भारत के भूजल में आर्सेनिक प्रदूषण : प्रमुख तथ्य

आर्सेनिक से स्वास्थ्य समस्याएं, फोटो साभार - ढाका ट्रिव्यून
आर्सेनिक से स्वास्थ्य समस्याएं, फोटो साभार - ढाका ट्रिव्यून

एक लंबी अवधि में अकार्बनिक आर्सेनिक की उच्च सांद्रता के सेवन से आर्सेनिकोसिस नामक क्रोनिक आर्सेनिक विषाक्तता हो सकती है। आर्सेनिक युक्त जल के सेवन से लक्षणों को विकसित होने में वर्षों का समय लगता है एवं यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि एक्सपोज़र का स्तर क्या है? इससे होने वाले रोग यया त्वचा के घाव, परिचीय न्यूरोपैथी, गैस्ट्रो इंटेस्टाइनल लक्षण, मधुमेह, हृदय रोग, विषाक्तता का विकास एवं त्वचा और आंतरिक अंगों का कैंसर इत्यादि होते हैं। कार्बनिक आर्सेनिक यौगिक, जो समुद्री भोजन में प्रचुर मात्रा में होते हैं वे स्वास्थ्य के लिए कम हानिकारक होते हैं और शरीर द्वारा स्वतः ही निष्कासित कर दिए जाते हैं। आर्सेनिक एक्सपोज़र के परिणामस्वरूप होने वाले प्रभाव किसी व्यक्ति के सेक्स, आयु, स्वास्थ्य और पोषण की स्थिति और विशेष रूप से जल में आर्सेनिक की सांद्रता और उपयोग की अवधि पर निर्भर होते हैं।

क्या है आर्सेनिक?

आर्सेनिक (As) पृथ्वी की परत में स्वाभाविक रूप से पाया जाने वाला एक गंधहीन और स्वाद रहित तत्व है। आर्सेनिक तत्व आवती तालिका के पांचवें समूह का सदस्य है और इसकी परमाणु संख्या 33 एवं परमाणु द्रव्यमान 74.91 है।

पृथ्वी की परत में पाए जाने वाले सर्वाधिक सामान्य 26 तत्वों में से आर्सेनिक एक है। विभिन्न शोधकर्ताओं ने पाया है कि विश्व के कुछ भागों में भूजल में आर्सेनिक की मात्रा, विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा पेय जल हेतु निर्धारित सीमा, जो कि 10 माइक्रो ग्राम/लीटर है, से अधिक है। शोधकर्ता दत्ता एवं कौल के अनुसार वर्ष 1976 में पहली बार भारत में आर्सेनिक की उच्च सांद्रता चंडीगढ़ क्षेत्र में पाई गई। इसके बाद शोधकर्ता मजूमदार ने वर्ष 1998 में पश्चिम बंगाल के उत्तर 24 परगना जिले में भूजल में आर्सेनिक होने की पुष्टि की। आर्सेनिक के सर्वाधिक पाए जाने वाले प्रकार आर्सेनिट (As (v)) और आर्सेनाइट (As (III)) हैं। आसेनाइट, आर्सेनेट की तुलना में अधिक विषाक्त होता है। जब आर्सेनिक पौधों और जानवरों में पाया जाता है, तो यह कार्बनिक आर्सेनिक का निर्माण करते हुए कार्बन और हाइड्रोजन के साथ बंध जाता है। कार्बनिक आर्सेनिक सामान्यतः अकार्बनिक आर्सेनिक की तुलना में कम हानिकारक होता है, हालांकि कुछ उच्च स्तर के कार्बनिक आर्सेनिक, अकार्बनिक आर्सेनिक के समान ही अति विषाक्त होते हैं।

