबी की वर्तमान स्थिति


उपभोक्ता व्यय का स्तर एवं पद्धति, 2004-05:-
राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण संगठन (रा.प्र.सर्वे.सं.) सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय द्वारा रा. प्र. सर्वे. 61वां दौर (जुलाई, 2004-जून, 2005) में आयोजित परिवार उपभोक्ता व्यय पर सातवें पंचवर्षीय सर्वेक्षण के आधार पर ''उपभोक्ता व्यय का स्तर एवं पद्धति, 2004-05) सम्बन्धी रिपोर्ट सं. 508 जारी कर दी गई है। सर्वेक्षण के आधार पर प्रकाशित होने वाली सात रिपोर्टों की श्रृंखला में यह प्रथम रिपोर्ट है। यह रिपोर्ट मासिक प्रति व्यक्ति व्यय (या विभिन्न ''एमपीसीई'' श्रेणियां) की विभिन्न श्रेणियों में परिवारों और व्यक्तियों के वितरण का आकार, औसत एमपीसीई, अलग-अलग वस्तु समूहों (14 खाद्य समूह और 18 गैर खाद्य समूहों) का औसत एमपीसीई के ब्यौरे, विभिन्न खाद्यान्न और दालों की प्रति व्यक्ति उपभोग की मात्रा एवं मूल्य, आंकड़ा संग्रहण के लिए विभिन्न संदर्भ अवधि के आधार पर कभी-कभी खरीदी गई वस्तुओं के कुछ समूहों सम्बन्धी प्रति व्यक्ति व्यय के वैकल्पिक अनुमान प्रस्तुत करती है। सभी आंकड़े राज्य/संघशासित क्षेत्रों और ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों के लिए अलग-अलग उपलब्ध कराए गए हैं। सभी नियमित रा.प्र.सर्वे. सर्वेक्षणों की तरह, वर्तमान सर्वेक्षण ने व्यावहारिक रुप से समस्त भारत संघ को कवर किया। इस सर्वेक्षण के अन्तर्गत सभी राज्यों और संघशासित क्षेत्रों को कवर किया गया था। सर्वेक्षण 79298 ग्रामीण और 45346 शहरी परिवारों को कवर करते हुए क्रमश: 7999 गांवों और 4602 शहरी ब्लॉकों में था।

