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यमुना की दिल्ली
Posted on 30 Oct, 2012 04:10 PM

पहले हमारा समाज अक्सर ऐसी नदियों के दोनों किनारे एक खास तरह का तालाब भी बनाता था। इनमें वर्षा के पानी से ज्यादा नदी की बाढ़ का पानी जमा किया जाता था। नद्या ताल यानि नदी से भरने वाला तालाब। अब नदी के किनारे ऐसे तालाब कहां बचे हैं। इनके किनारों पर हैं स्टेडियम, सचिवालय और बड़े-बड़े मंदिर। कभी यह दिल्ली यमुना के कारण बसी थी। आज यमुना का भविष्य दिल्ली के हाथ उजड़ रहा है।

सबसे पहले तो एक छोटा-सा डिस्क्लेमर! मैं वास्तुकारों की बिरादरी से नहीं हूं। मेरी पढ़ाई-लिखाई बिलकुल साधारण-सी हुई और उसमें आर्किटेक्चर दूर-दूर तक कहीं नहीं था। जिन शहरों में पला-बढ़ा और जिन शहरों में आना-जाना हुआ करता तो वहां की गलियों में, बाजारों में घूमते फिरते दुकानों के अलावा कुछ भी बोर्ड पढ़ने को मिलते। इन बोर्डों में अक्सर वकील और डॉक्टरों के नाम लिखे दिखते। हमारे बचपन में ये बोर्ड भी थोड़े छोटे ही थे। फिर समय के साथ विज्ञापनों की आंधी में ये बोर्ड उखड़े नहीं बल्कि और मजबूत बन कर ज्यादा बड़े होते चले गए।

फिर हमारे बड़े संयुक्त परिवार में एकाध भाई डॉक्टर बना, एक वकील बना और बाद में एक भाई आर्किटेक्ट भी। दो के बोर्ड लग गए लेकिन आर्किटेक्ट भाई का बोर्ड नहीं बना। बाद में उन्हीं से पता चला कि उनके प्रोफेशन में कोई एक अच्छी एसोसिएशन है जो बड़ी सख्ती से इस बात पर जोर देती है कि उसका कोई भी मेम्बर अपने नाम और काम का विज्ञापन नहीं कर सकता।
yamuna river in 1856
खुले में शौचमुक्त देश बनाने का सन्देश लेकर निर्मल यात्रा पहुंची इन्दौर
Posted on 10 Oct, 2012 08:37 PM -वाश प्रोग्राम में स्कूली बच्चे सीख रहे हैं हैंडवाशिंग
- डांस व कनवरसेशन स्किल के माध्यम से करेबियन कोरियोग्राफर बच्चों को सिखा रहा है साफ-सफाई के तरीके

इन्दौर। वाश युनाइटेड व क्विकसैंड द्वारा देश को खुले में शौच मुक्त बनाने का सन्देश लेकर निकली निर्मल भारत यात्रा रविवार को इन्दौर पहुंची। यह यात्रा वर्धा से चली है, जो पांच राज्यों -महाराष्ट्र के वर्धा के अलावा, म.प्र. के इन्दौर, ग्वालियर, राजस्थान के कोटा, उ.प्र. के गोरखपुर से होकर बिहार के बेतिया तक जायेगी। इस दौरान इन सभी ऐतिहासिक शहरों में दो दिवसीय मेले का भी आयोजन किया जा रहा है।
स्कूलों में बच्चों को खुले में शौच से होने वाली जानलेवा बीमारियों के प्रति जागरूक करते कार्यकर्ता
‘आज भी खरे हैं तालाब’ का दीवाना फरहाद
Posted on 27 Mar, 2012 04:44 PM ‘आज भी खरे हैं तालाब’ का पहला संस्करण कोई अट्ठारह बरस पहले आया था। तब से अब तक गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली ने इसके पांच संस्करण छापे हैं। पुस्तक पर किसी तरह का कॉपीराइट नहीं रखा था। गांधी शांति प्रतिष्ठान के पांच संस्करणों के अलावा देश भर के अनेक अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं, संस्थाओं, आंदोलनों, प्रकाशकों और सरकारों ने इसे अपने-अपने ढंग से आगे बढ़ाया है, इन अट्ठारह बरसों में। कुछ ने बताकर तो कुछ ने बिना बताए भी।

‘आज भी खरे हैं तालाब’ के कोई बत्तीस संस्करण और कुल प्रतियों की संख्या 2 लाख के आसपास छपी और बंटी।
आज भी खरे हैं तालाब
कब तक सहेंगे हम मां गंगा की अनदेखी?
Posted on 13 Mar, 2012 04:16 PM

स्वामी ज्ञानस्वरूप के जल त्याग को व्यापक समर्थन की अपील


वाराणसी के कबीरचौरा तपस्या स्थली (अस्पताल) में स्वामी ज्ञानस्वरूप से मिलने पहुंचे काशी के प्रमुख जनवाराणसी के कबीरचौरा तपस्या स्थली (अस्पताल) में स्वामी ज्ञानस्वरूप से मिलने पहुंचे काशी के प्रमुख जनमित्रों! क्या किसी की मृत्यु पर शोक जताने की रस्म अदायगी मात्र से हमारा दायित्व पूरा हो जाता है? गंगा के लिए प्राण देने वाले युवा संत स्व. स्वामी निगमानंद उनके बलिदान पर शोक जताने वालों की बाढ़ सी आ गई थी। समाचार पत्रों ने संपादकीय लिखे। चैनलों ने विशेष रिपोर्ट दिखाई। स्वयंसेवी जगत ने भी बाद में बहुत हाय-तौबा मचाई। गंगा एक्सप्रेसवे भूमि अधिग्रहण के विरोध में रायबरेली और प्रतापगढ़ में मौतें हुईं।

