उत्तर प्रदेश के एक वरिष्ठ वन अधिकारी श्री एएन चतुर्वेदी, सफेदे द्वारा ज्यादा पानी खींच लिए जाने के बारे में कहते हैं कि “किसी भी जगह दूसरे पेड़ जितना पानी खींचते हैं, उतने ही सफेदे उतनी ही जगह पर और उतने ही क्षेत्र में उससे ज्यादा पानी खींच लेते हैं। देहरादून के केंद्रीय मृदा व जल संरक्षण शोध केंद्र के श्री आरके गुप्ता बताते हैं कि कम बारिश वाली जगहों पर सफेदे की जड़े ऊपरी सतह से बिलकुल भीतर इस कदर फैल जाती है कि ऊपर बूंद भर नमी भी रहने नहीं देतीं। कर्नाटक सलाहाकार समिति की रिपोर्ट भी इससे सहमत होकर कहती है कि एक जगह से दूसरी जगह पानी ले जाने में भी पानी का क्षय होता है। और कुछ पानी वापस मिट्टी में समा जाता है। उसका भी हिसाब जोड़कर देखना होगा कि कुल पानी की खपत कितनी होती है।
जहां तक सफेदे द्वारा भूमिगत जल स्तर नीचा होने का सवाल है, इस समिति का कहना है कि संकर सफेदे की जड़े 3-4 मीटर से ज्यादा नीचे नहीं जाती है और न 1.5 मीटर से ज्यादा फैलती है। इसका अर्थ यह कि संकर सफेदा वहीं पानी काम में लेता है जो ऊपरी सतह पर रिसाव से मिलता है, ज्यादा निचली सतह के भूमिगत जल तक वह पहुंचता नहीं है। ऐसी हालत में यह कहना गलत होगा कि सफेदे से भूमिगत जलस्रोत सूखते हैं, कुएं खाली होते हैं। इसके दूसरे कई कारण हो सकते हैं, जैसे-सिंचाई के पंपों की संख्या में भारी बढ़ोतरी, एक-दो साल तक लगातार सूखा पड़ना, बड़ी संख्या में सघन पेड़ लगाना।
मिसाल के तौर पर, होसकोट (कर्नाटक) ताल्लुके के देवनहल्ली गांव में पिछले छह सालों में सिंचाई के नलकूप दुगुने हो गए हैं। कोलार जिले के अनेक भागों में भी इसी प्रकार भारी मात्रा में भूमिगत पानी खींचा जा रहा है। श्री एएन चतुर्वेदी कहते हैं कि उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र में भी, जिसके बारे में बताया जाता है कि सफेदे के पेड़ो का कारण भूमिगत जल का स्तर नीचा हो गया, नलकूपों की भरमार हो गई है।
‘हिंदू’ अखबार में सितंबर 1983 में कून्नूर के युकेलिप्टस रिसर्च सेंटर के श्री आरएम राय ने लिखा था कि यह सच है कि नीलगिरी पहाड़ों में मूल ‘शोला’ जंगल काट देने के बाद झरने सूख गए, ‘लेकिन इसका दोष केवल सफेदे पर मढ़ना ठीक नहीं है। सफेदे के पेड़ों से तो निचली सतह के पानी के पुनरावर्तन में मदद ही मिलती बशर्तें उसकी जड़े पत्तों को जमीन पर ही पड़े रहने और सड़कर मिट्टी में मिलने देते। लेकिन नीलगिरी का तेल निकालने के लिए सारे पत्ते बटोर लिए जाते हैं। मैदानों में आम लोग उन पत्तों और टहनियों को जलाने के लिए ले जाते हैं। ऐसे हालत में वे पत्ते न पानी को सोख पाते हैं न नीचे के सतह तक पानी पहुंचा पाते हैं।”
