लेकिन बिना किसी सरकारी या गैर सरकारी मदद के खुद ही अपनी परंपरा को पहचान कर गोचर भूमि को हरा-भरा करने का जैसा उम्दा आंदोलन बीकानेर (राजस्थान) के भीनासर में प्रारंभ किया गया है वह अद्भुत है। अब राखी के दिन सिर्फ बहनें अपने भाइयों को राखी नहीं बांधती। भाई भी भाइयों को बांधते हैं और एक दूसरे की रक्षा करने का वचन देने के बजाय गांव के गोचर की रक्षा की प्रतिज्ञा दुहराते हैं। दो साल से भीनासर में राखी गांव के गोचर और पर्यावरण की रक्षा का भी त्योहार हो गया है। देश का शायद यह अकेला गांव है जहां पर्यावरण की रक्षा और चरागाह का विकास रक्षा के वचन के त्यौहार से जुड़ गया है।
हर महीने की 12 तारीख को गांव के लोग अपने दिन भर के कामों से निपट कर रात को रामराज चौक पर जमा होते हैं और गोचर रक्षा का संकल्प दुहराते हुए एक मशाल जुलूस की शक्ल में मुरली मनोहर मंदिर तक जाते हैं। सुबह लोग गोचर की पौधशाला में श्रमदान करते हैं, शाम को सात बजे पूरे गांव में गोचर रक्षा का वचन याद दिलाने के लिए पांच मिनट तक थालियां बजती हैं, विनाश के अंधेरे में लड़ने के लिए पर्यावरण रक्षा का उजाला फैलाने का हर घर में दीप जलता है और कुछ मीलों पूरी गोचर में गंगाजल, गो दूध के साथ ‘कार’ लगाई जात है। कार यानी भवभाधा और विपत्ति से रक्षा के लिए रेखा खींचना। चोर-उचक्कों आदि से घर को बचाने के लिए राजस्थान में सांझ को हर घर में स्त्रियां दूध मिले गंगाजल से कार लगाती हैं। इसी तरीके से अब भीनासर आंदोलन भी पूरी गोचर में कार लगाता है-ताकि उसकी रक्षा हो सके।
पश्चिम राजस्थान में लगभग हर गांव से लगे हुए गोचर हैं। यहां खेती नहीं, पशुपालन लोगों का मुख्य धंधा है और इसलिए गोचर ने परंपरा में एक पवित्र संस्था का रूप ले लिया है। ये गोचर सार्वजनिक यानी सरकारी जमीन पर हैं। राजनीतिकों की जो नई पीढ़ी आई है उसके लिए कुछ भी पवित्र नहीं है और किसी भी पुरानी संस्था का उपयोग उन्हें समझ में नहीं आता। इसलिए उन्होंने वोट और अपने आर्थिक फायदे के लिए गोचर की सरकारी भूमि पर निजी कब्जों को प्रोत्साहित किया है। पश्चिमी राजस्थान में ऐसे कई गोचर मिल जाएंगे जो अब सिर्फ नाम और रेकार्ड में गोचर हैं।
लेकिन भीनासर के गोचर की कहानी कुछ अलग है। वहां कोई बयालिस-तिरयालीस साल पहले सेठ बंसीलाल राठी ने अवधूत विवेकानंदजी को चौमासा करने के लिए बुलाया था। अवधूत भीनासर आ रहे थे तो गांव के बाहर उन्होंने एक खेत में चरने घुसी गाय पर किसान का अत्याचार देखा। उन्होंने सेठ को कहला भेजा कि जिस गांव में गाय पर ऐसा अत्याचार होता है वहां वे चौमासा नहीं करेंगे। सेठ दौड़े गए और अवधूत को मनाकर लाए। तभी तय किया गया कि गांव से लगी काफी जमीन गोचर बना कर छोड़ दी जाए ताकि गायों के चरने पर किसी किसान को नुकसान न हो। गांव में काफी लोग गोचर के लिए अपनी जमीन छोड़ने को तैयार थे। लेकिन बीच में ऐसे खेत और बंजर जमीन भी थी, जिसके मालिक उसे छोड़ना नहीं चाहते थे। आखिर गांव ने तय किया कि कोई 5200 बीघा जमीन पूरी की पूरी गोचर के लिए छोड़ी जाए। जो लोग अपनी जमीन नहीं छोड़ना चाहते थे, उनहें मुआवजे के लिए सेठ बंसीलाल राठी ने दस हजार रुपये दिए। 10 फरवरी, 1942 को बीकानेर राज्य के कागजों में यह गोचर भूमि बाकायदा दर्ज हुई।