आर्सेनिक का स्वास्थ्य पर प्रभाव

शोधकर्ता चक्रवर्ती के अनुसार आर्सेनिक संदूषण सार्वजनिक स्वास्थ्य के संदर्भ में आजीविका को प्रभावित कर रहा है और इस तरह गंगा नदी बेसिन में आर्सेनिक रूपी इस आपदा ने लाखों मानवों के जीवन को खतरे में डाल दिया है। रेवेन स्क्रॉफ्ट ने बताया कि यदि भू-जल में आर्सेनिक की सांद्रता 10 माइक्रो ग्राम/लीटर से अधिक हो तो इस जल को लगातार पीने के कारण स्वास्थ्य पर कई प्रतिकूल प्रभाव पड़ते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने पेव जल में आर्सेनिक के लिए अधिकतम दूषित स्तर का मान 10 माइक्रो ग्राम/लीटर (अथवा 10 पीपीबी) निर्धारित किया है। भारत में, भारतीय मानक ब्यूरो (बीआईएस) ने भी 10 माइक्रो ग्राम/लीटर को स्वीकार्य सीमा के रूप में तथा 50 माइक्रो ग्राम/लीटर को पेय जल हेतु अनुमेय सीमा के रूप में निर्धारित किया है। एक लंबी अवधि में अकार्बनिक आर्सेनिक की उच्च सांद्रता के सेवन से आर्सेनिकोसिस नामक क्रोनिक आर्सेनिक विषाक्तता हो सकती है। आर्सेनिक युक्त जल के सेवन से लक्षणों को विकसित होने में वर्षों का समय लगता है एवं यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि एक्सपोज़र का स्तर क्या है? इससे होने वाले रोग यथा त्वचा के घाव, परिधीय न्यूरोपैथी, गैस्ट्रो इंटेस्टाइनल लक्षण, मधुमेह, हृदय रोग, विषाक्तता का विकास एवं त्वचा और आंतरिक अंगों का कैंसर इत्यादि होते हैं। कार्बनिक आर्सेनिक यौगिक, जो समुद्री भोजन में प्रचुर मात्रा में होते हैं वे स्वास्थ्य के लिए कम हानिकारक होते हैं और शरीर द्वारा स्वतः ही निष्कासित कर दिए जाते हैं। आर्सेनिक एक्सपोजर के परिणामस्वरूप होने वाले प्रभाव किसी व्यक्ति के सेक्स, आयु, स्वास्थ्य और पोषण की स्थिति और विशेष रूप से जल में आर्सेनिक की सांद्रता और उपयोग की अवधि पर निर्भर होते हैं। यह ज्ञात नहीं है कि आर्सेनिक के संपर्क से लोगों में अनुवांशिक दोष या अन्य विकासात्मक प्रभाव होता है या नहीं। विश्व स्वास्थ्य संगठन, संयुक्त राज्य अमेरिका के स्वास्थ्य और मानव सेवा विभाग (डी.एच.एच.एस.) एवं यू.एस.ई.पी.ए. ने अकार्बनिक आर्सेनिक को मानव कार्सिनोजेन निर्धारित किया है। मनुष्यों में आर्सेनिक के कारण होने वाले प्रभाव अकार्बनिक आर्सेनिक के उच्च स्तर वाले भूजल को पीने से होते हैं।