वन विभाग वाले अकसर नीलगिरी हिल्स में 1972 में हुए उस अध्ययन का हवाला दिया करते हैं जिसमें कहा गया है ‘यूकेलिप्टस ग्लोबुलस’ के लिए जितना पानी दिया जाता है वह 34.75 सेंमी. बारिश के पानी के बराबर होता है जबकि उतने ही क्षेत्र के आलू की फसल में 65 सेमी. बारिश जरूरी होती है। देहरादून के नव शोध संस्थान के श्री एचएन माथुर कहते हैं, “पानी के अभाव का असली कारण अनाज की खेती है, सफेद के पेड़ नहीं। खेती की फसलों जैसे गेहूं, धान, गन्ना और ज्वार के लिए क्रमशः 38 सें.मी. 104 सें.मी., 163 सें.मी. और 64 सें.मी. और 64 से.मी. पानी चाहिए।” श्री कालीदास पटेल गुजरात में सफेदा की खेती करने वाले अग्रणी किसानों में हैं। पानी की कमी के कारण कपास की खेती करना छोड़कर वे सफेदे की खेती करने लगे क्योंकि कपास में बहुत ज्यादा पानी लगता है। उनका दावा है कि अब सफेदे की खेती के कारण उस क्षेत्र में पानी की सतह स्थिर हो गई है।
श्री पटेल का यह भी कहना है कि पड़ोसी के खेतों की तुलना में सफेदे के खेतों में पानी सोख लेने की शक्ति ज्यादा आ गई है क्योंकि सफेदे की जड़ें मिट्टी को तोड़ती हैं जिससे पानी का रिसाव बढ़ता है। 1976 में एक रात 12 इंच पानी पड़ा और श्री पटेल के खेत में खूब पानी जमा हुआ, लेकिन घंटे भर में ही सारा पानी जमीन में समा गया। पर पड़ोस के खेतों में बारिश के बाद तीन-चार दिन तक पानी खड़ा रहा।
लेकिन श्री बंद्योपाध्याय कहते हैं कि प्रचलित संकर सफेदे की किस्में अधसूखे, कम पानी वाले इलाकों के लिए बिलकुल ठीक नहीं है। वे अनेक दृष्टांत देकर साबित करते हैं कि, उस किस्म का सफेदा आमतौर पर आस्ट्रेलिया के पूर्वी तट पर पाया जाता है जहां 700 से 1200 मि.मी. तक बारिश होती है। यूनस्को का एक प्रकाशन भी यही कहता है। संकर सफेदा में बारिश वाले इलाके में अपनी पानी की जरूरत जड़ों के अपने जाल दूर-दूर तक फैलाकर भूमिगत स्रोतों से पूरी करता है। कहीं-कहीं तो उसकी जड़े 10-12 मीटर दूर तक फैलती हैं। ये जड़े बाकी मिट्टी की नमी के लिए खूब होड़ लगाती है और सिंचाई वाले इलाकों को छोड़कर बाकी सब जगह, जमीन पर दूसरे किसी पौधे या फसल को पनपने नहीं देतीं।
श्री बंधोपाध्याय आगे कहते हैं,-“सफेदा केवल पानी की अपनी मांग के कारण ही स्रोत को बिगाड़ता हो ऐसा नहीं है।” वह बारिश के पानी को बहुत कम रोकता है, पूरा जज्ब होने नहीं देता, बौछार की मार से मिट्टी को बचा नहीं पाता और इसलिए पानी के साथ मिट्टी भी बह जाती है। ऊटी के एक अध्ययन में पाया गया है कि सफेदे में पानी को रोक रखने की क्षमता केवल 2.9 प्रतिशत है जबकि कीकर में 21.5 प्रतिशत और शोला वन में 33.8 प्रतिशत है। श्री बंद्योपाध्याय कहते हैं, “पानी को थाम सकने की क्षमता में इस कमी के कारण सफेदे का पेड़ पानी और मिट्टी का बहाव बढ़ता ही है।”
