किसी पौधे के सम्पूर्ण विकास एवं भरपूर उत्पादकता के लिए उसकी जड़ें पूरी तरह से विकसित एवं स्वस्थ होनी चाहिए। मिट्टी में सूक्ष्म जीवाणुओं की क्रिया लगातार होती रहनी चाहिए जिससे मिट्टी स्वस्थ रहे एवं उसके पोषक तत्व बरकरार रहें। पौधा भी स्वस्थ एवं मजबूत होना चाहिए।
परम्परागत विधि से धान रोपण में पाया गया है कि न तो पौधे पूरी तरह से स्वस्थ रहते हैं और न ही उनकी जड़ें पूरी तरह से विकसित हो पाती हैं। मिट्टी में सूक्ष्म जीवाणुओं की क्रिया भी प्रभावित होती है। इन सबका मिला-जुला असर उत्पादकता पर पड़ता है।
धान की परम्परागत खेती के लिए अधिक पानी की आवश्यकता होती है। खेतों में लगभग 2.5 इंच पानी भर कर रखना पड़ता है। इसके बावजूद वर्षा पर आधारित धान का औसत उत्पादन 20 क्विंटल एवं सिंचित धान का औसत उत्पादन 30 क्विंटन प्रति हेक्टेयर ही है जो अन्य देशों की तुलना में काफी कम है। धान के उत्पादन को बढ़ाने हेतु एक नयी विधि विकसित की गई है जो किसानों के लिए काफी उपयोगी है। इस विधि में कम बीज व कम पानी के प्रयोग से अधिक उत्पादन होता है। यह सिस्टम आॅफ राइस इन्टेसीफिकेशन (एस. आर. आई.) यानी श्रीधान विधि कहलाती है। श्रीधान विधि से न सिर्फ पैदावार ज्यादा होती है बल्कि पानी की आवश्यकता भी आधी हो जाती है।
श्रीधान विधि अपनाओ उत्पादन बढ़ाओं
परिचय
भारत कृषि प्रधान देश है जहाँ 70 प्रतिशत जनसंख्या की आजीविका कृषि पर आधारित है। यहाँ ज्यादातर खेती वर्षा पर निर्भर है। वर्षा के क्षेत्रीय एवं माहवार वितरण में काफी असमानता है। खरीफ में प्रमुख रूप से धान की ही खेती होती है जिस पर न केवल लोगों की आजीविका निर्भर है बल्कि उनके परिवारों की खाद्य सुरक्षा भी। भारत में धान की खेती लगभग 450 लाख हेक्टेयर भूमि पर होती है। इसमें सिंचित धान का क्षेत्र लगभग आधा है।
परम्परागत रूप से ऐसा माना गया है कि धान अधिक पानी में पनपने वाला पौधा है और अच्छी फसल के लिए खेत में पानी भर कर रखने की आवश्यकता होती है। परन्तु नये अनुसंधानों ने सिद्ध किया है कि परम्परागत विधि में पौधों की जड़ों को उचित मात्रा में हवा नहीं मिलती। इसलिए अधिकांश जड़ें बालियों के निकलने तक कमजोर हो जाती हैं जिससे कभी-कभी फसल हल्की हवा से ही गिर जाती है। इससे उत्पादन कम हो जाता है। श्रीधान विधि में खेत में पानी नहीं रहने पर मिट्टी में वायु (ऑक्सीजन) का संचार होता है और पौधों की जड़ों की बढ़ोत्तरी बेहतर होती है। इससे पौधे की जड़ें स्वस्थ रहती हैं और पौधों का विकास अच्छा होता है जिससे धान के उत्पादन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
इस नयी पद्धति से धान के एक पौधे में कम से कम 20 से 25 बालियाँ आसानी से आ जाती हैं। यहाँ तक कि कई पौधों में 50 व उससे भी अधिक बालियाँ निकलती हैं। पौधों में कल्लों की ज्यादा संख्या, बालियों की अधिक लम्बाई व दानों की अधिक संख्या से कुल उत्पादन बढ़ता है। इन विशेषताओं के कारण इस पद्धति से धान की खेती करने से उपज बढ़ती है जिससे किसानों की आय में वृद्धि होती है।
प्रस्तुत आलेख में श्रीधान के सिद्धान्त एवं विधि के बारे में जानकारी दी गई है।
श्रीधान विधि का विस्तृत विवरण
श्रीधान तकनीक के लाभ
हमारे देश में पानी की कमी को देखते हुए श्रीधान विधि बहुत उपयुक्त है इससे किसान अपने पास उपलब्ध पानी से अधिक खेतों में धान का उत्पादन कर सकते हैं। इस विधि में किसान को कम बीज व कम पानी की जरूरत पड़ती है तथा रासायनिक खाद व कीटनाशकों के स्थान पर जैविक खाद और जैविक तरीके से कीट नियन्त्रण होता है। इस विधि द्वारा उत्पादित धान स्वादिष्ट व स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होता है। भूमि में जीवाणुओं की संख्या में वृद्धि होने से भूमि की उत्पादकता में भी वृद्धि होती है जिससे फसल के उत्पादन व किसान की आय में बढ़ोत्तरी होती है। परम्परागत विधि की तुलना में श्रीधान विधि से धान के उत्पादन में कम से कम डेढ़ गुना तक की वृद्धि होती है। पौधों में कल्लों की संख्या व लम्बाई अधिक होने के कारण पुआल (सूखा चारा) का उत्पादन 15 से 25 फीसदी अधिक होता है।
श्रीधान विधि का इतिहास