आर्सेनिक के स्रोत

आर्सेनिक संदूषण के स्रोत को मुख्यतः दो वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता हैः (अ) प्राकृतिक और (ब) मानव जनित गतिविधियां। मिट्टी में चट्टानों और खनिजों की अपक्षय प्रक्रिया आर्सेनिक का प्रमुख स्रोत प्रतीत होती है। स्मेडले और किनीबर्ग के अनुसार आर्सेनिक की उत्पत्ति आर्सेनोपाइराईट, ऑर्पीमेंट, रियलगर, क्लुडेटाइट, आर्सेनोलाइट, पेंटोक्साइड, स्कॉरोडाइट और आर्सेनोपालेडाइटे जैसे खनिजों से हो सकती है। हालांकि, आर्सेनोपाइराइट को ज्यादातर शोधकर्ताओं द्वारा उल्लेखित किया गया है एवं यह भूजल में आर्सेनिक की अशुद्धि उत्पन्न करने वाला एक प्रचुर मात्रा में उपलब्ध खनिज है। रेडॉक्स नियंत्रित वातावरण के तहत, यह आर्सेनिक तलछट (सेडीमेंट) से भूजल में निर्मुक्त हो जाता है। हिमालयी नदियों के डेल्टाई क्षेत्रों में पीने के पानी के स्रोतों में आर्सेनिक संदूषण देखने में आता है। इसकी वजह यह है कि हिमालय की चट्टानों से बहते पानी में आर्सेनिक घुलता जाता है। यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ लंदन के एक प्रकाशन के अनुसार अपक्षरण की प्रक्रिया के चलते हिमालय की चट्टानें छोटे-छोटे कणों में टूटने लगती हैं। इससे रासायनिक बदलाव भी आने लगते हैं। चट्टानों में पाया जाने वाला आयरन ऑक्सीकृत होकर आयरन ऑक्साइड या जंग में रूपांतरित हो जाता है, जो अपने ऊपर बहने वाली नदियों से आर्सेनिक को खींच लेता है। ये पत्थर और कंकड बाद में डेल्टा क्षेत्र में नदियों के नीचे जमा होने लगते हैं। इन कंकड़ों से आर्सेनिक पूरे पानी में मिल जाता है। स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी का एक अध्ययन जीवाणुओं के एक समूह के बारे में बताता है, जो तलछट में जमा आर्सेनिक और आयरन को जल में घुलनशील बना देता है। डेल्टाई क्षेत्र में भूमिगत जल के लगातार बढ़ते उपयोग ने आर्सेनिक के जोखिम को भी बढ़ा दिया है। हालांकि बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल के डेल्टाई क्षेत्रों में आर्सेनिक संदूषण को भली-भांति पहचान लिया गया है। लेकिन हालिया रिपोर्ट बताती हैं कि पाकिस्तान के सिंधु घाटी डेल्टा में भी आर्सेनिक का संदूषण बढ़ता जा रहा है। बांग्लादेश, भारत और पाकिस्तान में जो लोग इस समस्या से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं, वे गांवों के गरीब हैं, जो उन क्षेत्रों में रहते हैं, जहां नदियां समुद्र में मिलने से पहले कई धाराओं में विभाजित हो जाती हैं। जी.एस.आई. के अनुसार भूजल में आर्सेनिक संदूषण का स्रोत हिमालय से निकलने वाली गंगा और उसकी सहायक नदियों द्वारा लाई गई हिमालयी तलछट से जुड़ा हुआ प्रतीत होता है। कई शोधकर्ताओं ने आर्सेनिक संग्रहण को चार प्रमुख परिकल्पनाओं द्वारा समझाया हैः 

1. पाइराइट का ऑक्सीकरण, 2. आयरन ऑक्सी-हाइड्रॉक्साइड्स का कम विघटन; 3. हास और पुनर्संयोजन, एवं 4. प्रतिस्पर्धी आयन इत्यादि। 

आर्सेनिक जमाव के लिए सबसे आम परिकल्पना आयरन ऑक्सी हाइड्रॉक्साइड्स का लघुकारक विघटन है। गंगा के मैदानी भाग में भूजल में आर्सेनिक का मुख्य स्रोत गंगा नदी और उसकी सहायक नदियों द्वारा हिमालय के तलछट का जमाव है और इसलिए गंगा बेसिन में आर्सेनिक संदूषण जिओ-जेनिक है। क्लम्प एवं नेहार्ट ने ज्ञात किया कि आर्सेनिक के मानवजनित स्रोत कोयला दहन, अयस्क प्रसंस्करण, एसिड खानों, कीटनाशकों, शाकनाशियों के पिघलने के कारण बनते हैं, जो स्थानीय स्तर पर भूजल को प्रदूषित करते हैं। मानवीय गतिविधियां स्वाभाविक रूप से विद्यमान आर्सेनिक के मुक्तिकरण में तेजी लाती हैं।

