पश्चिम बंगाल

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भारत की नदियां
Posted on 19 Sep, 2008 06:18 PM

भारत की नदियों को चार समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है जैसे, हिमाचल से निकलने वाली नदियाँ, डेक्‍कन से निकलने वाली नदियाँ, तटवर्ती नदियाँ ओर अंतर्देशीय नालों से द्रोणी क्षेत्र की नदियाँ। हिमालय से निकलने वाली नदियाँ बर्फ और ग्‍लेशियरों के पिघलने से बनी हैं अत: इनमें पूरे वर्ष के दौरान निरन्‍तर प्रवाह बना रहता है। मॉनसून माह के दौरान हिमालय क्षेत्र में बहुत अधिक वृष्टि होती है और नदियाँ बारिश

नदियां
मौत का पानी : दीपांकर चक्रवर्ती
Posted on 17 Sep, 2008 12:15 PM अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पानी में आर्सेनिक नामक विषैले तत्व की मौजूदगी की ओर उस वक्त लोगों का ध्यान गया, जब 1994-95 में 'द एनालिस्ट' में आपका शोधपत्र छपा, जिस पर 1996 में 'द गार्डियन' में छपे एक लेख में 'द वाटर ऑफ डैथ' (मौत का पानी) शीर्षक से टिप्पणी की गई थी। भूजल में आर्सेनिक विशाक्तता अब पानी को मौत का पानी बना रही है, इंडिया वाटर पोर्टल के लिए दिए गये साक्षात्कार की हिन्दी प्रस्तुति
दीपांकर चक्रवर्ती
पानी के मसले एक ही मंत्रालय के पास हो
Posted on 07 Sep, 2008 09:46 PM

हर आम और खास की सबसे बड़ी जरूरत है पानी। बढ़ती आबादी व सीमित पानी को देखते हुए झगड़े भी बढ़ रहे हैं। देश में पानी राज्यों का विषय है और केंद्रीय स्तर पर भी पानी कई मंत्रालयों में बंटा है। इन हालात में केंद्रीय जल संसाधन मंत्री सैफुद्दीन सोज का आए दिन किसी न किसी नए विवाद से सामना होता रहता है। उनका स्पष्ट मानना है कि पानी के लिए तो एक ही मंत्रालय होना चाहिए। 'दैनिक जागरण' के विशेष संवाददात

केंद्रीय जल संसाधन मंत्री सैफुद्दीन सोज
सुन्दरबन पर्यावरणीय रिपोर्टिंग के लिये ग्रांट
Posted on 09 Jun, 2018 12:37 PM


आवेदन की अन्तिम तिथि - 28 मई 2018
संस्था: The Third Pole

The Third PoleThe Third Poleपर्यावरण से जुड़े मुद्दों के प्रचार-प्रसार और मीडिया रिपोर्टिंग की गुणवत्ता बढ़ाने के उद्देश्य से ‘द थर्ड पोल’ पत्रकारों को अनुदान मुहैया करा रहा है। इस अनुदान का फोकस सुन्दरबन पर है। अनुदान पाने की इच्छा रखने वाले पत्रकारों को सुन्दरबन में हो रहे मौसमी और पर्यावरणीय बदलाव से जुड़े मुद्दों पर सारगर्भित स्टोरीज करनी होगी जिसका फोकस वहाँ निवास करने वाले आर्थिक रूप से कमजोर लोगों, महिलाओं और उनकी समस्याओं पर भी होना चाहिए।

द थर्ड पोल
भूजल में आर्सेनिक की रासायनिक यात्रा (Arsenic Contamination in Groundwater)
Posted on 03 Jun, 2016 04:31 PM

विश्व पर्यावरण दिवस, 05 जून 2016 पर विशेष

 


.बिहार में करीब चालीस साल पहले सिंचाई में भूजल का इस्तेमाल आरम्भ हुआ। लोग संशय से भरे थे। इसे ‘नरक से आने वाला पैशाचिक पानी’ ठहराया गया। लेकिन भूजल के इस्तेमाल का दायरा बढ़ता गया। इसमें सन 67-68 में अकाल का बड़ा योगदान था। तालाब और कुआँ खुदवाने की अपेक्षा नलकूप लगाना आसान और सस्ता था। बड़े पैमाने पर नलकूप लग गए।

पानी सर्वसुलभ होने का असर खेती पर पड़ा। अब धान की दो फसलें हो सकती थीं। लेकिन इस पानी में जहर आर्सेनिक छिपा था। इसका पता बहुत बाद में चल पाया। भूजल के अत्यधिक उपयोग से धरती के भीतर छिपा आर्सेनिक पानी में घुलकर बाहर आने लगा।