swami gyanswaroop sanand
विनाश की ओर बढ़ता विकास
Posted on 21 Nov, 2011 02:17 PM

सबसे बड़ी चिंता ये है कि हमने इतना प्रदूषण पैदा कर दिया है कि हमारी समुद्र की सतह पर जो गर्मी रहा करती थी, वो बढ़ रही है और गर्मी बढ़ने के कारण जो हवाएं ठीक से चलनी चाहिए, उसमें विघ्न पड़ गया है। उस विघ्न का भी नाम उन्होंने अलनीनो इफेक्ट कह रखा है। उसके कारण से जो बिचारे बादल आ रहे थे, वे बीच में रुक गए और बाकी के लौट गए बेचारे। अगर बादलों को हवा नहीं ले के आएगी, तो बादलों के पांव तो कोई होते नहीं हैं। अपने आप तो वो चल कर आ नहीं सकते हैं। उनको हवाएं ही लाएंगी। और वो हवाएं अगर गड़बड़ हो गई हैं, तो क्या होगा?

कल मैं पटना से चला। वो हफ्ते में दो दिन चलने वाली गाड़ी है, इसलिए उसमें ज्यादा भीड़ नहीं थी। मैं जाकर अपनी जगह पर बैठा। सामने एक विदेशी लेटे हुए थे। थोड़ी दूर गाड़ी आगे निकली। उन्होंने देखा कि उस डिब्बे में बैठे हुए लोग आकर मेरे दस्तखत लेने की कोशिश कर रहे हैं, मुझसे बात कर रहे हैं। उनको लगा कि ऐसे लेटे रहना शायद ठीक नहीं है। उन्होंने उठकर किसी से जाकर बात की होगी कि ये कौन हैं। फिर उन्होंने मुझसे माफी मांगी और कहा कि मैं इतनी देर पैर पसारे आपके सामने इस तरह से लेटा हुआ हूं तो ये मैं असभ्यता कर रहा था। मुझे बहुत अच्छा लग रहा है कि मैं आज आपके साथ यात्रा कर रहा हूं।

वे जर्मनी के पत्रकार थे। एक साल की छुट्टी लेकर दुनिया घूमने के लिए निकले हुए हैं। अभी वो बिलकुल चले आ रहे थे चीन से। वे चीन से नेपाल आए और नेपाल से दार्जिलिंग आए और दार्जिलिंग से बस पकड़कर पटना। पटना स्टेशन के बाहर भोजन वगरैह करके बहुत थके हुए थे, इसलिए लेट गए होंगे। जवान आदमी, ठीक बात कर रहे थे। पूछा कि आप क्यों जा रहे हैं वहां। मैंने बताया कि वहां सर्व सेवा संघ में आधुनिक सभ्यता के संकट पर ‘हिन्द स्वराज’ की चर्चा है। जर्मनी के किसी प्रसिद्ध विश्वविद्यालय में पढ़े अच्छे पत्रकार थे वे। उन्होंने कहा कि हां संकट तो सही है लेकिन
संदर्भः भूमि अधिग्रहण बिल व प्रादेशिक नीतियां
Posted on 22 Oct, 2011 02:55 PM

मुआवजा बढ़ाने से ज्यादा कृषि व सामुदायिक भूमि बचाने की नीति बनाने की जरूरत

land acquisition
बुंदेलखण्ड में मुश्किलों का नया दौर
Posted on 21 Oct, 2011 12:59 PM

कटान, खदान और जमीन हड़पो अभियान

talab
नीति बनाकर ही हो नदियों का संरक्षण
Posted on 18 Oct, 2011 12:03 PM

यदि नदियों को और खुद को बचाना है, तो सामाजिक जवाबदारी व हकदारी दोनों साथ सुनिश्चित करनी ही पड़

Yamuna
नीर फाउंडेशन ने मनाया वन महोत्सव
Posted on 05 Aug, 2011 08:03 PM वर्ष 2011 के वन महोत्सव (1-7 जुलाई) में नीर फाउंडेशन ने वन विभाग के साथ मिलकर वृक्षारोपण का निर्णय लिया। संस्था द्वारा तय किया गया कि विभाग के माध्यम से इस बार विभिन्न स्थानों पर करीब 500 पेड़ लगाए जाएंगे। इसके लिए तीन स्थानों का भी चयन किया गया। संस्था द्वारा इस अभियान को वर्ल्ड अर्थ नेटवर्क से भी जोड़ दिया गया, जिससे कि वर्ष 2011 का यह वन महोत्सव एक अन्तर्राष्ट्रीय गतिविधि में भी शामिल हो गया। ग
नीर फाउंडेशन का मुखपत्र ‘पर्यावरण संदेश’
Posted on 05 Aug, 2011 07:36 PM नीर फाउंडेशन द्वारा द्वारा पिछले कुछ समय से यह महसूस किया जा रहा था कि पर्यावरण से जुड़े स्थानीय, राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दे आम समाज तक नहीं पहुंच पा रहे हैं और न ही आम जन की पर्यावरण प्रेम की पुकार नीति-निर्माताओं व उसके कर्ता-धर्ताओं तक पहुंच पा रही है। ऐसे में हिन्दी भाषी त्रैमासिक मुखपत्र ‘पर्यावरण संदेश’ के माध्यम से प्रयास होगा कि हम पर्यावरण संबंधी नई जानकारियां समाज तक पहुंचा सकें।
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