श्रीधान फ्रांसीसी पादरी हेनरी डे लाउलानी द्वारा 1980 के दशक की शुरूआत में मेडागास्कर में विकसित की गई। मेडागास्कर में इस विधि पर 15 वर्षों तक जाँच एवं प्रयोग हुए। पिछले एक दशक में 29 देशों में इसका तेजी से विस्तार हुआ है जिसमें भारत भी एक है।
सामान्यतः एक किलोग्राम चावल की पैदावार में लगभर 5000 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। देश में पानी की कमी के कारण कई राज्यों में धान की खेती के क्षेत्रफल में कमी हो रही है। श्रीधान विधि में पानी की आवश्यकता लगभग आधी हो जाती है। इससे न सिर्फ पानी की बचत हो सकती है अपितु सिंचित क्षेत्र भी बढ़ाया जा सकता है।
श्रीधान विधि से धान की ज्यादा पैदावार के कारण
i. कल्लों की संख्या प्रति पौधा ज्यादा होती है।
ii. दाने वाली बालियों की संख्या ज्यादा होती है।
iii. बालियों की लम्बाई ज्यादा होती है।
iv. बालियों में दानों की संख्या ज्यादा होती है।
v. उत्पादन ज्यादा होता है।
श्रीधान की विशेषताएँ
कम बीज की आवश्यकता
पौधशाला में बीज से बीज की दूरी अधिक होती है जिससे बीज की खपत कम होती है।
कम पानी की आवश्यकता
इस विधि में खेत में पानी भरकर नहीं रखा जाता है। खेत को कभी सूखा व कभी नम रखा जाता है। इसलिए पानी की आवश्यकता कम होती है।
कम उम्र के पौधों का रोपण
8 से 12 दिन के पौधों का रोपण कम गहराई पर किया जाता है जिससे पौधों में जड़ें व नये कल्ले अधिक संख्या में एवं कम समय में निकलते हैं और पैदावार अधिक होती है।
अधिक दूरी पर पौध रोपण
पौधे से पौधे की दूरी कम से कम 10 इंच (अधिकतम 20 इंच) होने से सूर्य का प्रकाश प्रत्येक पौधे तक आसानी से पहुँचता है जिससे पौधों में पानी, स्थान एवं पोषक तत्वों के लिए प्रतिस्पर्धा नहीं होती। पौधे की जड़ें ठीक ढँग से फैलती है और पौधे को ज्यादा पोषक तत्व प्राप्त होते हैं जिससे पौधे स्वस्थ रहते हैं एवं उत्पादन बढ़ता है।
खरपतवार को मिट्टी में मिलाना
इस विधि में वीडर की मदद से निराई की जाती है जिससे खरपतवार खाद में बदल जाते हैं एवं पौधे के लिए पोषण का काम करते हैं इस प्रक्रिया से पौधों को सूर्य का प्रकाश एवं जड़ों को पोषक तत्व पर्याप्त मात्रा में प्राप्त हो जाते हैं पौधों में पोषक तत्वों के लिए प्रतिस्पर्धा नहीं होती है जिससे पौधे एवं जड़ों का विकास अच्छा होता है।
जैविक खाद का प्रयोग
जैविक खाद के प्रयोग से भूमि में आॅक्सीजन का आवागमन एवं सूक्ष्म जीवाणुओं की संख्या में वृद्धि होती है जो कार्बनिक पदार्थों को पोषक तत्वों में बदलने में मदद करते हैं। इससे पौधों की जड़ें तेजी से फैलती हैं एवं उनका विकास अच्छा होता है।
रोग व कीटों का जैविक नियन्त्रण
श्रीधान विधि में पौधों का रोपण अधिक दूरी पर करने से सूर्य की किरणें व हवा उचित मात्रा में मिलती है जिससे रोग व कीटों का प्रकोप कम होता है। फिर भी यदि प्रकोप होता है तो उसका निदान जैविक पद्धति द्वारा किया जाता है।
श्रीधान व परम्परागत विधि की तुलना
श्रीधान विधि | परम्परागत विधि |
नर्सरी में क्यारी बनाकर अंकुरित बीज का छिड़काव किया जाता है। इसमें कम पानी लगता है। | नर्सरी में सीधे बीज का छिड़काव किया जाता है। इसमें अधिक पानी लगता है। |
कम बीज की आवश्यकता होती है। (2 कि.ग्रा. प्रति एकड़) | अधिक बीज की आवश्यकता होती है। (14 से 16 कि. ग्रा. प्रति एकड़) |
8-12 दिन के पौध का रोपण किया जाता है। | 25-35 दिन के पौध का रोपण किया जाता है। |
पौधे से पौधे व पंक्ति से पंक्ति की दूरी 10 इंच से 20 इंच तक रखते हैं। | पौधे से पौधे व पंक्ति से पंक्ति की दूरी निश्चित नहीं है। |
धान में बाली आने तक खेत को बारी-बारी से नम एवं सूखा रखा जाता है। | इसमें अधिकांश समय पानी भरकर रखते हैं। |
खरपतवार नियन्त्रण वीडर मशीन के द्वारा करते हैं। | खरपतवार नियन्त्रण हाथ से करते हैं। |
कम पानी की आवश्यकता होती है। बालियाँ निकलते समय खेत में 1 इंच पानी भरा रखते हैं। | अधिक पानी की आवश्यकता होती है। अधिकांश समय खेत में 1.5 से 2 इंच पानी भरा रखते हैं। |
एक स्थान पर एक ही पौध का रोपण होता है। | एक स्थान पर 3-5 पौध का रोपण होता है। |
श्रीधान विधि के चरण
1. उचित भूमि का चयन