आर्सेनिक मापन की इकाई

जल के नमूने में आर्सेनिक आमतौर पर पार्ट प्रति विलियन (पीपीबी) या माइक्रो ग्राम प्रति लीटर में मापा जाता है। आर्सेनिक के विश्लेषण की विधियां यथा ग्रेफाइट फर्नेस परमाणु अवशोषण (GFAA), हाइड्राइड जेनरेशन परमाणु अवशोषण स्पेक्ट्रस्कोपी (HGAAS), इंडक्टिवली कपल प्लाज्मा एटॉमिक एपिशन स्पेक्ट्रोमेट्री इत्यादि हैं। प्रयोगशालाओं में आर्सेनिक की माप के लिए युग्मित प्लाज्मा-मास स्पेक्ट्रोमेट्री (आईसीपी- एमएस) आदि का उपयोग किया जाता है। ये उपकरण जटिल एवं मंहगे हैं एवं इनको संचालित करने के लिए पूरी तरह से सुसज्जित प्रयोगशालाओं की आवश्यकता होती है। फील्ड परीक्षण किट, जो कम संवेदनशीलता वाले नमूनों की स्क्रीनिंग या साइट सर्वेक्षण के उद्देश्यों के लिए स्वीकार्य हो सकती है, अपेक्षाकृत सस्ती हैं, और थोड़े समय में बड़ी संख्या में स्क्रीनिंग परिणाम दे सकती हैं। जल में आर्सेनिक का परीक्षण करने के लिए कलरमेट्रिक फील्ड टेस्ट किट का बड़े पैमाने पर प्रयोग किया जाता है।

आर्सेनिक की रोकथाम एवं नियंत्रण

आर्सेनिक प्रभावित समुदायों में सबसे महत्वपूर्ण कार्रवाई, सुरक्षित पेयजल आपूर्ति एवं फसलों की सिंचाई के प्रावधान द्वारा आर्सेनिक से होने वाले खतरे को रोकना है। पेय जल में आर्सेनिक के स्तर को कम करने के लिए कई विकल्प हैं जो नीचे उल्लिखित हैंः
(1) उच्च-आर्सेनिक और कम आर्सेनिक वाले भूजल स्रोत के स्थान पर सूक्ष्म जीव विज्ञानी रूप से सुरक्षित स्रोतों निम्न-आर्सेनिक युक्त जैसे कि वर्षा जल और उपचारित सतही जल का जल उपयोग किया जा सकता है। कम-आर्सेनिक वाले जल का उपयोग पीने, खाना पकाने और सिंचाई के प्रयोजनों के लिए किया जा सकता है, जबकि उच्च-आर्सेनिक वाले जल का उपयोग अन्य प्रयोजनों जैसे कि स्नान और कपड़े धोने के लिए किया जा सकता है।

(2) उच्च-आर्सेनिक और कम आर्सेनिक वाले जल स्रोतों के बीच अंतर करना अति आवश्यक है। इसके लिए आर्सेनिक सांद्रता के स्तर को ज्ञात करने हेतु नलकूपों या हैंड पंपों के जल का परीक्षण कर उनको विभिन्न रंगों के साथ पेंट किया जाता है। सामुदायिक स्तर पर इस विषय पर प्रभावी शिक्षा, आर्सेनिक के संपर्क में तेजी से कमी लाने के लिए एक प्रभावी और कम लागत वाला साधन हो सकती है।

(3) आर्सेनिक को स्वीकार्य सांद्रता स्तर को प्राप्त करने के लिए उच्च-आर्सेनिक युक्त जल को निम्न स्तर वाले आर्सेनिक युक्त जल के साथ मिश्रित किया जा सकता है।

(4) आर्सेनिक हटाने वाली प्रणालियों को या तो केंद्रीकृत रूप से या घरेलू रूप से स्थापित एवं निष्कासित कर आर्सेनिक का उचित निपटान सुनिश्चित किया जा सकता है। आर्सेनिक निष्कासन की तकनीकों में ऑक्सीकरण, स्कंदन-अवक्षेपण, अवशोषण, आयन विनिमय और झिल्ली तकनीक इत्यादि प्रयोग की जाती हैं।
आर्सेनिक के प्रभाव को कम करने में सफलता सुनिश्चित करने के लिए शिक्षा और सामुदायिक जुड़ाव प्रमुख घटक हैं। सिंचाई जल में आर्सेनिक होने से फसलों (जैसे धान) में आर्सेनिक का जमाव हो जाता है। आर्सेनिक रोधक घान का उत्पादन एवं खाना पकाने हेतु आर्सेनिक मुक्त जल के प्रयोग के साथ-साथ आर्सेनिक के खतरों एवं जोखिम वाले स्रोतों की समुदायिक स्तर या समझ अत्यन्त आवश्यक है। आर्सेनिक विषाक्तता के शुरूआती लक्षणों के लिए त्वचा की समस्याओं वाली आबादी की निगरानी भी की जानी चाहिए।

