1.
सिंध तट वासियों से, हिन्द के निवासियों से,
कवि का निवेदन है, पानी को बचाइये।
पास के कुँओं से, बावड़ियों से निकाल नीर,
पानी पियो, पर व्यर्थ पानी ना बहाइये।।
बादलों की आरती उतारिये लगा के पेड़,
धरती माता को हरी चूनरी उढ़ाईये।
नदी में न गन्दगी बहाइये, ओ मेरे भाई,
‘अनुरागी’ बन मान नदी का बढ़ाईये।।
2.
बूँद-बूँद पानी को बचाइये, सहेजियेगा,
पानी जो निघट गया तो, जिन्दगी वीरान है।
पानी ने कराया मेल, पानी ने बिगाड़ा खेल,
पानी ने कराई जेल, पानी बना जान है।।
पानी ने बदल डाला चाल, चेहरा, चरित्र,
पानी घर भरा हुआ तो, जिन्दगी की शान है।
पानी जो उतर गया तो जीवन बिखर गया
बिना पानी, सूनी आँखें, देखती हैरान है।।
3.
बिना पानी आटा दाल, हो रहे सारे बेहाल,
पानी ने बदल डाली, जिन्दगी की चाल है।
कुआँ प्यासे, नदी प्यासी, नहर औ’ वृक्ष प्यासे,
प्यासी सारी जनता है, प्यासा छोटा ताल है।।
बिना पानी कैसे मित्र, काम-काज, नाज करूँ,
पानी बिना जिन्दगी को जीना भी मुहाल है।
‘अनुरागी’ चेत जाओ, अब तो संभल जाओ,
पानी नाही जो बचा तो, संकट है, काल है।।
4.
संकट विकट देखो, ऐसो ये प्रकट हुआ,
पानी को मची है चहुँ ओर त्राहि-त्राहि है।
खोद-खोद गड्डे जो, धरा पे छेद-छेद किये,
पानी नाही निकला है, पैसे की उगाही है।।
प्यासी धरा, प्यासा आसमान भी विकल हुआ,
सजल नहीं है कोई, प्यासों की गवाही है।
‘अनुरागी’ सुनो मोर, कहता हूँ हाथ जोर,
अबहूँ न चेते और, आगे बस तबाही है।।
सिंध तट वासियों से, हिन्द के निवासियों से,
कवि का निवेदन है, पानी को बचाइये।
पास के कुँओं से, बावड़ियों से निकाल नीर,
पानी पियो, पर व्यर्थ पानी ना बहाइये।।
बादलों की आरती उतारिये लगा के पेड़,
धरती माता को हरी चूनरी उढ़ाईये।
नदी में न गन्दगी बहाइये, ओ मेरे भाई,
‘अनुरागी’ बन मान नदी का बढ़ाईये।।
2.
बूँद-बूँद पानी को बचाइये, सहेजियेगा,
पानी जो निघट गया तो, जिन्दगी वीरान है।
पानी ने कराया मेल, पानी ने बिगाड़ा खेल,
पानी ने कराई जेल, पानी बना जान है।।
पानी ने बदल डाला चाल, चेहरा, चरित्र,
पानी घर भरा हुआ तो, जिन्दगी की शान है।
पानी जो उतर गया तो जीवन बिखर गया
बिना पानी, सूनी आँखें, देखती हैरान है।।
3.
बिना पानी आटा दाल, हो रहे सारे बेहाल,
पानी ने बदल डाली, जिन्दगी की चाल है।
कुआँ प्यासे, नदी प्यासी, नहर औ’ वृक्ष प्यासे,
प्यासी सारी जनता है, प्यासा छोटा ताल है।।
बिना पानी कैसे मित्र, काम-काज, नाज करूँ,
पानी बिना जिन्दगी को जीना भी मुहाल है।
‘अनुरागी’ चेत जाओ, अब तो संभल जाओ,
पानी नाही जो बचा तो, संकट है, काल है।।
4.
संकट विकट देखो, ऐसो ये प्रकट हुआ,
पानी को मची है चहुँ ओर त्राहि-त्राहि है।
खोद-खोद गड्डे जो, धरा पे छेद-छेद किये,
पानी नाही निकला है, पैसे की उगाही है।।
प्यासी धरा, प्यासा आसमान भी विकल हुआ,
सजल नहीं है कोई, प्यासों की गवाही है।
‘अनुरागी’ सुनो मोर, कहता हूँ हाथ जोर,
अबहूँ न चेते और, आगे बस तबाही है।।
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Post By: RuralWater