इस विधि के लिए अच्छी जल निकास वाली दोमट मिट्टी उपयुक्त होती है। अधिक अम्लीय व क्षारीय भूमि में इसकी खेती नहीं करनी चाहिए। इसके लिए उपयुक्त पी. एच. 5.5 से 7.5 तक है। भारी व काली मिट्टी वाले खेत में वीडर में कठिनाई होती है।
2. खेत का समतलीकरण
खेत को पूर्ण रूप से समतल करना जरूरी है ताकि पूरे खेत में एक समान सिंचाई दी जा सके और कहीं भी अनावश्यक पानी न जमा हो। यदि खेत में कहीं ज्यादा पानी जमा होता तो रोपे गये पौधे छोटे होने के कारण उनके मरने की सम्भावना बढ़ जाएगी और जड़ों का विकास अच्छा नहीं होगा जिससे पौधों में कल्लों की संख्या कम होगी।
3. भूमि की गुणवत्ता में वृद्धि
इस विधि में जैविक तरीके से खेती करने पर जोर दिया जाता है। जिसका मकसद धान की उत्पादकता के साथ-साथ जमीन की गुणवत्ता बनाए रखना है। भूमि की उत्पादकता में वृद्धि करने के तीन उपाय सुझाए गए हैंः
(क) कम्पोस्ट खाद
अच्छी सड़ी हुई खाद 6 टन (4 ट्राली) प्रति एकड़ के हिसाब से डालना आवश्यक है। यदि गोबर की खाद के साथ वर्मी कम्पोस्ट, नाडेप कम्पोस्ट उपलब्ध हो तो दोनों को मिलाकर उपयोग करना चाहिए। इसके साथ पंचगव्य व अमृत घोल का उपयोग करना चाहिए। प्रथम, द्वितीय व तृतीय वीडिंग के पश्चात पंचगव्य व अमृत घोल का प्रयोग क्रमवार करना चाहिए। इससे भूमि में सूक्ष्म जीवाणुओं की संख्या बढ़ती है और भूमि की उत्पादकता और फसल के उत्पादन में वृद्धि होती है।
(ख) हरी खाद
खेत में धान की रोपाई से दो माह पूर्व खेत की जुुताई करके सनई (Sunhemp), ढेंचा (Sesbaniaa) की बुआई करनी चाहिए। 35 से 45 दिन पश्चात, खेत की जुताई करके हरी फसल को मिट्टी में दबा देना चाहिए। इससे भूमि में जीवाणुओं की संख्या में वृद्धि होती है ये जीवाणु वायु मण्डल से नाइट्रोजन लेकर जड़ों में संग्रहित करते हैं।
(ग) हरी खाद बनाने की दाभोलकर विधि
वर्तमान में यह विधि काफी लोकप्रिय है। साधारणतः हरी खाद प्राप्त करने के लिए लेग्युमिनस (बेल वाली) फसलों को ही बोया जाता था लेकिन दाभोलकर विधि में 5 (अनाज, दलहन, तिलहन, लेग्युमिनस एवं मसाले) तरह के बीजों का मिश्रण करके बोया जाता है। बाद में इन्हें जोत कर मिट्टी में दबा दिया जाता है।
i. अनाज (ज्वार, बाजरा, रागी, कोदो)
ii. दलहन (उड़द, मूंग, राजमा, लोबिया)
iii. तिलहन (सरसों, सूरजमुखी, मूँगफली, अरण्डी)
iv. लेग्युमिनस (सनई, ढेंचा, चना, सोयाबीन)
v. मसाले (धनिया, मेथी, अजवायन)
इस विधि में दलहन, तिलहन, अनाज और हरी खाद प्रत्येक के 6 कि.ग्रा. बीज और मसाले के 500 ग्राम बीज मिलाये जाते हैं। बोने के 40 से 45 दिन के बाद जुताई करके इनको मिट्टी में दबा दिया जाता है। इससे मिट्टी की ऊपरी परत में लाभदायक जीवाणुओं से जैविक पदार्थ बनता है। हरी खाद की फसल को बढ़ने एवं सड़ने के लिए उचित मात्रा में नमी की आवश्यकता होती है।
4. बीज का चयन
अच्छे बीज के चयन हेतु बीज को चौड़े मुँह वाले पानी के बर्तन में डाला जाता है। जो बीज ऊपर तैरते हैं, उन्हें निकाल देते हैं। इसके बाद पानी में 24 घंटे तक बीज को भिगोते हैं। फिर अंकुरण के लिए 36 घंटे तक बीज को टाट के बोरे में बाँध कर रखा जाता है। मौसम ठण्डा होने पर अंकुरण में 48 घंटे तक लग सकते हैं। बोरी पर दिन में तीन बार पानी का छिड़काव किया जाना चाहिए। यदि मौसम ठण्डा है तो छिड़काव के लिए हल्के गर्म पानी का उपयोग करते हैं। जब बीज के ऊपरी सिरे पर हल्के सफेद रंग के अंकुर दिखायी देने लगते हैं, तब बीज क्यारी में बोने के लिए उपयुक्त होता है।
5. नर्सरी (पौधशाला) हेतु क्यारी की तैयारी
नर्सरी बनाने में बहुत सावधानी बरतनी चाहिए। नर्सरी की क्यारी बनाते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि क्यारी खेत के कोने में बनाई जाय, जहाँ पौध रोपण करना है। क्यारी की चौड़ाई 50 इंच (लगभग 4 फिट) से ज्यादा नहीं होनी चाहिये। लम्बाई स्थिति के अनुसार व क्यारी की ऊँचाई आधार तल से 6 इंच होनी चाहिये। इसमें खाद व मिट्टी परतवार निम्नानुसार बिछानी चाहिए।
प्रथम परत | 1 इंच गोबर की अच्छी खाद |
द्वितीय परत | 1-1.5 इंच बारीक मिट्टी |
तृतीय परत | 1 इंच सड़ी गोबर की खाद |
चौथी परत | 2-5 इंच बारीक मिट्टी |
उपरोक्त पद्धति से क्यारी बनाने से पौधों की जड़ों को निकलने में आसानी होती है। इसके पश्चात बीज की बुआई करनी चाहिए तथा मल्चिंग कर देना चाहिए। मल्चिंग को 3-4 दिन बाद क्यारी से हटा देना चाहिए।
