नर्मदाघाटी में जीवन का उद्भव

आदिवासियों की अपनी जीवनशैली के अनुरूप सांस्कृतिक परम्पराएँ रही हैं। कहा जाता है कि आदिवासी केवल वर्तमान में जीता है। लेकिन वास्तव में यह पूर्ण सत्य नहीं है। महाराष्ट्र के डूब क्षेत्र में आज भी ऐसे आदिवासी मौजूद हैं जिन्हें कि अपनी 20-22 पीढ़ी (पूर्वजों) के नाम मुखाग्र हैं। उनकी अभी भी अपनी वंश परम्परा पर गहरी पकड़ है। यही उनका खजाना भी है। लेकिन हम विकास की अंधी दौड़ में इतने चौंधिया गए हैं कि उस खजाने को सहेजने की बजाए उसे डुबोने में दिन रात एक कर रहे हैं।

हम जिस तथाकथित आधुनिक और वैज्ञानिक युग में रहते हैं वह हर स्थापना को सिर्फ तर्क से सिद्ध करने में जुटा रहता है। वह जिस क्रमानुसार जीवन विकास प्रक्रिया को शिरोधार्य करता है वह अत्यन्त नीरस और बोझिल है। उसके अनुसार “मनुष्य के पहले का वह प्राणी, जो मनुष्य के रूप में विकसित हुआ, ऐसे विकास के लिए समर्थ था क्योंकि उसके पास एक विशेष अंग था ‘हाथ’। जिससे वह चीजों को पकड़ सकता था और थामे रह सकता था। हाथ संस्कृति का सारभूत अंग है और मानवीकरण का प्रवर्तक है। इसका अर्थ यह नहीं है कि अकेले हाथ ने ही मनुष्य का निर्माण किया। प्रकृति, और विशेष रूप से जैव प्रवृत्ति, कारण व प्रभाव की ऐसी सरल और एकपक्षीय श्रृंखला की अनुमति नहीं देती। मनुष्य को मनुष्य बनाने के लिए आवश्यक परिस्थितियाँ पैदा करने में एक साथ बहुत सी चीजों ने काम किया, जैसे कुछ जैव संरचनाओं का वृक्ष की अवस्था में रूपांतरित हो जाना, जिससे घ्राणशक्ति की कीमत पर दृष्टि का विकास हुआ चौड़े थूथन का सिकुड़ जाना जिससे आँखों की स्थिति बदलने में सुविधा हुई, अधिक तीक्ष्ण और अधिक सही दृष्टि संवेदन से युक्त प्राणी में इस इच्छा का उत्पन्न होना कि वह प्रत्येक दिशा में देखें, जिससे शरीर की तनी हुई मुद्रा का अनुबंधन हुआ, शरीर की सीधी तनी हुई मुद्रा के कारण सामने के अंगों का मुक्त हो जाना और मस्तिष्क का आकार बढ़ जाना, आहार में परिवर्तन हो जाना आदि-आदि। लेकिन सीधे तौर पर निर्णायक अंग ‘हाथ’ ही था। इसीलिए टाम्स एक्विनास ने कहा था”, हाथ ही मनुष्य की चेतना का जनक है।

यह सच है कि हाथ ने ही मानवीय विवेक को मुक्त किया है। हो सकता है उपरोक्त कथन तार्किक रूप से एकदम दुरुस्त हो। लेकिन इसमें किसी प्रकार का कोई रोमांच नहीं है। यह अत्यन्त तकनीकी व्याख्या है। लेकिन मनुष्य तो गाथा से ही स्वयं को विस्तारित एवं व्याख्यायित करता है। नर्मदाघाटी में रह रहे भील व भिलाला भी अपने उद्गम को एक दृष्टांत में बदलते हैं और प्रकृति की पूरी संरचना को अपने उद्भव की गाथा में समेट लेते हैं।