सर्वेक्षण के कुछ निष्कर्षों पर नीचे प्रकाश डाला गया है:-


• 2004-05 में, भारतीय ग्रामीण जनसंख्या का 5 प्रतिशत ''रुपए 0-235'' के बीच मासिक प्रति व्यक्ति उपभोक्ता व्यय (एमपीसीई) वाले परिवारों से संबंधित थी अर्थात् वे उपभोग पर प्रतिदिन प्रति व्यक्ति 8 रुपए से भी कम व्यय कर रहे थे।
• भारतीय ग्रामीण जनसंख्या का अन्य 5 प्रतिशत ''रुपए 235-270'' के बीच मासिक प्रति व्यक्ति व्यय वाले परिवारों से संबंधित था अर्थात्, वे उपभोग पर प्रतिदिन प्रति व्यक्ति लगभग 8-9 रुपए व्यय कर रहे थे।
• भारत की ग्रामीण जनसंख्या का लगभग 5 प्रतिशत का 1155 रुपए या अधिक का मासिक प्रति व्यक्ति उपभोक्ता व्यय (एमपीसीई) था। अन्य 5 प्रतिशत का एमपीसीई 890 रुपए और 1155 रुपए के बीच था।
• भारत की शहरी जनसंख्या का 5 प्रतिशत सबसे निर्धन (प्रति व्यक्ति व्यय स्तर के अनुसार स्थिति) ''रुपए 0-335'' के बीच मासिक उपभोक्ता व्यय प्रति व्यक्ति वाले परिवारों से संबंधित था अर्थात् वे उपभोग पर प्रतिदिन प्रति व्यक्ति 11 रु. से भी कम व्यय कर रहे थे।
• भारतीय शहरी जनसंख्या का अन्य 5 प्रतिशत ''रुपए 335-395'' के बीच मासिक प्रति व्यक्ति व्यय वाले परिवारों से संबंधित था अर्थात् वे उपभोग पर प्रतिदिन प्रति व्यक्ति लगभग 11-13 रु. व्यय कर रहे थे।
• भारत की शहरी जनसंख्या के लगभग 5 प्रतिशत का मासिक प्रति व्यक्ति उपभोक्ता व्यय (एमपीसीई) 2540 रुपए अथवा उससे अधिक था। जनसंख्या के अन्य 5 प्रतिशत का मासिक प्रति व्यक्ति उपभोक्ता व्यय 18880 रुपए तथा 2540 के बीच था।
• 2004-05 मूल्यों पर ग्रामीण भारत में औसत मासिक प्रति व्यक्ति उपभोक्ता व्यय 559 रुपए तथा शहरी भारत में 1052 रुपए था।
• उपभोग पर औसत ग्रामीण भारतीय द्वारा 2004-05 में व्यय किए गए प्रत्येक रुपए में से 55 पैसे खाद्यान्न पर व्यय किए गए। जिसमें से, 18 पैसे अनाज तथा अनाज विकल्पों पर 8 पैसे दुग्ध उत्पादों पर, तथा 5 पैसे पेय पदार्थों, जलपान तथा संसाधित खाद्य पर व्यय किए गए थे।
• उपभोग पर औसत शहरी भारतीय द्वारा 2004-05 में व्यय किए गए प्रत्येक रुपए में से 43 पैसे खाद्यान्न पर व्यय किए गए। जिसमें से, 10 पैसे अनाज तथा अनाज विकल्पों पर, 8 पैसे दुग्ध तथा दुग्ध उत्पादों पर, 6 पैसे पेय पदार्थों, जलपान तथा संसाधित खाद्य पर तथा 4 पैसे सब्जियों पर व्यय किए गए थे।
• ग्रामीण तथा शहरी भारत दोनों में कुल उपभोक्ता व्यय का 10 प्रतिशत ईंधन और प्रकाश पर जबकि कपड़ों, बिस्तर और जूतों पर 5 प्रतिशत खर्च हुआ।
• ग्रामीण भारत में कुल उपभोक्ता व्यय का 7 प्रतिशत तथा शहरी भारत में 5 प्रतिशत चिकित्सा व्यय में लगा।
• ग्रामीण भारत में कुल उपभोक्ता व्यय का 3 प्रतिशत तथा शहरी भारत में 5 प्रतिशत शिक्षा व्यय में लगा।
• ग्रामीण भारत में उपभोक्ता व्यय का 4 प्रतिशत तथा शहरी भारत में 7 प्रतिशत वाहन व्यय में लगा।
• ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति प्रतिमाह उपभोग किए गए अनाज की औसत मात्रा 12.1 किलोग्राम तथा शहरी क्षेत्रों में 9.9 किलोग्राम थी।
• ग्रामीण भारत में प्रति व्यक्ति प्रतिमाह उपभोग किए गए अनाजों का औसत मूल्य 101 रुपए तथा शहरी भारत में 106 रुपए था।
• हरियाणा तथा पंजाब के ग्रामीण क्षेत्रों में कुल उपभोक्ता व्यय का केवल 9 प्रतिशत अनाज पर व्यय हुआ। लेकिन पश्चिम बंगाल और असम के ग्रामीण क्षेत्रों में कुल उपभोक्ता व्यय का अनाज पर व्यय 23 प्रतिशत अथवा अधिक रहा, तथा उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झारखंड और बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में यह व्यय उपभोक्ता व्यय का 27-28 प्रतिशत रहा।
• पंजाब और हरियाणा के शहरी क्षेत्रों में परिवार (उपभोग) बजट का 6-7 प्रतिशत अनाज पर व्यय हुआ, बिहार और उड़ीसा के शहरी क्षेत्रों में यह व्यय 17 प्रतिशत रहा।
• 1972-73 तथा 2004-05 के बीच, कुल उपभोक्ता व्यय में खाद्य का हिस्सा ग्रामीण क्षेत्रों में से 73 प्रतिशत से घटकर 55 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 64 प्रतिशत से घटकर 42 प्रतिशत तक आ गया है। अनाज का हिस्सा ग्रामीण भारत में उपभोक्ता व्यय के 41 प्रतिशत से घटकर 18 प्रतिशत और शहरी दोनों क्षेत्रों में कुल उपभोक्ता व्यय में ईंधन और प्रकाश का हिस्सा 6 प्रतिशत से बढ़कर 10 प्रतिशत हो गया है। ग्रामीण भारत में कुल उपभोक्ता व्यय में कपड़ों का हिस्सा 7-8 प्रतिशत से घटकर 4.5 प्रतिशत तथा शहरी भारत में 5-7 प्रतिशत से घटकर 4 प्रतिशत रह गया है।
• प्रति व्यक्ति प्रतिमाह उपभोग किए गए अनाज की मात्रा 1993-94 और 2004-05 के बीच अर्थात् इस सर्वेक्षण से पूर्ववर्ती दशक में ग्रामीण भारत में 13.4 कि.ग्रा. से घटकर 12.1 कि. ग्रा. तथा शहरी भारत में 10.6 किलोग्राम से घटकर 9.9 किलोग्राम रही है।

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