6. बीज बुआई
एक एकड़ में धान लगाने के लिए 400 वर्गफीट की नर्सरी व 2 किलोग्राम बीज की आवश्यकता होती है। नर्सरी की क्यारियों में अंकुरित बीज को छिड़काव करने से पहले चार भागों में बाँट लिया जाता है। प्रथम भाग के बीज का छिड़काव दूर-दूर किया जाता है। बीज से बीज की दूरी इतनी होती है कि उसमें एक बीज का स्थान छूट जाये। दूसरे भाग का छिड़काव करते समय जिस जगह कम बीज पड़ता है, वहाँ पर देख कर बीज डाला जाना चाहिए। तीसरा भाग चारों किनारों पर ठीक ढँग से बोना चाहिए। चौथा भाग, जहाँ पर बीज नहीं हैं, वहाँ पर रोपा जाना चाहिए। बीज चार भागों में इसलिए बाँटते हैं कि कम बीज से पूरी क्यारी सही ढँग से आच्छादित हो जाये।
बीज बुआई के पश्चात धान के पुआल की परत क्यारी के ऊपर बिछा देनी चाहिए। इससे बीज को सीधी धूप व चिड़ियों और चींटियों से सुरक्षा मिलती हैं। जब दो या तीन दिन मे बीज अंकुरित हो जाए तो पुआल को हटा देना चाहिए। क्यारी के चारों तरफ नालियाँ बनाकर पानी से भर दिया जाता है। क्यारियों में पानी का छिड़काव प्रतिदिन सुबह-शाम किया जाता है। सिंचाई करते समय यह सावधानी बरतनी चाहिए कि बीज मिट्टी के बाहर न निकल जाए।
7. खेत की तैयारी
इस विधि में परम्परागत विधि के समान ही खेत की तैयारी की जाती है लेकिन खेत को समतल करना आवश्यक है। पौध रोपण के 12 घंटे पूर्व खेत की तैयारी करके एक इंच पानी ही खेत में भरना चाहिए। इससे निशान लगाने में सुविधा होती है। पौध रोपण से पूर्व खेत में मार्कर से 10 गुणा 10 इंच की दूरी पर निशान लगा दिया जाता है। पौधों के बीच उचित दूरी रखने के लिए निशान बनाते समय शुरू में एक रस्सी लगाकर सीधी लाईन बना ली जाती है। इससे निशान बनाने में आसानी होती है। निशान लगाने का कार्य पौध रोपण से 6 घंटे पूर्व कर लेना चाहिए।
8. पौध रोपण
इस विधि में 8 से 12 दिन के पौधों (जब उनमें दो पत्तियाँ निकल आये) का खेत में रोपण किया जाता है। नर्सरी से पौधों को निकालते समय इस बात की सावधानी रखना चाहिए कि पौधे के तने व जड़ के साथ लगा बीज न टूटे। एक-एक पौधे आसानी से अलग करना चाहिए। पौध रोपण के समय हाथ के अँगूठे एवं उसके बगल वाली अंगुली (Index Finger) का प्रयोग करना चाहिए।
खेत में डाले गये निशान की प्रत्येक चौकड़ी पर एक ही पौध रोपा जाना चाहिए। पौध रोपण के समय एक व्यक्ति क्रमवार केवल चार पंक्तियों में ही पौधे रोपता है। पौध रोपण के अगले दिन हल्की सिंचाई करनी चाहिए।
जिन किसानों के लिए श्रीधान विधि नई है उन्हें रोपाई के लिए प्रति एकड़ 10-12 व्यक्तियों की आवश्यकता होती है। बाद के वर्षों में पौध रोपण के लिए इस विधि से अभ्यस्त हो जाने पर यह संख्या कम हो जाती है।
पौध रोपण में सावधानियाँ
i. जड़ों व बीज को नुकसान पहुँचाये बिना पौध रोपें।
ii. रोपने से पहले एक-एक पौधा अलग कर लें।
iii. नर्सरी से निकाले पौधे की मिट्टी धोये बिना रोपाई करें।
iv. धान के बीज सहित पौधे को ज्यादा गहराई पर रोपण न करें।
9. खरपतवार नियन्त्रण
श्रीधान विधि में प्रभावशाली खरपतवार नियन्त्रण के लिए हाथ से चलाये जाने वाले वीडरों के विभिन्न माॅडल विकसित किये गए हैं। वीडर चलाने से न सिर्फ खरपतवार नियन्त्रित होता है बल्कि खेत की मिट्टी भी पीली हो जाती है जिससे उसमें हवा का आवागमन ज्यादा होता है। इससे पौधे भी स्वस्थ होते हैं। वीडर चलाकर खरपतवार को जमीन के अन्दर दबा दिया जाता है जिससे ये खाद का भी काम करें। इससे भूमि में जैविक खाद की बढ़ोतरी होती है।
पौधे रोपण के 10 वें दिन वीडर चलाना चाहिए। दूसरी बार 20 वें दिन और तीसरी बार 30 वें दिन वीडर चलाना चाहिए। यदि इसके बाद भी आवश्यक हो तो वीडर से एक निराई और की जा सकती है। वीडर के ज्यादा उपयोग करने पर पैदावार अधिक होती है।
पौधों के आस-पास के खरपतवार, जो वीडर से लाईन में छूट जाते हैं, उन्हें हाथ से निकाल लिया जाता है।
वीडर मशीन चलाने के लाभ
i. खरपतवार की रोकथाम।
ii. मिट्टी में खरपतवार मिलाने से हरी खाद की उपलब्धता।
iii. पौधों को प्रकाश एवं उसकी जड़ों का पर्याप्त हवा मिलती है।
iv. मिट्टी में जीवाणुओं की क्रिया में वृद्धि।
v. पौधों को उचित मात्रा में पानी व अधिक मात्रा में पोषण मिलता है।