भीनासर में खेत या तो इस गोचर भूमि के अगल-बगल हैं या इसके बाद। गायों के लिए छोड़ी गई इस जमीन में खेजड़ी के कई पेड़ लगे हैं और सेवण, थुरट आदि घासें उगती हैं। सींप, बुई, सीणियां आदि की झाड़ियां भी हैं। कोई बयालिस साल से इस गोचर की देखभाल मुरली मनोहर गौशाला करती रही है, जिसे बहत्तर साल पहले सेठ हजारीमल बांठियां ने स्थापित किया था। गौशाला का कामकाज गांव की चुनी हुई समिति देखती है। यानी भीनासर का गोचर सिर्फ सरकार की छोड़ी हुई जमीन नहीं है। उसे गांव ने बाकायदा तय करके गायों के चरने के लिए छोड़ा है और गांव की एक निर्वाचित संस्था उसकी देखभाल करती है। इसलिए जब 1984 में गोचर पर कब्जे होने लगे तो गांव के कई लोगों को यह गलत लगा। कब्जे गांव के बाहर के लोगों ने भी किए थे। मामला बर्दाश्त से बाहर तब हुआ जब गांव के ही एक सेठ जी ने गोचर के बीच से पलाना के लिए जाती सड़क के किनारे बाड़ लगाई और वहां ‘बीस सूत्री कार्यक्रम’ के तहत सफेदे के पन्द्रह हजार पेड़ लगाने का तय किया। सेठ जी के इस कार्यक्रम के साथ दूसरे गांवों के दूसरे लोग भी गोचर भूमि पर बाड़ लगाकर कब्जा करने लगे। यह जानने के लिए कि ये कब्जे सिर्फ घर बनाने या पेड़ लगाने के लिए नहीं, बल्कि दूसरे कारणों के किए जा रहे हैं, गांव के नारायण माली भी जमीन लेने पहुंचे। उनसे कहा गया कि एक बीघे के पांच सौ देने पड़ेंगे।
नारायण माली साठ पार के सफेद बालों वाले खांटी राजस्थानी किसान हैं। उनके बाप-दादों ने भी गोचर के लिए जमीन छोड़ी थी और वे खुद भी मुरली मनोहर गौशाला के जरिए इस गोचर के प्रबंध से जुड़े थे। वे कोई बहुत पढ़े-लिखे जागरूक और आंदोलन करने वाले आदमी नहीं हैं। पर उन्हें समझने में देर नहीं लगी कि दस-बारह किलोमीटर दूर पलाना में लिग्नाइट से चलने वाला बिजलीघर खुलने वाला है। इसलिए उसके रास्ते पर भीनासर की गोचर भूमि कुछ सालों में करोड़ों की हो जाएगी। इसीलिए कब्जे हो रहे हैं। और इसीलिए सेठ जी वहां बीस सूत्री कार्यक्रम के तहत सफेदे के पन्द्रह हजार पेड़ लगा रहे हैं। जब ये पेड़ लगकर बड़े लगकर बड़े हो जाएंगे तो जमीन भी उनकी हो जाएगी।
इन कब्जों और इनके भावी खतरों से गांव को आगाह करने के लिए नारायण माली घर-घर अलख जगाने लगे। शुरू में गांव के लोगों ने उनकी कोई खास सुनी नहीं। पत्रकार शुभू पटवा भी जो बाद में इस आंदोलन में आगे आए, शुरू में नारायण माली की बात सिर्फ सुन लेते थे। लेकिन नारायण माली की बात जोर पकड़ने लगी और गांव के लोग आखिर 11 अगस्त, 1984 को मुरली मनोहर मंदिर में इकट्ठे हुए। काफी उत्तेजना में बैठक चली। बैठक देर रात चली और कुठ लोगों ने जाकर प्रतीक रूप में बाड़ जलाई और सफेदे के पौधे भी उखाड़ दिए। दूसरे दिन सेठ जी ने गंगाशहर पुलिस थाने में छह लोगों के खिलाफ रपट दर्ज कराई कि उन लोगों ने उनकी निजी जमीन की बाड़ में आग लगाई।
तेरह अगस्त को गांव वालों ने मौन जुलूस निकाला और दस किलोमीटर दूर जिला मुख्यालय पहुंच कर गोचर भूमि पर कब्जे की शिकायत की। 15 अगस्त का फिर एक प्रतिनिधिमंडल जिलाधीश से मिला। वहां तत्कालीन पर्यटन राज्यमंत्री भी थे तो उन्हें सारी घटना का विवरण दिया गया। मंत्री और जिलाधीश ने कानून के तहत कार्रवाई करने और दोषी को दंड देने का आश्वासन दिया। 16 अगस्त को प्रशासन ने पुलिस और कर्मचारी भेज कर सारे कब्जे हटा दिए। और सफेदे के पौधे भी उखाड़ दिए। इस तरह 11 अगस्त की रात लोगों ने जो सीधी कार्रवाई की थी, उसे प्रशासन ने 16 अगस्त को पूरा किया। गोचर भूमि से कब्जे और सफेदे के पौधे हट गए।
