खदान कोई भी हो, उसके खनिज की धूल चारों ओर फैलती ही है। वह कच्चे माल के ढेर में से तेज हवा के द्वारा, बारूद के धमाकों और भारी मशीनों के कारण हो रही उथल-पुथल से उड़कर सब छा जाती है। धमाके से जहरीला धुआं भी हवा में फैलता है। खदान क्षेत्रों में वायु-प्रदूषण के कारण लोगों को सांस की और आंख की न जाने कितनी तरह की बीमारियां होती हैं। सिलिकोसिस और एस्बेस्टस आदि की धूल सांस द्वारा फेफड़े में पहुंचती है तो उससे फेफडों की बीमारियां हुआ करती हैं। आंख की बीमारियों में मोतियाबिंद, कंजक्टीवाइटिस, कार्नियल, अल्सर, ग्लूकोमा और स्क्विंट ट्राकोमा मुख्य हैं।
खान मजदूरों में, जिन्हें खनिज की धूल भरी जगहों में काम करना पड़ता है, सांस और आंख की बीमारियां सबसे ज्यादा होती हैं। लेकिन खदानों के आसपास जो लोग बसते हैं और उनमें से भी जिन लोगों का शरीर अन्य रोगों से पहले से दुर्बल हो गया है, उनके लिए भी यह धूल खतरनाक होती है।
सिंहभूम जिले के चाइबासा की ‘रोरो एस्बेस्टस खान’ देश की बड़ी एस्बेस्टस संगठन और खनन निदेशालय द्वारा नवंबर 1978 में किए गए एक सर्वे से यह बात साफ हो गई है कि रोरो खान से न सिर्फ उसके मजदूरों का बल्कि आसपास के इलाकों के निवासियों का भी जीवन खतरे में हैं।
जहां खदानों के अनेक इकाइयां, जैसे-कच्चे माल को दबाने, ठोकने और तोड़ने की इकाइयां, एक साथ होती हैं वहां तो वायु प्रदूषण और भी ज्यादा होने लगता है। दिल्ली-हरियाणा सीमा पर पत्थर की खदानें और गिट्टी तोड़ने की मशीनें एक के बाद एक सटी हुई हैं। फरीदाबाद और बदरपुर के बीच के पूरे इलाके पर सिलिका धूल की घनी परत के कारण धुंध-सी छाई रहती है, दिखाई बहुत कम देता है और सांस लेना भी मुश्किल हो जाता है। 20 हजार मजदूर और उनके परिवार वाले हर सांस के साथ धूल को फांकते हैं, पानी के हर घूंट के साथ उसे पीते हैं हर कौर के साथ उसे निगलते हैं।
बदरपुर में तोड़े जाने वाले पत्थर में 65 प्रतिशत सिलिका धूल होती है। यह धूल लगातार फेफड़े में पहुंचती रहे तो सिलिकोसिस रोग हो सकता है। उसके लक्षण हैं- जलन के साथ खांसी, लंबी सांस न ले पाना और सीने में दर्द। युनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ मेडिकल सांइसेस, नई दिल्ली के डॉ. नीरज सेठी ने उस क्षेत्र के मजदूरों के स्वास्थ्य का अध्ययन किया था। उनके अनुसार बदरपुर क्रशर्स में काम करने वाले मजदूरों के 17 प्रतिशत की सेहत इतनी खराब हो गई है कि सुधरने की कोई आशा नहीं है।
खान खुदाई और उस पर आधारित उद्योगों से उड़ने वाली धूल से खेतों की पैदावार भी घट जाती है। उदय सागर, खामली और चित्तौड़ के आसपास के सीसे और जिंक को तोड़ने वाली इकाइयों, चूना-पत्थर खदानों और सीमेंट कारखानों के कारण वहां की धरती की उपज क्षमता में कमी देखी गई है। वहां खेती की जमीन का काम 70 प्रतिशत तक गिर गया है। सिंहभूमि जिले के झीकपानी स्थित सीमेंट कारखाने के आसपास 10 मील के घेरे में सारे खेत बंजर हो गए हैं। जमीन के ऊपर धूल की मोटी परत छाई हुई है। टोंटो प्रखंड में खेती की पैदावार 600 किलोग्राम प्रति एकड़ से घटकर 200 किलोग्राम के करीब रह गई है। इसी तरह मध्य प्रदेश में कटनी से लेकर मैहर और सतना तक का इलाका सीमेंट कारखानों की बलि चढ़ रहा है और आज भी सरकार इस क्षेत्र में नए कारखाने खोलने के लिए आंखे बंद कर उदार हाथों से लाइसेंस बांट रही है।