10. सिंचाई एवं जल प्रबन्धन
श्रीधान विधि में खेत में इतनी ही सिंचाई करनी चाहिए जिससे पौध रोपण के बाद पर्याप्त नमी बनी रहे। पूरे खेत में पानी भर कर रखने की आवश्यकता नहीं है। सिंचाई का अन्तराल भूमि के प्रकार एवं वर्षा के अनुसार तय करना चाहिए। जब जमीन में हल्की सी दरार दिखायी देने लगे, तभी सिंचाई करनी चाहिए। वीडर चलाते समय आधे से एक इंच पानी की आवश्यकता होती है। वीडर मशीन चलाने के बाद पानी में भूमि की ऊपरी सतह की मिट्टी घुलने से उस पानी में सभी पोषक तत्व घुल जाते हैं। इसलिए खेत का पानी बाहर नहीं निकालना चाहिए। यदि पानी बाहर निकालेंगे तो खेत में पोषक तत्वों की कमी हो जायेगी। जिसका असर पौधों की वृद्धि और उसके उत्पादन पर पड़ेगा।
बालियाँ निकलने से लेकर दाने बनने तक खेत में 20 दिनों तक एक इंच पानी भर कर रखना चाहिए। कटाई से 20 दिन पूर्व सिंचाई बन्द कर देनी चाहिए।
11. कल्लों (Tillers) का निकलना
18 से 45 दिन के बीच धान के पौधे में सबसे ज्यादा कल्ले निकलते हैं, क्योंकि इस समय पौधों को धूप, हवा व पानी पर्याप्त मात्रा में मिलता है। अनुभवों के आधार पर पाया गया है कि जहाँ केवल एक बार ही वीडर का उपयोग किया गया, वहाँ एक पौधे से कल्लों की संख्या 15-25 तक प्राप्त हुई लेकिन तीन बार वीडर का प्रयोग करने पर एक पौधे से अधिकतम 80 कल्ले तक भी निकले हैं।
12. रोग व कीट प्रबन्धन
इस विधि में रोग व कीटों का प्रकोप प्रायः कम होता है क्योंकि पौधे से पौधे की दूरी ज्यादा होने से प्रकाश व हवा पर्याप्त मिल जाती है और जैविक खाद के उपयोग से पौधों को प्राकृतिक पोषण मिलता है। कीट प्रबन्धन के लिए प्राकृतिक तरीकों व जैविक कीटनाशकों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए।
13. कटाई
जब पौधों की कटाई की जाती है तो पौधे का तना हरा रहता है जबकि बालियाँ पक जाती हैं। बालियों की लम्बाई व दानों का वजन परम्परागत विधि की अपेक्षा ज्यादा होता है। बालियों में खाली दानों की संख्या कम होती है तथा दाने जल्दी नहीं झड़ते।
श्रीधान तकनीक द्वारा खेती करने के लिए निम्न बिन्दुओं पर ध्यान देना जरूरी है:
1. सही खेत का चयन। अधिक अम्लीय व क्षारीय भूमि में इसकी खेती नहीं करनी चाहिए। उत्तराखण्ड व हिमाचल प्रदेश में आमतौर पर इस तरह की समस्या नहीं है।
2. खेत का समतलीकरण आवश्यक है।
3. स्वस्थ व पूर्णतः अंकुरित बीज ही नर्सरी में बोयें।
4. नर्सरी में निराई करना आवश्यक है।
5. खेत में जल निकासी का उचित प्रबन्ध होना जरूरी है।
6. मार्कर से निशान लगाने से पूर्व खेत में 1 इंच पानी भरकर छोड़ देना चाहिए।
7. 8-12 दिन के पौधे का रोपण करना आवश्यक है।
8. पौधे का रोपण बीज सहित व बिना मिट्टी धोये करें।
9. मार्कर से बने निशान पर ही पौधारोपण करना चाहिए।
10. एक व्यक्ति को एक समय में चार लाईन लेकर ही पौधा रोपण कार्य करना चाहिए।
11. पौधा रोपण के बाद 10 वें, 20 वें, व 30 वें दिन वीडर मशीन चलाना आवश्यक है।
12. 30 वें दिन वीडर चलाने के बाद पौधे के आस-पास बचे खरपतवार को हाथ से निकालना चाहिए।
उत्तराखण्ड के किसानों के वर्ष 2006 के अनुभवों के आधार पर श्रीधान व परम्परागत विधि के तुलनात्मक नतीजे
| परम्परागत विधि | श्रीधान |
पौधों की संख्या (प्रति वर्ग मीटर) | 35 - 40 | 16 |
जड़ की लम्बाई (इंच) | 1 – 2.5 | 5 - 7 |
कल्लों की संख्या (न्यून.-अधि.) | 1 - 14 | 5 - 35 |
पौधे की लम्बाई (इंच) | 39.6 | 47.6 |
बाली की औसत लम्बाई (न्यून.-अधि. इंच) | 6.8 | 8.4 |
एक बाली में औसत दानों की संख्या | 100 | 161 |
औसत उत्पादन (कुंतल में) | 31 | 55 |
उत्पादन प्रतिशत में वृद्धि | - | 77 प्रतिशत |
उत्तराखण्ड के किसानों के वर्ष 2007 के अनुभवों के आधार पर श्रीधान व परम्परागत विधि के तुलनात्मक नतीजे
| परम्परागत विधि | श्रीधान |
पौधों की संख्या (प्रति वर्ग मीटर) | 35 - 40 | 16 |
जड़ की लम्बाई (इंच) | 1 - 2.5 | 5 - 7 |
कल्लों की संख्या (न्यून.-अधि.) | 4 - 13 | 15 - 21 |
पौधे की औसत लम्बाई (इंच) | 38.40 | 42.40 |
बाली की औसत लम्बाई (न्यून.-अधि. इंच) | 5.6 | 7.6 |
एक बाली में औसत दानों की संख्या | 94 | 147 |
औसत उत्पादन (कुंतल) में | 28 | 55 |
