Posted on 06 Dec, 2013 10:34 AMजननी, जन्मभूमि स्वर्गादपि सबको अपनी-अपनी प्यारी। कौन नहीं जो उसके ऊपर हंस-हंसकर जाए बलिहारो।। कौन नहीं पुलकित होता है उसकी मनहर-प्रेरक छवि पर। करे नहीं वंदन-अभिनंदन उसका किस युग के कवि का स्वर।। व्योम-बिहारी पक्षी-गण भी फिर-फिर निज नीड़ों में आते। सिंह, सरीसृप, स्यार कौन जो अपने चुल-बिल को बिसराते।। जन्म भूमि का संग छुटते वृक्ष, बेलि, तृण-दल कुम्हलाते।
Posted on 06 Dec, 2013 10:33 AMसजनि ! मत्त ग्रीवालिंगन में कर शत-शत श्रृंगार, मिलने आकर खिंच जाती फिर किस ब्रीडा के भार? अगणित कंठों से गा-गाकर अस्फुट मौलिक गान, प्रात पहनकर तरणि-किरण का तितली-सा परिधान, बुदबुद-दल की दीपावली में भर-भर स्नेह अपार, तिमिर-नील शैवाल-विपिन में करती नित अभिसार। बरवै छंदों-सी ऋतु, कोमल, तू लघु सानुप्रास, सहृदय कवि से सलिल हृदय में उमड़ रही सविलास।
Posted on 05 Dec, 2013 11:07 AMभाषा के जल की नदी है जैसे यह जल है भाषा का जैसे भाषा ही जल है जैसे कबीर का कूप है कहीं आसपास जैसे कूप में जल नहीं भाषा है कबीर की
इस नदी में नाव है एक इस तरह इस नदी में जल के अलावा भी कुछ है इस तरह नदी के जल को सहूलियत से बरतने के लिए भाषा पतवार है
Posted on 05 Dec, 2013 11:02 AMहमेशा बहती रहती है मेरे अंदर यह नदी जैसे धमनियों के अंदर बहता है खून मुझे जिंदा किए हुए मेरे अंदर उसी तरह रहता है मेरा गांव व लहलहाते खेत, खलिहान, मस्त हवा में झूमते पेड़ जैसे जीवन के आखिरी पलों तक रहती है मां की याद और मेरे बाद भी यह नदी यह बलुहे तट यह मझधार में तैरती नावों पर गूंजता मांझी गीत और बंसी की डोर से कसे