आर्सेनिक से प्रभावित क्षेत्र

भूजल में आर्सेनिक की सांद्रता व्यापक स्थानिक परिवर्तनशीलता द्वारा चिह्नित है। दूषित जल आमतौर पर जलोढ़ जलभूतों में 100 मी. के भीतर पाया जाता है। भारत में, दस राज्य - आर्सेनिक (> 50 पीपीबी) से प्रभावित हैं:- पश्चिम बंगाल, झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, कर्नाटक, छत्तीसगढ़, मणिपुर और असम (तालिका । और चित्र में प्रदर्शित)।

चित्र ।: भूजल में आर्सेनिक संदूषण वाले क्षेत्रों का मानचित्र
(स्रोत:http://cgwb.gov.in/WQ/ WQMAPS/Arsenic.pdf.

आर्सेनिक का निस्तारण - 

आर्सेनिक के निपटारे हेतु निम्न उपाय किए जाते हैं

(i) जलभृत (एक्विफर) प्रणाली से आर्सेनिक का यथास्थान (इन सिटू)
उपचार,
(ii) आर्सेनिक हटाने की तकनीक द्वारा भूजल से आर्सेनिक का एक्स-सिटू उपचार,
(iii) दूषित भूजल स्रोत के विकल्प के रूप में सतही जल स्रोत का उपयोग,
(iv) आर्सेनिक मुक्त भूजल की आपूर्ति के लिए वैकल्पिक सुरक्षित जलभूतों का प्रयोग ।
जलभृत तंत्र में से आर्सेनिक का यथास्थान उपचार या जलभूत का शुद्धीकरण सबसे अच्छा तकनीकी विकल्प हो सकता है लेकिन यह योजना के आकार और फिजियो-केमिकल और जियोकेमिकल प्रक्रियाओं एवं जलभृत प्रणाली के व्यवहार की पूरी समझ के अभाव के कारण अत्यंत मुश्किल काम होता है।

एकत्रित भूजल से उपयुक्त प्रौद्योगिकियों द्वारा आर्सेनिक का मूल स्थान की जगह अन्य स्थान पर निष्कासन कर केवल घरेलू उपयोग के लिए पीने योग्य आर्सेनिक मुक्त भूजल प्रदान करना एक अल्पकालिक विकल्प प्रतीत होता है। एक्स-सिटू (मूल स्थान की जगह अन्य स्थान) तकनीक केवल एकत्र किए गए भूजल से आर्सेनिक को हटा सकती है, लेकिन एक्विफर सिस्टम से नहीं हटा सकती। वर्तमान प्रयासों में से अधिकांश प्रयास आर्सेनिक के एक्स-सीटू उपचार पर ही निर्भर हैं, जिनमें सफलता और असफलता की विभिन्न सीमाएं हैं। इस दृष्टिकोण का लाभ यह है कि यह साइट पर स्थित हो सकता है।

सतही जल स्रोत, उपचारित दुषित भूजल की आपूर्ति का एक विकल्प भी है। पेय जल की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए सतही जल की उपलब्धता और व्यवस्थित जल आपूर्ति प्रणाली की आवश्यकता है। आर्सेनिक प्रभावित क्षेत्रों में पेय जल की आवश्यकता को पूरा करने के लिए, यह दृष्टिकोण घनी आबादी वाले क्षेत्रों में एक संभावित विकल्प साबित हो सकता है। इस दृष्टिकोण के आधार पर, पश्चिम बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश सरकार ने कुछ आर्सेनिक प्रभावित क्षेत्रों में पेय जल की आपूर्ति के लिए कुछ योजनाएं विकसित की हैं।
आर्सेनिक मुक्त भूजल की आपूर्ति के लिए वैकल्पिक सुरक्षित जलभृत से जल का निष्कासन भी एक अच्छा विकल्प हो सकता है। स्थानीय स्तर पर कई क्षेत्रों में इसका पता लगाया गया है। हालांकि, इस दृष्टिकोण के लिए भूजल उपलब्धता की मैपिंग, ताजे पानी के भण्डार और परतीकरण के कारण स्थानिक और सामयिक पैमाने पर, जलभृत में आर्सेनिक के जमाव की जांच करने के लिए व्यापक अध्ययन और विश्लेषण की आवश्यकता होगी।