दीमक ने बनाई धरती


विन्दू (दीमक) बाई ने पहले समुद्र में मिट्टी तैयार की और फिर उससे धरती (भूमि) बनाई। विदू बाई के मुँह में मिट्टी बनाने की विद्या थी। उन्होंने मुँह से मिट्टी तो बनाई लेकिन धरती टिक नही रही थी, तो ‘जड़ी राया’ (जड़) और ‘मूल्ली राया’ (मूल) बनाई। ‘जड़ी राया’ व ‘मूल्ली राया’ ने धरती को पूरा जकड़ लिया, फिर धरती टिक गई। इस तरह विदू बाई ने धरती तैयार की।

धरती की देखरेख करने के लिए कल्लू (मणु) बाई को बनाया। कल्लू ने कहा ‘मूल्ली राया’ (मूल) तो धरती के अंदर है, उसे बाहर कैसे लाया जाए? मूल्ल ऊपर आएँगे तब धरती शोभा देगी। तो इस पर कहा गया कि धरती का एक पति बनाना पड़ेगा। इसके बाद ‘काल्ला राणा’ को धरती का पति बनाया गया। इसी के साथ धुल्ली राया (धुल) को भी बनाया गया। ‘काल्ला राणा’ ने कहा कि मैं धरती पति तो बनूँगा पर मुझे साधन चाहिए। मैं सब दूर कैसे फिरुंगा (घूमूंगा)? इस पर विदू बाई ने ‘बादल’ ‘आबी’- (बिजली) और हवा को धरती पति को दिया। काल्ला राणा ने पहले हवा को चलाकर देखा। इस पर ‘धूली राया’ ने हवा में धुल को उड़ा दिया । तब पूरी धरती पर धुल छा गई। मिट्रटी में जो कुछ था वह हवा ने ऊपर उड़ गया। पूरी धरती पर धुँध छा गई तो विचार किया कि धरती की साफ-सफाई कौन करेगा? इस पर धरती की सफाई के लिए ‘सोना सवल्ली’ (चिड़िया) बनाई जो पृथ्वी को सोना जैसा साफ रखेगी। (कुछ स्थानों पर इसे ‘सोवली’ भी कहा जाता है)

फिर काल्ला राणा और धरती की बातचीत होने लगी। काल्ला राणा अपने आने की तारीख तय करने लगा कि मैं बाब आऊँ? काल्ला राणा और धरती के बीच ‘अखातरी’(वैशाख या मई महीना) में आने का वायदा हुआ। हेमला रानी को काल्ला राणा की मँ बनाया और बोला गया कि हेमला राणी शिक्षा देगी। हेमला राणी ने काल्ला राणा से कहा कि तू धरती पर जा रहा है, लेकिन धरती को बिगाडियों मत। काल्ला राणा ने कहा कि कैसे? इस पर हेमला रानी ने कहा कि तू समय-समय पर जाना नहीं तो गालियाँ सुनेगा। इसके बाद काल्लू राणा हेमला रानी पर शक करने लगा कि यह तो हमारा वायदा बिगाड़ रही है। माँ (हेमलरानी) ने कहा कि मैं पानी भर कर लाती हूँ, तब तक तू जाना मत। मैं कूछ खास बातें बताऊँगी।

काल्ला राणा ने सोचा माँ हमारा वायदा तोड़ेगी। ऐसा सोचकर वह गाज (गर्जना), विज (बिजली) व हवा को तैयार करके निकल गया। उधर माँ ने सोचा घर लौटते-लौटते कहीं काल्ला राणा निकल न जाए। यही सोचकर वह पानी भरकर जल्दी वापस निकली। काल्ला राणा ने माँ के पहुँचने से पहले गाज, विज व बादल को छोड़कर बरसात करवा दी। घर पहुँते-पहुँचते माँ भीग गई। माँ के कपड़े बरसात में गलने वाले थे। पानी में भीग कर माँ के कपड़े गल गए। माँ को गुस्सा आ गया और उसने काल्ला राणा को श्राप दिया कि धरती पर तू कहीं भी फिरेगा, ऐसे में तू आएगा तब भी गालियाँ सुनेगा व जाएगा तब भी गालीयाँ सुनेगा। पहली बरसात में धरती को जितना पानी चाहिए था उतना काल्ला राणा ने नहीं दिया। एक ही जगह ज्यादा बरसात हो जाने से धरती की ताकत (ऊर्जा) खत्म हो गई। इस पर कणु (कल्ल) बाई गुस्सा होकर बोली मेरी कल (धरती) को क्यों बिगाड़ रहा है। कलू बाई ने काल्लू राणा से पूछा तेरे पास कितने मेघ हैं तो काल्लू राणा ने जवाब दिया तेरह मेघ। इस पर कलू बाई ने कहा कि कुछ मेघ कम कर नहीं तो पूरी धरती बह जाएगी। इस पर उसने चार मेघ छोड़ दिया। उधर तेरह मेघ की माँ मेघला रानी ने वचन दिया कि नौ महीने में तेरे बाल-बच्चे बाहर आ जाएँगे। (आबी के पेट में नौ महीने का गरब (गर्भ) रहेगा। फिर आब पक्की हो गई। तब बरसात शुरु होगी) नौ महीने में पहले घास व झाड़ धरती के बाहर निकल आए। धान की मदद से धरती माँ का दूध ऊपर खीच लाए। दूध के फेस (फेन) से शेर पैदा हुआ।