उत्पादन प्रतिशत में वृद्धि | - | 96% |
हिमाचल प्रदेश के किसानों के वर्ष 2006 के अनुभवों के आधार पर श्रीधान व परम्परागत विधि के तुलनात्मक नतीजे
| परम्परागत विधि | श्रीधान |
पौधों की संख्या (प्रति वर्ग मीटर) | 35 - 40 | 16 |
जड़ की लम्बाई (इंच) | 1 - 2.5 | 5 - 7 |
कल्लों की संख्या (न्यून.-अधि.) | 2 - 8 | 8 - 51 |
पौधे की औसत लम्बाई (इंच) | 34.4 | 37.2 |
एक पौधे में औसत बालियों की संख्या (न्यून.-अधि.) | 2 - 13 | 8 - 40 |
बाली की औसत लम्बाई (न्यून.-अधि. इंच) | 7 - 8 | 9 - 10 |
एक बाली में औसत दानों की संख्या | 97 | 148 |
औसत उत्पादन (कुंतल में) | 32 | 50 |
उत्पादन प्रतिशत में वृद्धि | - | 56 प्रतिशत |
हिमाचल प्रदेश के किसानों के वर्ष 2007 के अनुभवों के आधार पर श्रीधान व परम्परागत विधि के तुलनात्मक नतीजे
| परम्परागत विधि | श्रीधान |
पौधों की संख्या (प्रति वर्ग मीटर) | 35 - 40 | 16 |
जड़ की लम्बाई (इंच) | 1 - 2.5 | 5 - 7 |
कल्लों की संख्या (न्यून.-अधि.) | 6 - 13 | 12 - 21 |
पौधे की औसत लम्बाई (इंच) | 40.8 | 44.4 |
एक पौधे में औसत बालियों की संख्या (न्यून.-अधि.) | 6 - 11 | 9 - 18 |
बाली की औसत लम्बाई (न्यून.-अधि. इंच) | 6 - 7 | 7 - 9 |
एक बाली में औसत दानों की संख्या | 116 | 142 |
औसत उत्पादन (कुंतल में) | 29 | 53 |
उत्पादन प्रतिशत में वृद्धि | - | 83 प्रतिशत |
परिचय:
प्राचीन काल से ही भारत जैविक आधारित कृषि प्रधान देश रहा है। हमारे ग्रन्थों में भी इसका उल्लेख किया गया है। पंचगव्य का अर्थ पंच +गव्य (गाय से प्राप्त पांच पदार्थों का घोल) अर्थात गौमूत्र, गोबर, दूध, दही और घी के मिश्रण से बनाये जाने वाले पदार्थ को पंचगव्य कहते हैं। प्राचीन समय में इसका उपयोग खेती की उर्वरक शक्ति को बढ़ाने के साथ पौधों में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए किया जाता था। मनुष्य भी संक्रामक रोगों से प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए इसका सेवन करते थे।
विशेषतायें:
i. भूमि में जीवांशों (सूक्ष्म जीवाणुओं) की संख्या में वृद्धि
ii. भूमि की उर्वरा शक्ति में वृद्धि
iii. फसल उत्पादन एवं उसकी गुणवत्ता में वृद्धि
iv. भूमि में हवा व नमी को बनाये रखना
v. फसल में रोग व कीट का प्रभाव कम करना
vi. स्थानीय संसाधनों पर आधारित
vi. सरल एवं सस्ती तकनीक पर आधारित
आवश्यक सामग्री:
गौमूत्र | 1.5 ली. (देशी गाय) |
गोबर | 2.5 कि. ग्रा. |
दही | 1 कि. ग्रा. |
दूध | 1 ली. |
देशी घी | 250 ग्राम |
गुड़ | 500 ग्राम |
सिरका | 1 ली. |
केला | 6 |
कच्चा नारियल | 2 |
पानी | 10 लीटर |
प्लास्टिक का पात्र/मटका | 1 |
पंचगव्य बनाने की विधि
प्रथम दिन 2.5 कि. ग्रा. गोबर व 1.5 लीटर गोमूत्र में 250 ग्राम देशी घी अच्छी तरह मिलाकर मटके में डाल दें व ढक्कन अच्छी तरह बंद कर दें। अगले तीन दिन तक इसे रोज हाथ से हिलायें। अब चौथे दिन सारी सामग्री को आपस में मिलाकर मटके में डाल दें व फिर से ढक्कन बंद कर दें। अगले दिन इसे लकड़ी से हिलाने की प्रक्रिया शुरू करें और सात दिन तक प्रतिदिन दोहराएं। इसके बाद जब इसका खमीर बन जाय और खुशबू आने लगे तो समझ लें कि पंचगव्य तैयार है। इसके विपरीत अगर खटास भरी बदबू आए तो हिलाने की प्रक्रिया एक सप्ताह और बढ़ा दें। इस तरह पंचगव्य तैयार होता है अब इसे 10 ली. पानी में 250 ग्रा. पंचगव्य मिलाकर किसी भी फसल में किसी भी समय उपयोग कर सकते हैं। अब आप इसे खाद, बीमारियों से रोकथाम, कीटनाशक के रूप में व वृद्धिकारक उत्प्रेरक के रूप में उपयोग कर सकते हैं। इसे एक बार बना कर 6 माह तक उपयोग कर सकते हैं। इसको बनाने की लागत 70 रु. प्रति लीटर आती है।
उपयोग विधि
i. पंचगव्य का उपयोग अनाज व दालों (धान, गेहूँ, मंडुवा, राजमा आदि) तथा सब्जियों (शिमला मिर्च, टमाटर, गोभी वर्गीय व कन्द वाली) में किया जाता है।
ii. छिड़काव के समय खेत में पर्याप्त नमी होनी आवश्यक है।
iii. बीज उपचार से लेकर फसल कटाई के 25 दिन पहले तक 25 से 30 दिन के अन्तराल में इसका उपयोग किया जा सकता है।
iv. प्रति बीघा 5 ली. पंचगव्य 150 ली. पानी में मिलाकर पौधों के तनों के पास छिड़काव करें।
बीज उपचार