अलग-अलग वातावरण में अलग-अलग किस्म के सफेदे से जल संतुलन पर पड़ने वाले प्रभावों का अभी कोई ठीक अध्ययन नहीं किया गया है। वन अनुसंधान का काम वन विभाग के अधीन है, इसलिए ऐसे अनुसंधान करना और सही जवाब खोजना उसकी जिम्मेदारी है। लेकिन दुर्भाग्य से वन-अधिकारी सफेदे के साथ जुड़ गए हैं। इसलिए आवश्यक अनुसंधानों के कामों को एकदम भुला ही दिया गया है।
जहां तक सफेदे द्वारा भूमिगत जल स्तर नीचा होने का सवाल है, इस समिति का कहना है कि संकर सफेदे की जड़े 3-4 मीटर से ज्यादा नीचे नहीं जाती है और न 1.5 मीटर से ज्यादा फैलती है। इसका अर्थ यह कि संकर सफेदा वहीं पानी काम में लेता है जो ऊपरी सतह पर रिसाव से मिलता है, ज्यादा निचली सतह के भूमिगत जल तक वह पहुंचता नहीं है। ऐसी हालत में यह कहना गलत होगा कि सफेदे से भूमिगत जलस्रोत सूखते हैं, कुएं खाली होते हैं। इसके दूसरे कई कारण हो सकते हैं, जैसे-सिंचाई के पंपों की संख्या में भारी बढ़ोतरी, एक-दो साल तक लगातार सूखा पड़ना, बड़ी संख्या में सघन पेड़ लगाना।
मिसाल के तौर पर, होसकोट (कर्नाटक) ताल्लुके के देवनहल्ली गांव में पिछले छह सालों में सिंचाई के नलकूप दुगुने हो गए हैं। कोलार जिले के अनेक भागों में भी इसी प्रकार भारी मात्रा में भूमिगत पानी खींचा जा रहा है। श्री एएन चतुर्वेदी कहते हैं कि उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र में भी, जिसके बारे में बताया जाता है कि सफेदे के पेड़ो का कारण भूमिगत जल का स्तर नीचा हो गया, नलकूपों की भरमार हो गई है।
‘हिंदू’ अखबार में सितंबर 1983 में कून्नूर के युकेलिप्टस रिसर्च सेंटर के श्री आरएम राय ने लिखा था कि यह सच है कि नीलगिरी पहाड़ों में मूल ‘शोला’ जंगल काट देने के बाद झरने सूख गए, ‘लेकिन इसका दोष केवल सफेदे पर मढ़ना ठीक नहीं है। सफेदे के पेड़ों से तो निचली सतह के पानी के पुनरावर्तन में मदद ही मिलती बशर्तें उसकी जड़े पत्तों को जमीन पर ही पड़े रहने और सड़कर मिट्टी में मिलने देते। लेकिन नीलगिरी का तेल निकालने के लिए सारे पत्ते बटोर लिए जाते हैं। मैदानों में आम लोग उन पत्तों और टहनियों को जलाने के लिए ले जाते हैं। ऐसे हालत में वे पत्ते न पानी को सोख पाते हैं न नीचे के सतह तक पानी पहुंचा पाते हैं।”
वन विभाग वाले अकसर नीलगिरी हिल्स में 1972 में हुए उस अध्ययन का हवाला दिया करते हैं जिसमें कहा गया है ‘यूकेलिप्टस ग्लोबुलस’ के लिए जितना पानी दिया जाता है वह 34.75 सेंमी. बारिश के पानी के बराबर होता है जबकि उतने ही क्षेत्र के आलू की फसल में 65 सेमी. बारिश जरूरी होती है। देहरादून के नव शोध संस्थान के श्री एचएन माथुर कहते हैं, “पानी के अभाव का असली कारण अनाज की खेती है, सफेद के पेड़ नहीं। खेती की फसलों जैसे गेहूं, धान, गन्ना और ज्वार के लिए क्रमशः 38 सें.