नवचेतन प्रकाशन

नवचेतन प्रकाशन
वायु प्रदूषण का एक बड़ा कारण खनन
Posted on 09 Feb, 2010 10:49 AM
खदान कोई भी हो, उसके खनिज की धूल चारों ओर फैलती ही है। वह कच्चे माल के ढेर में से तेज हवा के द्वारा, बारूद के धमाकों और भारी मशीनों के कारण हो रही उथल-पुथल से उड़कर सब छा जाती है। धमाके से जहरीला धुआं भी हवा में फैलता है। खदान क्षेत्रों में वायु-प्रदूषण के कारण लोगों को सांस की और आंख की न जाने कितनी तरह की बीमारियां होती हैं। सिलिकोसिस और एस्बेस्टस आदि की धूल सांस द्वारा फेफड़े में पहुंचती है तो
खनन और पानी
Posted on 09 Feb, 2010 10:41 AM
खदानों के मलबे से झरनों और नदियों का पानी दूषित होता है। बारिश के पानी के साथ लोहे के कण और दूसरे जहरीले तत्व पास के जलाशयों में पहुंचते हैं। पानी का गुण बिगड़ता है और वह उपयोग के लायक नहीं रह जाता। खान के पास ही जब खनिजों के शोधन के कारखाने लग जाते हैं तब तो जल प्रदूषण की समस्या और भी गंभीर बन जाती है। अनुपचारित कीचड़ और कूड़ा-करकट सब सीधे पास के जलाशयों में या झरनों में गिरा दिया जाता है। अक्सर
जंगल का कटान
Posted on 08 Feb, 2010 05:30 PM

ज्यादातर खदानें वन क्षेत्रों में हैं। इसका अनिवार्य परिणाम यह है कि वहां के जंगल कटते हैं और भूक्षरण होता है। सुरंग वाली खानों के लिए भी काफी मात्रा में जंगल कटते हैं, क्योंकि सुरंगों की छतों को लट्ठों से सहारा दिया जाता है। गोवा में खानों के लिए पट्टे पर दी गई जमीन कुल जंगल का 43 प्रतिशत है। गोवा, दमन और दीव के वनसंरक्षक ने 1981 में कहा था, “खान के लिए जमीन देते समय पट्टे में कोई शर्त न
खनन
Posted on 08 Feb, 2010 05:10 PM
खदानों का कोई भी इलाका देख लीजिए, यहां से वहां तक एक ही रंग दिखाई देता है। कोयले की खान हो तो सब जगह काला की काला दिखेगा, कच्चे लोहे की बस्तियां लाल ही लाल नजर आएंगी, गेरू और रामरज की खान हो तो सब तरफ एक सफेद चादर बिछी मिलेगी। इन क्षेत्रों में हर जगह उन चीजों के बारीक कणों की परत-सी जम जाती है।
परती परिकथा
Posted on 08 Feb, 2010 04:59 PM
देश की माटी की इस दुर्दशा का वर्णन परती जमीन की बात किए बिना पूरा न होगी। लगातार फौलती बंजर जमीन के ठीक आंकड़े तो नहीं पर इस बारे में काम कर रही दिल्ली की एक संस्था सोसाइटी फार प्रमोशन आफ वेस्टलैंड डेवलपमेंट के अनुमान के अनुसार यह लगभग 10 करोड़ हेक्टेयर है यानी देश की लगभग एक-तिहाई से ज्यादा भूमि पर्यावरण की गंभीर समस्याओं का शिकार है।
बीहड़ सुधार की विशाल योजना
Posted on 08 Feb, 2010 04:51 PM
1971 में शुरू हुई केंद्र सरकार की योजना के अलावा केंद्र ने एक और बड़ा काम हाथ में लिया था। कई लोगों को यह जान कर अचरज होगा कि बीहड़ सुधार की यह योजना कृषि मंत्रालय की नहीं, गृह मंत्रालय की थी। उसकी निगाह में बीहड़ पर्यावरण की नहीं, डाकुओं की समस्या का केंद्र थे। कोई 500 से ज्यादा कुख्यात डाकू यहां तीन राज्यों (मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान) की पुलिस को धता बताकर एक तरह से समानांतर सरकार चला
उजाड़ का फैलाव
Posted on 08 Feb, 2010 04:41 PM
देश की लगभग 8000 हेक्टेयर जमीन हर साल बीहड़ बनती जा रही है। एक अनुमान के अनुसार बीहड़ में सालाना 0.5 प्रतिशत की वृद्धि हो रही है जिस रफ्तार से भूमि सुधार हो रही है उस हिसाब से सुधार कार्यक्रम पूरा करने में 150 साल लगेंगे, तब तक बीहड़ दुगुने हो जाएंगे। इसका अर्थ यह है कि ऊंची जमीन पूरी तरह बह जाएगी।
बीहड़
Posted on 06 Feb, 2010 05:20 PM

भूक्षरण और बीहड़

भीनासर आंदोलन - शायद इसलिए गोचर हरा-भरा है
Posted on 06 Feb, 2010 05:11 PM
लेकिन बिना किसी सरकारी या गैर सरकारी मदद के खुद ही अपनी परंपरा को पहचान कर गोचर भूमि को हरा-भरा करने का जैसा उम्दा आंदोलन बीकानेर (राजस्थान) के भीनासर में प्रारंभ किया गया है वह अद्भुत है। अब राखी के दिन सिर्फ बहनें अपने भाइयों को राखी नहीं बांधती। भाई भी भाइयों को बांधते हैं और एक दूसरे की रक्षा करने का वचन देने के बजाय गांव के गोचर की रक्षा की प्रतिज्ञा दुहराते हैं। दो साल से भीनासर में राखी गां
अपार संभावनाएं
Posted on 06 Feb, 2010 02:04 PM
यों हमारे यहां चरागाह के लिए अपार संभावनाएं हैं जैसे पश्चिमी राजस्थान में ऐसी जमीन बहुत है जो खेती लायक नहीं है। एक सर्वे के अनुसार पश्चिम राजस्थान के 11 जिलों में खेती योग्य परती जमीन 94.7 लाख हेक्टेयर और स्थायी चरागाह के योग्य जमीन 45.6 लाख हेक्टेयर है। इसमें थोड़ा भी सुधार कर लिया जाए तो भी बहुत बड़ी संख्या में पशुधन का गुजारा हो सकता है।
×