मध्यप्रदेश के अलिराजपुर जिले के जनजातीय समाज का एक वर्ग उपरोक्त गाथा को अपना और अपनी धरती का उद्गम मानता है। यह तो हम सभी जानते हैं कि इस पृथ्वी पर मिट्टी बनाने की क्षमता या तो प्रकृति में है या फिर दीमक में। सिर्फ दीमक ही एकमात्र ऐसी जीवंत इकाई है जिसमें मिट्टी बनाने की क्षमता है। अफ्रीका के कई आदिवासी इलाकों में जहाँ की मिट्टी उपजाऊ नहीं रह गई थी वहाँ उन्होंने दीमक डाल दी। कुछ वर्षों में वह मिट्टी पुनः उपजाऊ हो गई। हमारा पूरा जीवन चक्र- और फसल चक्र दोनो इस गाथा से एकदम स्पष्ट हो जाते हैं। 9 महीने को गर्भ के बाद बच्चे का जन्म और 9 महीने अन्य मौसम रहने के बाद बारिश का आना। यह वाचिक संस्कृति की निरन्तरता का भी प्रमाण है। नर्मदा घाटी में थोड़े और नीचे जाकर जब हम महाराष्ट्र के नंदुरबार पहुँचते हैं तो वहाँ का आदिवासी समुदाय इस सृष्टि के उद्गम की एक और गाथा हमें सुनाता है।

सृष्टि की उत्पत्ति की कथा


एक समय राजा पांठा एवं गांडा ठाकुर यह विचार करते हुए पहाड़ों पर घूम रहे थे कि पानी को कैसे रोकें। चर्चा के दौरान उन्होंने तालाब बाँधने (खोदने) का निश्चय किया। स्थान नियत कर जैसे ही उन्होंने काम शुरु किया कि उन्हें वहाँ दो स्त्रियाँ आती दिखीं। वे दोनों वहाँ से चले गए और उन्होंने नया स्थान खोज लिया। दोनों ने रातों रात एक-एक तालाब बना दिया। पांठा ने बडा और गांडा ने छोटा तालाब बनाया। तालाब बाँधते ही विचित्र-विचित्र घटनाएँ होने लगीं। इसी बीच तालाब की पूजा के लिए बली प्रदान करने हेतु एक बकरी (म्हेस) लाई गई। लेकिन तभी वहाँ शेर आ गया और पूजा कार्य नहीं हो पाया। थोड़ी ही देर में गड़गड़ाहट के साथ वर्षा होने लगी। तालाब भरकर ऊपर से बहने लगा, इसके बाद तालाब फूटकर बड़ी मोटी धारा के रूप में बहने लगा। तलाटी (तलहटी) में एक भाई व बहन रहते थे। अपना जीवन बचाने के लिए उन्होंने बास की पालकी (डोंगी) बनाई और उस पर बैठकर डाब के नजदीक आ गए। इस विप्लव में सारी सृष्टि नष्ट हो गई परन्तु दोनों भाई बहन बच गए। पानी उतर जाने पर उन्होंने पालकी को एक जगह फेंक दिया। जिससे वहाँ बाँस का जंगल तैयार हो गया। बास से ही उन्होंने सारे साधन तैयार करना शुरु किया। दोनो पति-पत्नी की तरह रहने लगे। उन्हीं की वंश वृद्धि से इस सृष्टि की उत्पत्ति हुई।