बाड़ और सफेदे के पौधे हटने की कार्रवाई चूंकि रक्षाबंधन के दिन हुई थी इसलिए राखी का त्यौहार गोचर और पर्यावरण की रक्षा और विकास का दिन बन गया। इसलिए खेजड़ी के पौधों की नर्सरी बनाई जिसके जरिए कोई एक लाख पौधे गोचर और उसके आसपास लगाए जाएं। खेजड़ी को थार का कल्पवृक्ष कहा जाता है। यह ठीक है कि खेजड़ी सफेदे की तरह तेजी से नहीं उगती लेकिन पत्ते चारे के काम आते हैं, फली की सब्जी-सागंरी-बनती है, छाल दवा के काम आती है और उसकी टहनियां जलावन का काम देती हैं। उसकी छाया सिर्फ लोगों और ढोरों को ही गर्मी और लू से नहीं बचाती, खेजड़ी के नीचे खेती भी अच्छी होती है। आखिर प्रकृति ने इस कल्पवृक्ष को वहां इसलिए विकसित किया कि वह सबके काम का है और वहां की जलवायु की रक्षा करता है। प्रकृति ने खेजड़ी के बजाय सफेदा नहीं उगाया। प्रकृति अपनी रक्षा करना जानती है।
चूंकि सफेदा नाजायज कब्जे और गोचर भूमि के व्यावसायिक शोषण का प्रतीक बन गया था, इसलिए खिलाफ खेजड़ी को बढ़ावा देना भी भीनासर आंदोलन का अंग बन गया। भीनासर का आंदोलन सफेदे के खिलाफ आंदोलन माना जाता है। लेकिन दरअसल भीनासर सफेदे के खिलाफ आंदोलन नहीं है। यह गोचर जैसी अपनी पुरानी और अर्थवान संस्था की रक्षा करने और रेगिस्तान को फैलने से रोकने के लिए रेगिस्तानी घास और खेजड़ी जैसे पेड़ लगाने का आंदोलन है। एक लाइन में कहें तो यह गांव के पुनर्जागरण का आंदोलन है। भीनासर एक बार फिर बता रहा है कि ऐसी समस्याओं के हल तकनीक में, बेहतर प्रबंध में नहीं बल्कि अपनी परंपरागत सामाजिक, सांस्कृतिक धरोहर को पहचानने में हैं।
हर महीने की 12 तारीख को गांव के लोग अपने दिन भर के कामों से निपट कर रात को रामराज चौक पर जमा होते हैं और गोचर रक्षा का संकल्प दुहराते हुए एक मशाल जुलूस की शक्ल में मुरली मनोहर मंदिर तक जाते हैं। सुबह लोग गोचर की पौधशाला में श्रमदान करते हैं, शाम को सात बजे पूरे गांव में गोचर रक्षा का वचन याद दिलाने के लिए पांच मिनट तक थालियां बजती हैं, विनाश के अंधेरे में लड़ने के लिए पर्यावरण रक्षा का उजाला फैलाने का हर घर में दीप जलता है और कुछ मीलों पूरी गोचर में गंगाजल, गो दूध के साथ ‘कार’ लगाई जात है। कार यानी भवभाधा और विपत्ति से रक्षा के लिए रेखा खींचना। चोर-उचक्कों आदि से घर को बचाने के लिए राजस्थान में सांझ को हर घर में स्त्रियां दूध मिले गंगाजल से कार लगाती हैं। इसी तरीके से अब भीनासर आंदोलन भी पूरी गोचर में कार लगाता है-ताकि उसकी रक्षा हो सके।
पश्चिम राजस्थान में लगभग हर गांव से लगे हुए गोचर हैं। यहां खेती नहीं, पशुपालन लोगों का मुख्य धंधा है और इसलिए गोचर ने परंपरा में एक पवित्र संस्था का रूप ले लिया है। ये गोचर सार्वजनिक यानी सरकारी जमीन पर हैं। राजनीतिकों की जो नई पीढ़ी आई है उसके लिए कुछ भी पवित्र नहीं है और किसी भी पुरानी संस्था का उपयोग उन्हें समझ में नहीं आता। इसलिए उन्होंने वोट और अपने आर्थिक फायदे के लिए गोचर की सरकारी भूमि पर निजी कब्जों को प्रोत्साहित किया है। पश्चिमी राजस्थान में ऐसे कई गोचर मिल जाएंगे जो अब सिर्फ नाम और रेकार्ड में गोचर हैं।
