उमड़-घुमड़ जल बह गया

चंद्र चले, सूरज चले, बहे नदी की धार।
करे सदा जो संसरण, बंधु वही संसार।।

मानव-मन में जब हुई, पैदा कोई खोट।
प्रकृति-कोप का तब हुआ, विध्वंसक विस्फोट।।

बिन सर-सरिता के सजन, ज्यों नीरव परिवेश।
बिना राष्ट्रभाषा विवश, त्यों गूँगा हर देश।।

दूर-दूर तक भी यहाँ, वृक्ष न कोई छाँव।
ढूँढ़ रहे हैं व्यर्थ सब, मरूथल में क्यों गाँव।।

इक चिड़िया मस्तूल पर, बैठी है बेचैन।
सागर में दिग्भ्रांत है, इक जहाज दिन-रैन।।

उड़ जा हंस यहाँ नहीं, कहीं मानसर झील।
यह तो मरघट है यहाँ, मँडराती हैं चील।।

इधर प्रकृति का ध्वंस है, उधर प्रकृति का रोष।
फलस्वरूप होते सदा, स्वाहा जन निर्दोष।।

खून की प्यासी हो गई, आदम की औलाद।
कर डालेगी एक दिन, गुलशन को बर्बाद।।

खेत कहाँ नदिया कहाँ, कहाँ नीम की छाँव।
यहीं कहीं तो था कभी, मेरा प्यारा गाँव।।

आया सावन झूम के, छाई घटा घनघोर।
फिर भी मेरा इन दिनों, है उदास मन-मोर।।

धो डालें हम नीर को, करें हवाएँ साफ।
वर्ना भावी पीढ़ियाँ, नहीं करेंगी माफ।।

रे पंछी उड़ चल कहीं, और करेंगे वास।
कहीं न इस मरु में मरे, घुट-घुट तेरी प्यास।।

उमड़-घुमड़ जल बह गया, रह गई सूखी रेत।
ओ री भादों की नदी, अब तो मन में चेत।।

तू नंदनवन लौट जा, ओ सुकुमार वसंत।
नागफनी का देश यह, काँटे यहाँ अनंत।।

निकले लेने चाँदनी, मिली अवांछित धूप।
मेरे युग की नियति का, यही व्यंग्य-विद्रूप।।

सारे पशु थे एकमत, जंगल जिंदाबाद।
आया मानव-राज तो, होंगे हम बरबाद।।

हुए विश्व के राष्ट्र कुछ, सत्ता-मद में अंध।
फैलाते हैं वायु में, जो विषाक्त दुर्गंध।।

नेताओं का दोगला, जब से हुआ चरित्र।
गंगा मैली हो गई, यमुना भी अपवित्र।।

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Post By: RuralWater
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