दिल्ली

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‘सर्वोच्च देवि, ओ वेत्रवती’
Posted on 08 Dec, 2013 10:22 AM तेरा अक्षय सौभाग्य सिंधु, प्रतिबिंबित जिसमें भानु-इंदु,
मणि है तारों के बिंब, अंब, नीले-पीले-पट पर आनंद-कंद।

श्रृंगार संजोए प्रकृति नटी, तुंग-तरंगिनि, मानवती।
ऊषा का शुभ सिंदूर दिए, कंघा, समीर का ललित लिए,
तट-विटप-केश को लहराकर, लख रही मांग, नभ-मुकुर किए।

ओ बन-वासिनि! ओ पुण्यवृती, पग-पग पर बढ़ हुई क्रांतिवती।।
धन्न, बेतवा-माई
Posted on 06 Dec, 2013 10:38 AM टोरन टोर, दौर के आई, धन्न, बेतवा माई।
पार-पारियां, कूंदत-फांदत, अपनी गैल बनाई,
भरत-चौकरीं, हिन्नन जैसी, जन-गन मन पै छाई।
ऐसी छनक-बनक ना देखी, लख नागिन सकुचाई,
चकाचौंध हो गए ‘गुन-सागर’, कवि-मन मो लए माई।।
गंगा-माता कल-जुग बारी, जीवन-प्रान हमारी।
धरम-पंथ-मत एक करत तुम, सांची गैल तुमारी,
आन ओंड़छे में कासी सौ, सुख सरसावे वारी।
जब चली बेतवा घर से
Posted on 06 Dec, 2013 10:34 AM जननी, जन्मभूमि स्वर्गादपि सबको अपनी-अपनी प्यारी।
कौन नहीं जो उसके ऊपर हंस-हंसकर जाए बलिहारो।।
कौन नहीं पुलकित होता है उसकी मनहर-प्रेरक छवि पर।
करे नहीं वंदन-अभिनंदन उसका किस युग के कवि का स्वर।।
व्योम-बिहारी पक्षी-गण भी फिर-फिर निज नीड़ों में आते।
सिंह, सरीसृप, स्यार कौन जो अपने चुल-बिल को बिसराते।।
जन्म भूमि का संग छुटते वृक्ष, बेलि, तृण-दल कुम्हलाते।
तरंग
Posted on 06 Dec, 2013 10:33 AM सजनि ! मत्त ग्रीवालिंगन में कर शत-शत श्रृंगार,
मिलने आकर खिंच जाती फिर किस ब्रीडा के भार?
अगणित कंठों से गा-गाकर अस्फुट मौलिक गान,
प्रात पहनकर तरणि-किरण का तितली-सा परिधान,
बुदबुद-दल की दीपावली में भर-भर स्नेह अपार,
तिमिर-नील शैवाल-विपिन में करती नित अभिसार।
बरवै छंदों-सी ऋतु, कोमल, तू लघु सानुप्रास,
सहृदय कवि से सलिल हृदय में उमड़ रही सविलास।
सरिता के प्रति
Posted on 06 Dec, 2013 10:31 AM सजनि! कहां से बही आ रही, चली किधर किस ओर?
किसके लिए मची है हिय में, यह व्याकुलता घोर?

अगणित हृदयों में छेड़ी है मूक व्यथा अनजान,
कितने ही सूनेपन का, कर डाला है अवसान।

बिछा प्रकृति का अंचल सुंदर तेरा स्वागत सार,
चूम-चूमकर वृक्ष झूमते, ले-ले निज उपहार।

सतत तुम्हारे मन-रंजन को विहग करें कल्लोल,
तुझे हंसाने को ही निशि-दिन बोलें मीठे बोल!
दृश्य और भाव
Posted on 06 Dec, 2013 10:29 AM आकाश
उतना ही नीला
जितना आंखों का उस पर
भरोसा
नीला

सूरज
उतना ही पीला
जितना पुतलियों में
दीप्ति का रंग
पीला

नदी का पानी
उतना ही गीला
जितना तरल होने का संस्कार
पानी को करता गीला।

भाषा का जल
Posted on 05 Dec, 2013 11:07 AM भाषा के जल की नदी है
जैसे यह जल है भाषा का
जैसे भाषा ही जल है
जैसे कबीर का कूप है कहीं आसपास
जैसे कूप में जल नहीं
भाषा है कबीर की

इस नदी में नाव है एक
इस तरह इस नदी में
जल के अलावा भी कुछ है
इस तरह नदी के जल को
सहूलियत से बरतने के लिए
भाषा पतवार है

जल की भाषा नाव की भाषा से अलग है
कविता के बीच
Posted on 05 Dec, 2013 11:02 AM हमेशा बहती रहती है
मेरे अंदर यह नदी
जैसे धमनियों के अंदर
बहता है खून मुझे जिंदा किए हुए
मेरे अंदर उसी तरह
रहता है मेरा गांव व
लहलहाते खेत, खलिहान,
मस्त हवा में झूमते पेड़
जैसे जीवन के आखिरी पलों तक
रहती है मां की याद और
मेरे बाद भी यह नदी
यह बलुहे तट
यह मझधार में तैरती
नावों पर गूंजता मांझी गीत और
बंसी की डोर से कसे
अनंत दीप
Posted on 05 Dec, 2013 10:55 AM हिमालय पिघल के
उतर आया
सागर से मिलने को आतुर

पृथ्वी के वक्ष से
बह रही गंगा

यह कैसी संध्या है!
घुल रहे जलधार में
आरती के मंत्र
ठहर गया हवा में
अंतस का संगीत

उतर आया
एक उत्सव घाट पर
गंगा से आ लिपटी
आकाशगंगा
पृथ्वी की गोद में
जल की लहरों पर
उर में अग्नि लिए
प्रकंपमान जगत्प्राण में
सलापड़
Posted on 05 Dec, 2013 10:53 AM पर कटे पर्वत का
बींधकर उदर
पानी से पानी मिला
घाटी से घाटी

मानसरोवर में जा डूबा
व्यास-कुंड
शतद्रु से जा गले मिली
वत्सला विपाशा

मस्तिष्क के विस्तार में
आदमी के हाथों ने
भविष्य के लिए रचा है
एक और पुराण।

5 नवंबर, 1999, मंडी से मनाली जाते हुए

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