लेकिन भीनासर के गोचर की कहानी कुछ अलग है। वहां कोई बयालिस-तिरयालीस साल पहले सेठ बंसीलाल राठी ने अवधूत विवेकानंदजी को चौमासा करने के लिए बुलाया था। अवधूत भीनासर आ रहे थे तो गांव के बाहर उन्होंने एक खेत में चरने घुसी गाय पर किसान का अत्याचार देखा। उन्होंने सेठ को कहला भेजा कि जिस गांव में गाय पर ऐसा अत्याचार होता है वहां वे चौमासा नहीं करेंगे। सेठ दौड़े गए और अवधूत को मनाकर लाए। तभी तय किया गया कि गांव से लगी काफी जमीन गोचर बना कर छोड़ दी जाए ताकि गायों के चरने पर किसी किसान को नुकसान न हो। गांव में काफी लोग गोचर के लिए अपनी जमीन छोड़ने को तैयार थे। लेकिन बीच में ऐसे खेत और बंजर जमीन भी थी, जिसके मालिक उसे छोड़ना नहीं चाहते थे। आखिर गांव ने तय किया कि कोई 5200 बीघा जमीन पूरी की पूरी गोचर के लिए छोड़ी जाए। जो लोग अपनी जमीन नहीं छोड़ना चाहते थे, उनहें मुआवजे के लिए सेठ बंसीलाल राठी ने दस हजार रुपये दिए। 10 फरवरी, 1942 को बीकानेर राज्य के कागजों में यह गोचर भूमि बाकायदा दर्ज हुई।
भीनासर में खेत या तो इस गोचर भूमि के अगल-बगल हैं या इसके बाद। गायों के लिए छोड़ी गई इस जमीन में खेजड़ी के कई पेड़ लगे हैं और सेवण, थुरट आदि घासें उगती हैं। सींप, बुई, सीणियां आदि की झाड़ियां भी हैं। कोई बयालिस साल से इस गोचर की देखभाल मुरली मनोहर गौशाला करती रही है, जिसे बहत्तर साल पहले सेठ हजारीमल बांठियां ने स्थापित किया था। गौशाला का कामकाज गांव की चुनी हुई समिति देखती है। यानी भीनासर का गोचर सिर्फ सरकार की छोड़ी हुई जमीन नहीं है। उसे गांव ने बाकायदा तय करके गायों के चरने के लिए छोड़ा है और गांव की एक निर्वाचित संस्था उसकी देखभाल करती है। इसलिए जब 1984 में गोचर पर कब्जे होने लगे तो गांव के कई लोगों को यह गलत लगा। कब्जे गांव के बाहर के लोगों ने भी किए थे। मामला बर्दाश्त से बाहर तब हुआ जब गांव के ही एक सेठ जी ने गोचर के बीच से पलाना के लिए जाती सड़क के किनारे बाड़ लगाई और वहां ‘बीस सूत्री कार्यक्रम’ के तहत सफेदे के पन्द्रह हजार पेड़ लगाने का तय किया। सेठ जी के इस कार्यक्रम के साथ दूसरे गांवों के दूसरे लोग भी गोचर भूमि पर बाड़ लगाकर कब्जा करने लगे। यह जानने के लिए कि ये कब्जे सिर्फ घर बनाने या पेड़ लगाने के लिए नहीं, बल्कि दूसरे कारणों के किए जा रहे हैं, गांव के नारायण माली भी जमीन लेने पहुंचे। उनसे कहा गया कि एक बीघे के पांच सौ देने पड़ेंगे।
नारायण माली साठ पार के सफेद बालों वाले खांटी राजस्थानी किसान हैं। उनके बाप-दादों ने भी गोचर के लिए जमीन छोड़ी थी और वे खुद भी मुरली मनोहर गौशाला के जरिए इस गोचर के प्रबंध से जुड़े थे। वे कोई बहुत पढ़े-लिखे जागरूक और आंदोलन करने वाले आदमी नहीं हैं। पर उन्हें समझने में देर नहीं लगी कि दस-बारह किलोमीटर दूर पलाना में लिग्नाइट से चलने वाला बिजलीघर खुलने वाला है। इसलिए उसके रास्ते पर भीनासर की गोचर भूमि कुछ सालों में करोड़ों की हो जाएगी। इसीलिए कब्जे हो रहे हैं। और इसीलिए सेठ जी वहां बीस सूत्री कार्यक्रम के तहत सफेदे के पन्द्रह हजार पेड़ लगा रहे हैं। जब ये पेड़ लगकर बड़े लगकर बड़े हो जाएंगे तो जमीन भी उनकी हो जाएगी।