i. 1 लीटर पंचगव्य के घोल में 500 ग्राम वर्मी कम्पोस्ट मिलाकर बीजों पर छिड़काव करें और उसकी हल्की परत बीज पर चढ़ायें व 30 मिनट तक छाया में सुखाकर बुआई करें।
पौध के लिए
पौधशाला से पौध निकाल कर घोल में डुबायें और रोपाई करें।
i. पौधा रोपण या बुआई के पश्चात 15-20 दिन के अन्तराल पर 3 बार लगातार छिड़काव करें।
सावधानियाँ
i. पंचगव्य का उपयोग करते समय खेत में नमी का होना आवश्यक है।
ii. एक खेत का पानी दूसरे खेतों में नहीं जाना चाहिए।
iii. इसका छिड़काव सुबह 10 बजे से पहले तथा शाम 3 बजे के बाद करना चाहिए।
iv. पंचगव्य मिश्रण को हमेशा छायादार व ठण्डे स्थान पर रखना चाहिए।
v. इसको बनाने के 6 माह तक इसका प्रयोग अधिक प्रभावशाली रहता है।
vi. टीन, स्टील व ताम्बा के बर्तन में इस मिश्रण को नहीं रखना चाहिए। इसके साथ रासायनिक कीटनाशक व खाद का उपयोग नहीं करना चाहिए।
अमृत घोल
विशेषतायें
i. मिट्टी में मुख्य पोषक तत्व (नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश) के जीवाणुओं की संख्या में वृद्धि करता है।
ii. शीघ्र तैयार होने वाली खाद है।
iii. मिट्टी को पोली करके जल रिसाव में वृद्धि करता है।
iv. मिट्टी को भुरभुरा बनाता है तथा भूमि की उत्पादकता में वृद्धि करता है।
v. फसलों पर कीट व रोगों का प्रकोप कम करता है।
vi. स्थानीय संसाधनों से बनाया जा सकता है।
vi. इसको बनाने की विधि सरल व सस्ती है।
आवश्यक सामग्री
गौमूत्र | 1 ली. (देशी गाय) |
गोबर | 1 कि. ग्रा. |
मक्खन | 250 ग्राम |
गुड़ | 500 ग्राम |
शहद | 500 ग्राम |
पानी | 10 लीटर |
प्लास्टिक का पात्र/मटका | 1 |
बनाने की विधि
इन सभी को एक साथ अच्छी तरह मिला कर किसी पात्र या मटके में 7 से 10 दिन तक छाया में रखें व प्रति दिन सुबह-शाम लकड़ी से हिलाते रहें। अब 10 लीटर पानी में 1 ली. अमृत घोल मिला कर बुआई से दो दिन पूर्व व पहली सिंचाई के समय खेत में छिड़काव करें। ध्यान रखें कि इसके साथ किसी प्रकार की रासायनिक खाद, कीटनाशक या खरपतवार निवारक दवा का उपयोग न किया जाय।
उपयोग
1 बीघा भूमि के लिए 16 ली. अमृत घोल में 160 लीटर पानी मिला कर छिड़काव करें।
अनाज में उपयोग - फसल बुआाई से दो दिन पूर्व व प्रथम सिंचाई के बाद इसका छिड़काव करें।
मटका खाद
विशेषतायें
i. स्थानीय संसाधनों से तैयार किया जाता है।
ii. यह तकनीक सरल, सस्ती और प्रभावशाली है।
iii. पौधों में वानस्पतिक वृद्धि तेजी से करती है।
iv. भूमि में मित्र जीवाणुओं की संख्या बढ़ाता है।
v. भूमि की उर्वरा शक्ति में वृद्धि करता है और उत्पादन बढ़ाता है।
vi. इसके उपयोग से रासायनिक खादों पर निर्भरता कम होगी।
vii. फसल की गुणवत्त में वृद्धि होती है।
आश्वयक सामग्री
i. गाय का ताजा गोबर 15 कि.ग्रा.
ii. देशी गाय का गौमूत्र 15 ली.
iii. गुड़ 250 ग्राम
iv. पानी 15 लीटर
v. प्लास्टिक का पात्र/मटका 1
बनाने की विधि
सर्वप्रथम 15 ली. पानी में 250 ग्राम गुड़ का घोल तैयार करें। इसके बाद पात्र में गौमूत्र डाल कर हिला दीजिये। मटके में 5 ली. गौमूत्र, 5 कि. ग्रा. गोबर व एक तिहाई गुड़ का घोल मिला दीजिये और एक लकड़ी की सहायता से दो मिनट तक सीधा व फिर उलटा घुमाइये। इसे क्रमवार दो बार करके सभी सामग्री अच्छी तरह मिला दीजिये। कुछ देर बाद 5 मिनट तक डण्डे से घुमाइये। इसके बाद घड़े का मुँह बंद कर दीजिये और ढक्कन को गोबर व मिट्टी से लीप दीजिये। 7-10 दिन तक छाया में रखें। तब खाद तैयार हो जायेगी। फिर 200 लीटर का ड्रम ले कर 150 ली, पानी भर कर यह मटका खाद उसमें मिला कर 30 मिनट तक घुमायें। इसके बादा 1 बीघा खेत में छिड़काव करें। पहला छिड़काव बुआई से दो दिन पहले, दूसरा बुआई के 15-20 दिन बाद तथा तीसरा छिड़काव फूल आने से पहले करें। मटका खाद बनाने के बाद दो तीन दिन में ही इसका उपयोग करना अनिवार्य है। 7 दिन से ज्यादा पुराना गौमूत्र उपयोग नहीं करना चाहिए।
उपयोग
i. 1 बीघा खेत में 30 ली. मटका खाद 150 लीटर पानी में मिला कर फसल में जड़ों के पास छिड़काव करें।
ii. अनाज वाली फसलों में - बुआई के 25 दिन, 45 दिन, व 70 दिन पर पानी में मिला कर छिड़काव करें।
iii. इसका छिड़काव करते समय खेत में नमी का होना आवश्यक है।
धान की फसल में रोग व कीट नियन्त्रण
सामग्री
i. गौमूत्र 10 ली.