आर्सेनिक निष्कासन हेतु उपचार तकनीकें

दूषित जल से आर्सेनिक को हटाने के लिए ऑक्सीकरण, सह अवक्षेपण, अधिशोषण, आयन- विनिमय और झिल्ली प्रक्रिया आदि विभिन्न उपचार प्रौद्योगिकियां विकसित की गई हैं जो उपयोग हेतु उपलब्ध हैं। हालांकि, प्रौद्योगिकियों की दक्षता और प्रयोज्यता/उपयुक्तता के संबंध में, विशेष रूप से कम प्रभावी आर्सेनिक एकाग्रता और स्रोत जल संरचना में अंतर के कारण, प्रश्न बना हुआ है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान, भारत सहित विभिन्न देशों में कई छोटे पैमाने पर आर्सेनिक निष्कासन की तकनीकों का विकास, परीक्षण और उपयोग किया गया। दूषित जल से आर्सेनिक हटाने के लिए उपलब्ध विभिन्न प्रौद्योगिकियां मुख्यतः पांच सिद्धांतों पर आधारित हैं:

(i) ऑक्सीकरण और निस्पंदन-ऑक्सीकरण और निस्पंदन आमतौर पर उन प्रक्रियाओं का उल्लेख करते हैं जो जल के साथ स्वाभाविक रूप से होने वाले लोहे और मैंगनीज को हटाने के लिए डिजाइन किए गए हैं। इन प्रक्रियाओं में लोहे और मैंगनीज के घुलनशील रूपों का ऑक्सीकरण कर उनके अघुलनशील पदार्थ को निस्पंदन द्वारा निकला जाता है। यदि आर्सेनिक पानी में मौजूद है, तो इसे दो प्राथमिक विधियों यथा अधिशोषण और सह-अवक्षेपण के माध्यम से हटा दिया जाता है। सर्वप्रथम घुलनशील आयरन और आर्सेनाईट (As (III)) का ऑक्सीकरण किया जाता है। जिससे आर्सेनाईट ऑक्सीकरण होकर आर्सेनेट (As (v)) में परिवर्तित हो जाता है तत्पश्चात आर्सेनेट को निष्कासित करने के लिए इसके ऊपर आयरन हाइड्रोक्साइड की बौछार की जाती है जिससे आर्सेनेट (As (v)) आयरन हाइड्रॉक्साइड अवक्षपण पर अधिशोषित हो जाता है। जिसे छान कर निकाल लिया जाता है।

(ii) सह-अवक्षेपण-सह-अवक्षेपण कई पायलट प्रोजेक्ट एवं बड़े पैमाने पर अनुप्रयोगों में आर्सेनिक युक्त दूषित जल के उपचार के लिए सबसे अधिक उपयोग की जाने वाली विधि है। इस तकनीक का प्रयोग आमतौर पर आर्सेनिक की 30 माइक्रो ग्राम प्रतिलीटर से कम सांद्रता और कुछ मामलों में 10 माइक्रो ग्राम प्रतिलीटर से कम सांद्रता में भी किया जाता है। इस विधि द्वारा जल से आर्सेनिक को हटाने के लिए स्कंदक का प्रयोग किया जाता है। जल से आर्सेनिक को हटाने में विभिन्न स्कंदक, जैसे कि फिटकरी, फेरिक क्लोराइड और फेरिक सल्फेट का प्रयोग किया जाता है। इसके लिए स्कंदन-ऊर्णन प्रक्रिया प्रयोग की जाती है जिससे इलेक्ट्रोस्टैटिक अनुलग्नक द्वारा सभी प्रकार के सूक्ष्म कण और ऋणात्मक आयन ऊर्जा से जुड़े होते हैं। आर्सेनिक भी स्कदित ऊर्ण द्वारा अधिशोषित हो जाता है। आर्सेनाईट से आर्खेनेट में परिवर्तित होने पर इसे पूर्व उपचारण द्वारा प्रभावी रूप से निष्कासित कर लिया जाता है।