इन कब्जों और इनके भावी खतरों से गांव को आगाह करने के लिए नारायण माली घर-घर अलख जगाने लगे। शुरू में गांव के लोगों ने उनकी कोई खास सुनी नहीं। पत्रकार शुभू पटवा भी जो बाद में इस आंदोलन में आगे आए, शुरू में नारायण माली की बात सिर्फ सुन लेते थे। लेकिन नारायण माली की बात जोर पकड़ने लगी और गांव के लोग आखिर 11 अगस्त, 1984 को मुरली मनोहर मंदिर में इकट्ठे हुए। काफी उत्तेजना में बैठक चली। बैठक देर रात चली और कुठ लोगों ने जाकर प्रतीक रूप में बाड़ जलाई और सफेदे के पौधे भी उखाड़ दिए। दूसरे दिन सेठ जी ने गंगाशहर पुलिस थाने में छह लोगों के खिलाफ रपट दर्ज कराई कि उन लोगों ने उनकी निजी जमीन की बाड़ में आग लगाई।
तेरह अगस्त को गांव वालों ने मौन जुलूस निकाला और दस किलोमीटर दूर जिला मुख्यालय पहुंच कर गोचर भूमि पर कब्जे की शिकायत की। 15 अगस्त का फिर एक प्रतिनिधिमंडल जिलाधीश से मिला। वहां तत्कालीन पर्यटन राज्यमंत्री भी थे तो उन्हें सारी घटना का विवरण दिया गया। मंत्री और जिलाधीश ने कानून के तहत कार्रवाई करने और दोषी को दंड देने का आश्वासन दिया। 16 अगस्त को प्रशासन ने पुलिस और कर्मचारी भेज कर सारे कब्जे हटा दिए। और सफेदे के पौधे भी उखाड़ दिए। इस तरह 11 अगस्त की रात लोगों ने जो सीधी कार्रवाई की थी, उसे प्रशासन ने 16 अगस्त को पूरा किया। गोचर भूमि से कब्जे और सफेदे के पौधे हट गए।
बाड़ और सफेदे के पौधे हटने की कार्रवाई चूंकि रक्षाबंधन के दिन हुई थी इसलिए राखी का त्यौहार गोचर और पर्यावरण की रक्षा और विकास का दिन बन गया। इसलिए खेजड़ी के पौधों की नर्सरी बनाई जिसके जरिए कोई एक लाख पौधे गोचर और उसके आसपास लगाए जाएं। खेजड़ी को थार का कल्पवृक्ष कहा जाता है। यह ठीक है कि खेजड़ी सफेदे की तरह तेजी से नहीं उगती लेकिन पत्ते चारे के काम आते हैं, फली की सब्जी-सागंरी-बनती है, छाल दवा के काम आती है और उसकी टहनियां जलावन का काम देती हैं। उसकी छाया सिर्फ लोगों और ढोरों को ही गर्मी और लू से नहीं बचाती, खेजड़ी के नीचे खेती भी अच्छी होती है। आखिर प्रकृति ने इस कल्पवृक्ष को वहां इसलिए विकसित किया कि वह सबके काम का है और वहां की जलवायु की रक्षा करता है। प्रकृति ने खेजड़ी के बजाय सफेदा नहीं उगाया। प्रकृति अपनी रक्षा करना जानती है।
चूंकि सफेदा नाजायज कब्जे और गोचर भूमि के व्यावसायिक शोषण का प्रतीक बन गया था, इसलिए खिलाफ खेजड़ी को बढ़ावा देना भी भीनासर आंदोलन का अंग बन गया। भीनासर का आंदोलन सफेदे के खिलाफ आंदोलन माना जाता है। लेकिन दरअसल भीनासर सफेदे के खिलाफ आंदोलन नहीं है। यह गोचर जैसी अपनी पुरानी और अर्थवान संस्था की रक्षा करने और रेगिस्तान को फैलने से रोकने के लिए रेगिस्तानी घास और खेजड़ी जैसे पेड़ लगाने का आंदोलन है। एक लाइन में कहें तो यह गांव के पुनर्जागरण का आंदोलन है। भीनासर एक बार फिर बता रहा है कि ऐसी समस्याओं के हल तकनीक में, बेहतर प्रबंध में नहीं बल्कि अपनी परंपरागत सामाजिक, सांस्कृतिक धरोहर को पहचानने में हैं।
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