ii. गाय का गोबर 5 कि. ग्रा.
iii. हल्दी पाउडर 250 ग्राम
iv. लहसुन का पेस्ट 250 ग्राम
v. पानी 5 लीटर
सभी सामग्री को आपस में मिला दें और 25-30 दिन तक प्लास्टिक पात्र में रखें। इसके बाद 150-200 ली. पानी तथा 1 ली. दूध मिला कर पौध रोपण के 20 दिन बाद व फूल आने से 15 दिन पहले फसल में छिड़काव करें।
1. कि.ग्रा. तुलसी की पत्तियों में 1 ली. पानी मिलाकर उबालें। जब आधा पानी रह जाय तो उसमें से तुलसी की पत्तियाँ छान लें व दुबारा गर्म करें। जब पानी 100-150 ग्राम रह जाय तो उबालना बन्द कर दें। झुलसा व फफूँदी रोगों से ग्रस्त फसलों पर इसका छिड़काव करें।
लकड़ी की राख, रेत, धान की भूसी को नीम के तेल या मिट्टी तेल में 5:1 के अनुपात में मिला कर 12 घंटे रखें। इसके बाद खेत में छिड़क दें। इसके छिड़काव से ग्रास हार्पर या कीट खेतों से भाग जाते हैं।
1 कि. ग्रा. तम्बाकू की पत्तियों का पाउडर 20 कि. ग्रा. लकड़ी की राख के साथ मिला कर रोपाई से पहले खेत में छिड़काव करें।
1 कि. ग्रा. तम्बाकू की पत्तियों को 10 ली. पानी में गर्म करें। ठण्डा होने के बाद उसमें 250 ग्राम चूना और 500 मि.ली. मिट्टी का तेल मिलायें। इसको 20 ली. पानी में मिला दें तथा उसमें 100 ग्राम साबुन का घोल मिला कर दीमक से फसल के बचाव के लिये छिड़काव करें।
1 ली. दूध में 12 ली. पानी मिलायें। 50 ग्राम तुलसी या बेल का रस मिला कर 15-20 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करें। यह फफूँदी वाले रोगों में काफी लाभदायक होता है।
धान की भूसी 5 कि. ग्रा., 2 ली. मट्ठा, 2 कि. ग्रा., तिल की पत्तियाँ, 6 ली. गोमूत्र को आपस में मिला कर एक प्लास्टिक पात्र में 7-10 दिन रखें। इसके बाद 40 ली. पानी मिला कर पौध रोपण से पहले खेत में छिड़क दें। यह मिर्च व बैंगन में बहुत उपयोगी है।
ज्यादा देर से रोपाई करने पर फसल पर रोग व कीट ज्यादा लगते हैं व उत्पादन कम होता है।
धान की फसल पर ज्यादा समय तक पानी भर कर नहीं रखना चाहिए। इससे झुलसा व अन्य तरह के कई रोग व कीट लगने की सम्भावना बढ़ जाती है। समय पर पानी खेत से बाहर निकालते रहना चाहिये जिससे भूमि में हवा का आवागमन सही ढंग से हो सके। इससे पौध अच्छी तरह बढ़ते हैं व उनमें रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ती है।
लोक विज्ञान संस्थान
लोक विज्ञान संस्थान (पी. एस. आई.) एक गैर-सरकारी जनहित अनुसंधान एवं विकास संस्थान है। आम लोगों को तकनीकी सेवाएँ उपलब्ध कराना इसका मुख्य लक्ष्य है।
पी. एस. आई जल संसाधन प्रबन्धन, आपदा उपरान्त पुनः निर्माण एवं पर्यावरणीय गुणवत्ता में सक्रिय अनुसंधान एवं तकनीकी कार्यक्रम संचालित करता है। संस्थान के पास सक्षम इंजीनियर, शोध वैज्ञानिक एवं सामाजिक कार्यकर्ता उपलब्ध है। इसके पास मिट्टी, जल एवं वायु के गुणवत्ता विश्लेषण करने के लिए एक सुसज्जित प्रयोगशाला है। इसका देहरादून स्थित सरकारी अनुसंधान संस्थानों और देश-विदेश में फैले कई गैर-सरकारी संगठनों से सम्पर्क है।
पी. एस. आई. में सहभागी जलागम विकास केन्द्र की स्थापना कपार्ट, नई दिल्ली के सहयोग से 1996 में हुई। केन्द्र उत्तर भारत में जल, जंगल, जमीन एवं उससे जुड़े अन्य बिन्दुओं, कृषि एवं चारा विकास के प्रबन्ध के लिए जलागम परियोजनायें चला रहा है।
पी. एस. आई. के वैज्ञानिकों ने पिछले कुछ वर्षों में कई तकनीकी एवं सामाजिक नवप्रवर्तन विकसित किये हैं। संस्थान द्वारा प्रचारित धान सघनीकरण प्रणाली (System of Rice Intensification) या श्रीधान विधि की पर्वतीय क्षेत्रों में धान की पैदावार को दोगुना करने की क्षमता रखती है। संस्थान का यह प्रयास रहता है कि शोध कार्यों के समापन पर उसके निष्कर्ष आम लोगों को सरल और आकर्षक ढंग से उपलब्ध कराया जाए। यह पुस्तिका ऐसा ही एक प्रयास है।
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