खान मजदूरों में, जिन्हें खनिज की धूल भरी जगहों में काम करना पड़ता है, सांस और आंख की बीमारियां सबसे ज्यादा होती हैं। लेकिन खदानों के आसपास जो लोग बसते हैं और उनमें से भी जिन लोगों का शरीर अन्य रोगों से पहले से दुर्बल हो गया है, उनके लिए भी यह धूल खतरनाक होती है।
सिंहभूम जिले के चाइबासा की ‘रोरो एस्बेस्टस खान’ देश की बड़ी एस्बेस्टस संगठन और खनन निदेशालय द्वारा नवंबर 1978 में किए गए एक सर्वे से यह बात साफ हो गई है कि रोरो खान से न सिर्फ उसके मजदूरों का बल्कि आसपास के इलाकों के निवासियों का भी जीवन खतरे में हैं।
जहां खदानों के अनेक इकाइयां, जैसे-कच्चे माल को दबाने, ठोकने और तोड़ने की इकाइयां, एक साथ होती हैं वहां तो वायु प्रदूषण और भी ज्यादा होने लगता है। दिल्ली-हरियाणा सीमा पर पत्थर की खदानें और गिट्टी तोड़ने की मशीनें एक के बाद एक सटी हुई हैं। फरीदाबाद और बदरपुर के बीच के पूरे इलाके पर सिलिका धूल की घनी परत के कारण धुंध-सी छाई रहती है, दिखाई बहुत कम देता है और सांस लेना भी मुश्किल हो जाता है। 20 हजार मजदूर और उनके परिवार वाले हर सांस के साथ धूल को फांकते हैं, पानी के हर घूंट के साथ उसे पीते हैं हर कौर के साथ उसे निगलते हैं।
बदरपुर में तोड़े जाने वाले पत्थर में 65 प्रतिशत सिलिका धूल होती है। यह धूल लगातार फेफड़े में पहुंचती रहे तो सिलिकोसिस रोग हो सकता है। उसके लक्षण हैं- जलन के साथ खांसी, लंबी सांस न ले पाना और सीने में दर्द। युनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ मेडिकल सांइसेस, नई दिल्ली के डॉ. नीरज सेठी ने उस क्षेत्र के मजदूरों के स्वास्थ्य का अध्ययन किया था। उनके अनुसार बदरपुर क्रशर्स में काम करने वाले मजदूरों के 17 प्रतिशत की सेहत इतनी खराब हो गई है कि सुधरने की कोई आशा नहीं है।
खान खुदाई और उस पर आधारित उद्योगों से उड़ने वाली धूल से खेतों की पैदावार भी घट जाती है। उदय सागर, खामली और चित्तौड़ के आसपास के सीसे और जिंक को तोड़ने वाली इकाइयों, चूना-पत्थर खदानों और सीमेंट कारखानों के कारण वहां की धरती की उपज क्षमता में कमी देखी गई है। वहां खेती की जमीन का काम 70 प्रतिशत तक गिर गया है। सिंहभूमि जिले के झीकपानी स्थित सीमेंट कारखाने के आसपास 10 मील के घेरे में सारे खेत बंजर हो गए हैं। जमीन के ऊपर धूल की मोटी परत छाई हुई है। टोंटो प्रखंड में खेती की पैदावार 600 किलोग्राम प्रति एकड़ से घटकर 200 किलोग्राम के करीब रह गई है। इसी तरह मध्य प्रदेश में कटनी से लेकर मैहर और सतना तक का इलाका सीमेंट कारखानों की बलि चढ़ रहा है और आज भी सरकार इस क्षेत्र में नए कारखाने खोलने के लिए आंखे बंद कर उदार हाथों से लाइसेंस बांट रही है।
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