मी. 104 सें.मी., 163 सें.मी. और 64 सें.मी. और 64 से.मी. पानी चाहिए।” श्री कालीदास पटेल गुजरात में सफेदा की खेती करने वाले अग्रणी किसानों में हैं। पानी की कमी के कारण कपास की खेती करना छोड़कर वे सफेदे की खेती करने लगे क्योंकि कपास में बहुत ज्यादा पानी लगता है। उनका दावा है कि अब सफेदे की खेती के कारण उस क्षेत्र में पानी की सतह स्थिर हो गई है।
श्री पटेल का यह भी कहना है कि पड़ोसी के खेतों की तुलना में सफेदे के खेतों में पानी सोख लेने की शक्ति ज्यादा आ गई है क्योंकि सफेदे की जड़ें मिट्टी को तोड़ती हैं जिससे पानी का रिसाव बढ़ता है। 1976 में एक रात 12 इंच पानी पड़ा और श्री पटेल के खेत में खूब पानी जमा हुआ, लेकिन घंटे भर में ही सारा पानी जमीन में समा गया। पर पड़ोस के खेतों में बारिश के बाद तीन-चार दिन तक पानी खड़ा रहा।
लेकिन श्री बंद्योपाध्याय कहते हैं कि प्रचलित संकर सफेदे की किस्में अधसूखे, कम पानी वाले इलाकों के लिए बिलकुल ठीक नहीं है। वे अनेक दृष्टांत देकर साबित करते हैं कि, उस किस्म का सफेदा आमतौर पर आस्ट्रेलिया के पूर्वी तट पर पाया जाता है जहां 700 से 1200 मि.मी. तक बारिश होती है। यूनस्को का एक प्रकाशन भी यही कहता है। संकर सफेदा में बारिश वाले इलाके में अपनी पानी की जरूरत जड़ों के अपने जाल दूर-दूर तक फैलाकर भूमिगत स्रोतों से पूरी करता है। कहीं-कहीं तो उसकी जड़े 10-12 मीटर दूर तक फैलती हैं। ये जड़े बाकी मिट्टी की नमी के लिए खूब होड़ लगाती है और सिंचाई वाले इलाकों को छोड़कर बाकी सब जगह, जमीन पर दूसरे किसी पौधे या फसल को पनपने नहीं देतीं।
श्री बंधोपाध्याय आगे कहते हैं,-“सफेदा केवल पानी की अपनी मांग के कारण ही स्रोत को बिगाड़ता हो ऐसा नहीं है।” वह बारिश के पानी को बहुत कम रोकता है, पूरा जज्ब होने नहीं देता, बौछार की मार से मिट्टी को बचा नहीं पाता और इसलिए पानी के साथ मिट्टी भी बह जाती है। ऊटी के एक अध्ययन में पाया गया है कि सफेदे में पानी को रोक रखने की क्षमता केवल 2.9 प्रतिशत है जबकि कीकर में 21.5 प्रतिशत और शोला वन में 33.8 प्रतिशत है। श्री बंद्योपाध्याय कहते हैं, “पानी को थाम सकने की क्षमता में इस कमी के कारण सफेदे का पेड़ पानी और मिट्टी का बहाव बढ़ता ही है।”
अलग-अलग वातावरण में अलग-अलग किस्म के सफेदे से जल संतुलन पर पड़ने वाले प्रभावों का अभी कोई ठीक अध्ययन नहीं किया गया है। वन अनुसंधान का काम वन विभाग के अधीन है, इसलिए ऐसे अनुसंधान करना और सही जवाब खोजना उसकी जिम्मेदारी है। लेकिन दुर्भाग्य से वन-अधिकारी सफेदे के साथ जुड़ गए हैं। इसलिए आवश्यक अनुसंधानों के कामों को एकदम भुला ही दिया गया है।
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