(iii) अधिशोषण-अधिशोषण तकनीक में, विलेय (संदूषक) एक सोर्वेन्ट की सतह पर केंद्रित होता है, जिससे तरल अवस्था में उसकी सांद्रता कम हो जाती है। अधिशोषण माध्यम आमतौर पर एक स्तम्भ (कॉलम) में पैक किया जाता है। संदूषित जल जब स्तम्भ से हो कर गुजरता है तो संदूषक अधिशोषित हो जाते हैं। जब अधिशोषण माध्यम भर जाता है तो स्तम्भ को नए माध्यम के साथ पुनः निर्मित किया जाता है अथवा नए स्तम्भ का प्रयोग किया जाता है। जल से आर्सेनिक हटाने के लिए कई अधिशोषक उपलब्ध हैं यथा सक्रिय एल्यूमिना, सक्रिय कार्बन, आयरन और मैंगनीज लेपित रेत, काओलाइट मिट्टी, और कई प्राकृक्तिक और सिंथेटिक अधिशोषक इत्यादि ।

(iv) आयन एक्सचेंज-आयन एक्सचेंज एक भौतिक-रासायनिक प्रक्रिया है जिसमें आयनों को तरल अवस्था एवं ठोस अवस्था (रेजिन्स) के मध्य गुजारा जाता है। रेजिन्स आमतौर पर एक लचीली निआयामी हाइड्रोकार्बन नेटवर्क होती है, जिसमें बड़ी संख्या में आयनित समूह इलेक्ट्रोस्टिक रूप से रेजिन्स से बंधे होते हैं। जिन आयनों की रेजिन्स से एफिनिटी अधिक होती है वो आयन रेजिन्स पर उपस्थित आवन को विस्थापित करते हैं। पेय जल के उपचार में, इस तकनीक का उपयोग आमतौर पर जल को मृदु बनाने और नाइट्रेट हटाने के लिए किया जाता है।
(v) झिल्ली तकनीक -  झिल्ली तकनीक जल से आर्सेनिक सहित सभी प्रकार के विघटित ठोस पदार्थों को निकालने में सक्षम हैं। इस प्रक्रिया में, जल को विशेष फिल्टर मीडिया से गुजारा जाता है जो जल में मौजूद अशुद्धियों को भौतिक रूप से अलग करता है। इस तकनीक द्वारा केवल आर्सेनेट का ही उपचार किया जाता है।

उपचार तकनीक से संबंधित समस्याएं

आर्सेनिक हटाने के लिए एक्स-सिटू उपचार प्रौद्योगिकियों की दक्षता या प्रभावशीलता का कई प्रणालियों के लिए स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं किया गया है। किसी सिस्टम के निरंतर उपयोग से उस सिस्टम में प्रयुक्त मीडिया भी समाप्त हो जाता हैं, जिसे सिस्टम के प्रदर्शन का मूल्यांकन करने के बाद बदल दिया जाना चाहिए। इसलिए, सिस्टम के लिए उचित संचालन और रखरखाव को जावश्यकता होती है और निश्चित अंतराल पर प्रवाह की निगरानी की भी आवश्यकता होती है। उपचार प्रक्रिया में अपशिष्ट निपटान एक अन्य महत्वपूर्ण मुद्दा है। आर्सेनिक हटाने की तकनीक कई अलग-अलग प्रकार के कचरे का उत्पादन करती है, जिसमें गाद, वैकवाश स्लरी और मीडिया खर्च इत्यादि होते हैं। इन अपशिष्टों को एक खतरे के रूप में वर्गीकृत करने की आवश्कयता है जिससे निपटान की समस्याओं को दूर किया जा सके। इसके अलावा, स्लज से निपटने के लिए उचित देखभाल की आवश्यकता होती है अन्यथा आर्सेनिक भूजल प्रणाली में फिर से प्रवेश कर सकता है।

संपर्क करें - 

डॉ. सुमंत कुमार एवं अंजु चौधरी राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान रुड़की ।


 

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Post By: Kesar Singh
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