Posted on 12 Feb, 2010 04:19 PMगुजरात में कई किसान अपनी सिंचित सफेदा खेती में रासायनिक ऊर्वरकों का उपयोग कर रहे हैं, लेकिन श्री चतुर्वेदी चेताते हुए कहते हैं कि रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल बड़ी सावधानी से करना चाहिए। अकसर लोग मानते हैं कि रासायनिक उर्वरकों और पानी की मात्रा बढ़ने से सफेदे की पैदावार भी बढ़ती है। लेकिन ऊर्वरकों का अति-उपयोग मिट्टी और पेड़ दोनों को भारी क्षति पहुंचा सकता है। हमारे यहां सफेदे के लिए उर्वरकों के
Posted on 12 Feb, 2010 02:46 PMयह लुटेरा पानी के साथ-साथ मिट्टी को भी लूट रहा है पर मामले में भी बहस जारी है। कर्नाटक सरकार की सलाहकार समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि संकर सफेदे के कारण मिट्टी का सत्व बढ़ता है या नहीं, इस बात पर निर्भर है कि संकर सफेदा कैसी मिट्टी में बोया जाता है और कितना घना बोया जाता है। उष्णकटिबंधीय वर्षा वनों को हटाकर लगाया गया सफेदा वर्षावनों की तुलना में कम पोषक तत्व लौटाता है। लेकिन अगर वह कमजोर खेतो
Posted on 12 Feb, 2010 02:39 PMउत्तर प्रदेश के एक वरिष्ठ वन अधिकारी श्री एएन चतुर्वेदी, सफेदे द्वारा ज्यादा पानी खींच लिए जाने के बारे में कहते हैं कि “किसी भी जगह दूसरे पेड़ जितना पानी खींचते हैं, उतने ही सफेदे उतनी ही जगह पर और उतने ही क्षेत्र में उससे ज्यादा पानी खींच लेते हैं। देहरादून के केंद्रीय मृदा व जल संरक्षण शोध केंद्र के श्री आरके गुप्ता बताते हैं कि कम बारिश वाली जगहों पर सफेदे की जड़े ऊपरी सतह से बिलकुल भीतर इस कद
Posted on 12 Feb, 2010 12:06 PMकहा जाता है कि सफेदा हमारे देश में लगभग दो सौ साल पहले दिखाई दिया था। 1790 में टीपू सुल्तान ने कोलार जिले के नंदी पर्वत पर 16 किस्म के सफेदे लगवाए थे। उसकी कुल 500 किस्मों में से 170 को भारत में आजमाया गया और पांच किस्में बड़े पैमाने पर लगाई गईं। सबसे पहले बड़े पैमाने पर 1856 में नीलगिरि पहाड़ पर यूकेलिप्टस ग्लोबुलुस नामक किस्म लगाई गई। शंकर सफेदा या युकेलिप्टस भूटिकोर्निस, जिसे ‘मैसूर गम’ कहते है
Posted on 12 Feb, 2010 11:46 AMविश्व बैंक के अधिकारी वाशिंगटन के अपने अनजान प्रशंसकों के लिए अपने बारे में चाहे जो प्रचार करते रहें, लेकिन यहां कम से कम इस मामले में उनकी साख गिरी है। ये अधिकारी निजी बातचीत में स्वीकार करते हैं कि उन्हें काफी सबक मिल गया है, इसलिए सामाजिक वानिकी के एक प्रमुख अंग के रूप में वे उजड़ चुके वन लगाने पर जोर देने लगे हैं ताकि ईंधन की पूर्ति हो सके। वे जोर देकर बताते हैं कि विश्व बैंक आजकल बंजर वन भूमि
Posted on 12 Feb, 2010 11:10 AMअगर सचमुच ईंधन और चारे की चिंता है और सरकार सबसे ज्यादा गरजमंदों को कुछ फायदा पहुंचाना चाहती है तो फिर ये सारे कार्यक्रम भूमिहीन, छोटे और सीमांत किसानों के लिए चलाने होंगे। विश्व बैंक की मदद से दुनिया भर में चल रहे वन संवर्धन कार्यक्रम के एक सर्वेक्षण में बैंक ने स्वीकार किया है कि इस मामले में वह असफल रहा है। “भूमिहीन लोगों के लिए पर्याप्त ईंधन, छवाई की लकड़ी और चारा उपलब्ध कराना शायद सभी सरकारों
Posted on 12 Feb, 2010 10:57 AMइंटरनेशनल इंस्टिट्यूट फॉर एनवायर्नमेंट एंड डेवलपमेंट ने विश्व बैंक के लिए गुजरात के लकड़ी बाजार का एक अध्ययन किया था। वर्तमान बाजार की मांग अगर निकट भविष्य में पूरी हो जाती है तो इस स्थिति का असर किसानों की वन-खेती पर उलटा पड़ सकता है। इस आशंका से परेशान विश्व बैंक ने अपना सारा ध्यान व्यापारिक लकड़ी की मांग बनाए रखने के लिए नए बाजार ढूंढने पर लगाया है। जैसे शहरी ईंधन की मांग, निर्माण कार्य में लगन
Posted on 12 Feb, 2010 10:52 AM सामाजिक वानिकी का स्वरूप बिगाड़ने का मुख्य कारण है इमारत निर्माण और रेयान और कागज उद्योग के लिए जरूरी लुगदी वाली लकड़ी का शहरी बाजारों में मिलना मुश्किल हो जाना। सरकार ने वन-खेती को जो बढ़ावा दिया और आर्थिक सुविधाओं का जो आश्वासन दिया, उससे बड़े किसानों की पौ बारह हो गई। छोटी अवधि की खेती के बजाय लंबे समय के पेड़ों के खेती करने पर कम मजदूरों से भी काम चल जा
Posted on 12 Feb, 2010 10:45 AMइतना सब होने के बावजूद अनेक शंकाएं और आपत्तियां खड़ी हुई हैं और लगता है कि सफलता का यह दावा बिलकुल ही खोखला है। सबसे पहले कर्नाटक के कोलार जिले के एक अध्ययन से यह रहस्य खुला कि यह सामाजिक वानिकी मात्र एक दिखावा है। असल में यह रेयान मिल्स और प्लाइवुड के कारखानों को लुगदी और कच्चा माल मुहैया करने के लिए उनके लायक पेड़ लगाने का काम था। इस योजना के कारण देखते-ही-देखते दूर-दूर तक की अनाज पैदा करने वाली