ऐसी अनगिनत गाथाएँ समग्र जीवन को व्याख्यायित करते हुए मिल जाएगी। आप जीवन को वैज्ञानिक (आधुनिक) तरीके से देखें या तथाकथित अवैज्ञानिक तरीके से वह पहुँचेगा एक ही स्थान पर। आवश्यकता दरअसल यह है कि हमें संस्कृति और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भेद करना होगा। संस्कृति ने आचार, व्यवहार, जीवनशैली, पर्यावरण, रीति-रिवाज, लोकाचार, न्याय व्यवस्था, खान-पान, खेती, आजिविका सभी कुछ समाया रहता है। इसका वर्गीकरण हम दो श्रेणियों में कर सकते हैं, आरण्यक या वन आधारित एवं नगरीय या नगर में बसने वाले बसाहट के स्थान के हिसाब से उनकी व्यवहार्यता अलग-अलग हो जाती है। वनों में रहने वाला समुदाय प्रकृति के प्रति सदैव विनयशील और श्रद्धावनत है। वहीं पिछले तकरीबन 300 वर्षों से नगरीय समाज का पूरा ध्यान कमोवेश प्रकृति पर विजय पाने की लालसा में जुटा रहा। वह अपनी हर खोज को अपनी जीत मानता गया। लेकिन कुछ ही वर्षों में उसे ज्ञात हो जाता था कि यह जीत अब हार में परिवर्तित होती जा रही है। नदियों पर बनने वाले बाँध भी इसी जीत हार की श्रृंखला का ही हिस्सा हैं। इसी के समानांतर विकास की इस अवधारणा से एक मूलभूत परिवर्तन विस्थापित समुदाय, फिर वह चाहे आदिवासी हो या पठार ने खेती करने वाले, के जीवन में यह आया कि वे सभी इस नकद बाजरमूलक अर्थव्यवस्था का हिस्सा बन गए। इस परिवर्तन से उसका सिर्फ आर्थिक व्यवहार ही नहीं बदला बल्कि उसकी समूची संस्कृति ही संकट में पड़ गई। नर्मदा बचाओ आन्दोलन की वरिष्ठ कार्यकर्ता सुश्री मेधा पाटकर का कहना है ‘आदिवासियों को लेकर हमारे मन में यह धारणा बनी हुई है कि यह समुदाय तकरीबन 100 प्रतिशत गरीब ही था। वैसे गरीब के मापदंडों, खासकर आदिवासियों के सन्दर्भ में, का पुनर्निधारण भी बहुत जरुरी है। हमें इस प्रक्रिया ने ध्यान रखना होगा कि उनकी वास्तविक आवश्यकताएँ क्या हैं और वे वहाँ से पूरी हो सकती है या वर्तमान में कहाँ से पूरी होती है। जैसा कि मैंने कहा की वर्तमान आर्थिक आधार के हिसाब से देखे तो बहुत से आदिवासी काफी धनी होते थे और काफी बड़ी संख्या में मध्यमवर्गीय भी।’

आदिवासियों की जीवनशैली को लेकर प्रचलित धारणाओं का प्रतिकार करते हुए, वे कहती हैं ‘आदिवासियों की अपनी जीवनशैली के अनुरूप सांस्कृतिक परम्पराएँ रही हैं। कहा जाता है कि आदिवासी केवल वर्तमान में जीता है। लेकिन वास्तव में यह पूर्ण सत्य नहीं है। महाराष्ट्र के डूब क्षेत्र में आज भी ऐसे आदिवासी मौजूद हैं जिन्हें कि अपनी 20-22 पीढ़ी (पूर्वजों) के नाम मुखाग्र हैं। उनकी अभी भी अपनी वंश परम्परा पर गहरी पकड़ है। यही उनका खजाना भी है। लेकिन हम विकास की अंधी दौड़ में इतने चौंधिया गए हैं कि उस खजाने को सहेजने की बजाए उसे डुबोने में दिन रात एक कर रहे हैं।’

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