सुंदरबन के आखिरी रक्षक
Posted on 02 Nov, 2010 10:07 AM बताया जाता है कि सुंदरबन के लगभग पाँच प्रतिशत बाघ आदमखोर हैं। यह अ
जहाँ मीठा पानी एक सपना है
Posted on 27 Oct, 2010 12:46 PM चेतावनी जारी हो गई है। पता नहीं हम कहाँ जाएंगे। वह मंदिर जहाँ छह महीने पहले तक घंटियां गूंजा करती थी, वह चाय की छोटी दूकान जहाँ लोग चाय पर अपनी सुबहे, शामें बांटा करते थे...सब डूबने के इंतजार में हैं। बांध नंगे हो चुके हैं। तूफानी हवा, और खारे पानी को रोकने वाले मैन्ग्रूव जंगल गायब है। उसकी जड़े जो मजबूती से जमीन को पकड़ कर रखती थी वे उजड़ चुकी हैं। पानी को आना है, द्वीप को उसी तरह डूबना है जैसे कुछ साल पहले सागर आईलैंड के पास का एक द्वीप लोहाछाड़ा डूब गया था।अनादि राय दरार पड़े खेत की तरफ फटी फटी आंखों से देख रहा है। वहाँ से उसकी निगाहें खारे पानी के तालाब की तरफ जाती है और उसकी आंख में तालाब का खारा पानी भर जाता है।

डूबते द्वीप के साथ उसका दिल भी डूब रहा है। ना फटी जमीन का कोई रफूगर है ना उसकी फूटी किस्मत का।

गीली आंखों से देखता है, दूर से उसकी माँ गैलन में मीठा पानी लेकर चली आ रही है। चाची छवि राय अपनी बेटी को पुकार रही है...वह जिस द्वीप पर है वहाँ कुछ भी अनुकूल नहीं है...जीवन हर पल खतरे में। छह महीने पहले आए समुद्री चक्रवात आइला ने उनके समेत पूरे द्वीप के लोगो का जीवन तबाह कर दिया है। खेतों में खारा पानी क्या घुसा, किस्मत में दरारे पड़ गई। अब तीन साल तक गाँव में कोई खेती नहीं हो पाएगी। जमीन फटी रहेगी। कोई फसल नहीं उग सकती। तालाब ना जाने कब अपने खारेपन से उबरेगा। मीठा पानी एक सपना है। घर अब भी वैसे ही टूटे हैं, किसी भी रात गाँव का कोई एक सदस्य गायब हो सकता है।
नहीं चाहिए नयाचर में केमिकल हब
Posted on 31 Aug, 2010 07:35 AM
पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य जमीन के सवाल पर निकट अतीत की गलतियों से सबक नहीं लेना चाहते। उनकी सरकार अब पूर्वी मेदिनीपुर के नयाचर में केमिकल हब स्थापित करने को तत्पर हो उठी है। नयाचर द्वीप की जमीन इंडोनेशिया के सलेम समूह को केमिकल हब बनाने के लिए दी जा रही है। भोपाल गैस त्रासदी की यादें अभी ताजा हैं फिर भी यह सरकार, जो अपने को जनवादी कहती है, किसलिए केमिकल हब के लिए व्याकु
संकटग्रस्त सुन्दरवन और न्यू मूर द्वीप अब सागर के आगोश की ओर
Posted on 11 Aug, 2010 11:55 AM
दुनिया में अपने सदाबहार वनों के कारण 3500 किमी. के क्षेत्रफल में फैले और तटबन्ध से सुरक्षित वन्यक्षेत्र सुन्दरवन के रूप में पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। सुन्दरवन के परिक्षेत्र में स्थित न्यू मूर द्वीप समुद्र के गहराईयों में समा गया है। भारत-बांग्लादेश के मध्य विवादित 9 किलोमीटर परिधि वाले इस निर्जन द्वीप को बांग्लादेश में तालपट्टी और भारत में पुर्बासा कहा जाता है। यह क्षेत्र 1954 के आंकड़ों के अनुसार समुद्र तल से 2-3 मीटर की ऊंचाई पर स्थित था जो वर्तमान में समुद्र में विलीन हो गया है।

वर्तमान में न्यू मूर द्वीप के खोने के बाद यह संकट सुन्दरवन क्षेत्र पर आ गया है। यहां पर अधिकांश नदियों के तटबन्ध समुद्र के
बंगाल में सिंचाई
Posted on 06 Aug, 2010 09:01 AM बंगाल में जलप्लवान सिंचाई व्यवस्था काफी लोकप्रिय थी। इसमें गंगा और दामोदर में बाढ़ के पानी और बरसात के पानी का पूरा इस्तेमाल किया जाता था। इस सदी के प्रारंभ में इस व्यवस्था का अध्ययन करने वाले विलियम विलकॉक्स के मुताबिक, यह बंगाल की विशिष्ट जरूरतों के बिल्कुल अनुकूल थी। बंगाल में जलप्लवान सिंचाई व्यवस्था काफी लोकप्रिय थी। इसमें गंगा और दामोदर में बाढ़ के पानी और बरसात के पानी का पूरा इस्तेमाल किया जाता था। इस सदी के प्रारंभ में इस व्यवस्था का अध्ययन करने वाले विलियम विलकॉक्स के मुताबिक, यह बंगाल की विशिष्ट जरूरतों के बिल्कुल अनुकूल थी। इस सिंचाई व्यवस्था के विशेष गुण ये थे-

 नहरें चौड़ी और उथली थीं, जो नदी में बाढ़ का पानी बहा ले जाती थीं। इस पानी में महीने मिट्टी और मोटी रेत होती थी।
 नहरें एक-दूसरे की समानान्तर लंबी होती थीं। उनमें बीच की दूरी सिंचाई के लिहाज से उपयुक्त होती थी।
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