पुस्तकें और पुस्तक समीक्षा

Term Path Alias

/sub-categories/books-and-book-reviews

नर्मदाघाटी में जीवन का उद्भव
Posted on 19 Sep, 2015 04:23 PM

आदिवासियों की अपनी जीवनशैली के अनुरूप सांस्कृतिक परम्पराएँ रही हैं। कहा जाता है कि आदिवासी केवल

गंगा जल
Posted on 17 Sep, 2015 08:36 AM जिस तट मुकुलित हुई मनुजता
चलता है जिससे जीवन
विकसित हुई सभ्यता जिससे
आलोकित होता जन-मन

निर्मल शीतल धवल चाँदनी
में कल-कल लहराती है
स्वप्न सजाती है नयनों में
पल-पल जागी बहती रहती है

आँसू बहते रहते माँ के
सागर खारा हो जाता है
तट तट मेले-उत्सव सजते
तन मैला क्यों रह जाता है

सदियों से निर्मलता देता
उमड़-घुमड़ जल बह गया
Posted on 08 Sep, 2015 11:48 AM चंद्र चले, सूरज चले, बहे नदी की धार।
करे सदा जो संसरण, बंधु वही संसार।।

मानव-मन में जब हुई, पैदा कोई खोट।
प्रकृति-कोप का तब हुआ, विध्वंसक विस्फोट।।

बिन सर-सरिता के सजन, ज्यों नीरव परिवेश।
बिना राष्ट्रभाषा विवश, त्यों गूँगा हर देश।।

दूर-दूर तक भी यहाँ, वृक्ष न कोई छाँव।
ढूँढ़ रहे हैं व्यर्थ सब, मरूथल में क्यों गाँव।।
जल बचाएँ, कल बचाएँ
Posted on 08 Sep, 2015 11:41 AM 1.
सिंध तट वासियों से, हिन्द के निवासियों से,
कवि का निवेदन है, पानी को बचाइये।
पास के कुँओं से, बावड़ियों से निकाल नीर,
पानी पियो, पर व्यर्थ पानी ना बहाइये।।
बादलों की आरती उतारिये लगा के पेड़,
धरती माता को हरी चूनरी उढ़ाईये।
नदी में न गन्दगी बहाइये, ओ मेरे भाई,
‘अनुरागी’ बन मान नदी का बढ़ाईये।।

2.
मौन कुएँ के सामने, पंछी पड़ा अचेत
Posted on 08 Sep, 2015 10:50 AM पानी दिखता ही नहीं, पाया कारावास,
होठों पर जलने लगी, अंगारों सी प्यास।।

नदिया तस्कर ले गए, चल निकला व्यापार,
‘पौशाले’ की जीभ पर, छालों की भरमार।।

पीने की खातिर बचे, मिट्टी बालू रेत,
मौन कुएँ के सामने, पंछी पड़ा अचेत।।

सपनों की चिड़ियाँ कटी, जागा हाहाकार,
जल बिन टुल्लू हाँफता, हाँफ रही सरकार।।

तड़प रहा है रेत में, अपना जीवन राग,
बादल
Posted on 08 Sep, 2015 10:24 AM बहुरूपिये बादल को भी, हमने स्वांग रचाते देखा।
आसमान से उतर उतर कर, पार समंदर जाते देखा।

कभी -कभी पर्वत बन जाता, जाकर कभी कहीं छिप जाता
पवन दूत के आगे -आगे, इसको दौड़ लगाते देखा।
बहुरूपिये बादल को भी, हमने स्वांग रचाते देखा।

ये बादल है बड़ा सयाना, इसको हमने अब पहचाना।
इस बादल को भरी दुपहरी, हमने रंग जमाते देखा।
नहर नदी कुएँ सब प्यासे
Posted on 08 Sep, 2015 10:22 AM काश मेघ तुम जल्दी आते।

भ्रूणांकुर कोखों में झुलसे
बांझ रह गई अनगिन क्यारी
अबके भी रह गई इसी से
कितनी कृषक सुताएँ क्वाँरी

कई हज़ार वृद्ध कंधों पर
ऋण का बोझा और बढ़ गया
जीवन सरिता में दर्दों के
जल का स्तर कुछ और चढ़ गया

पहले आते तो कुछ माथे
चावल चढ़ने से खिल जाते।
काश मेघ तुम जल्दी आते।

बिखर गये अरमान सलौने
धनीराम बादल के दोहे
Posted on 08 Sep, 2015 10:18 AM मेंढक जी की गायकी, बारिश में घनघोर,
झींगुर के संगीत पर, नाच रहे हैं मोर।।

सावन लाया है हमें, हरियाली सौगात,
शहरों के लब हँस रहे, खिले-खिले देहात।।

सौंधी मिट्टी की महक, भीगे हैं दिन-रात,
चटनी संग पकौडिय़ाँ, माँग रहे जज़्बात।।

गरमी से दरकी हुई, धरती थी बेजार,
झर-झर बूँदें सावनी, करती है गुलज़ार।।
जल की कीमत
Posted on 08 Sep, 2015 09:20 AM जल धरती पर अमृत है इसका पूरा सम्मान करो।
जल की एक बूँद का भी तुम कभी नहीं अपमान करो।
कितना भी हो हरा भरा जीवन गुलाब सा खिल जाये।
जीवन की सारी शोभा सुगंध भी तुमको मिल जाये।।

चमक दमक वैभव की पाकर वैभव में ही नहीं फूलो।
बरसाती मौसम में भी जल की कीमत को नहीं भूलो।।
जल का वह उपयोग करो गंदा नाला नहीं बन जाये।
जल जीवन का प्राण -स्रोत है कभी नहीं यह तरसाये।।
×