प्रेमशंकर शुक्ल

प्रेमशंकर शुक्ल
जंगल में जल
Posted on 03 Jun, 2011 09:42 AM
जंगल में जल
कितना घरेलू लग रहा है
कितनी भटकन के बाद
गहरी प्यास में पी रहा हूँ
झरने का जल

झरना छलक रहा है-हुलस रहा है
करता हमारा आतिथ्य

इतना मीठा पानी
छलल-छलल प्रवाह
और इतना उछाह
जैसे झरना कब से रहा है
हमारे ही इंतजार में

पी कर निर्मल-शीतल नीर
हमारे होंठ भी झरने के छन्द में हो गए हैं
काहे नहीं ऐसै
Posted on 02 Jun, 2011 09:29 AM
सज-धज के आयी रे बादरी
बरसै झुमकि-झूम

हुलसै आँगन-बीच
पानी में
पूर-पूर गागरी

देखि यह राग
(संग न सुहाग!)
सोच रही सजनी
काहे नहीं ऐसै
मोर भाग जाग!!

सादगी
Posted on 01 Jun, 2011 09:24 AM
पानी में अथाह सादगी है
चुल्लू में भरा जल हो
या परात में
गरिमामय सादगी से डोलता है

सुराही चाहे कितनी भी भव्य हो
पानी अपनी विरल सादगी से ही
भरता है गिलास

हलक चाहे राजा का हो
या प्रजा का
पानी अपनी सहज तरलता से ही
सींचता है उसे

पानी चाहे सुवर्ण-पात्र में हो
या कुल्हड़ में
अपने स्वभाव में होता है हरहमेशा
बूँद-वृत्त
Posted on 31 May, 2011 11:52 AM
बूँद-वृत्त
बनता पानी पर
मन को बहुत लुभाए।

यह भी एक प्यास है अपनी
पानी से
अनुराग जगाए।।

की आँगन में बूँदें
समुद्र का आगमन है
बादल के रास्ते

बरस रहा पानी
जो जहाँ है
की प्यास के वास्ते।।

असाढ़ का गरजा
Posted on 30 May, 2011 09:00 AM
असाढ़ गरजा:
खेतिहर थपथपा रहा
बैलों की पीठ
साज रहा जुआँ-हल
हटा रहा खेतों से
कचरा-काँटा

असाढ़ गरजा:
महक उट्ठा माटी का मन

कुटकी, कोदो, अरहर
ज्वार, बाजरा, धान
बीज बन निकल रहे बाहर
ओसार के

खेतों में
गरज-तरज कर बादल
छींट रहे हैं बूँद-बीज
और खेतिहर बखर-बखर कर
अन्नबीज
पहचान
Posted on 28 May, 2011 08:44 AM
पानी नवोन्मेष का
नवजीवन का प्रतीक है
पानी का ही
सबसे पुराना अतीत है

पानी ही रस है
रसना पानी के ही चलते
है लरम और उच्चारण-समर्थ

मुश्किलें ऐसी की दिन भर
इतना पानी खर्च होता है
कि आवाज़ को संतुलित
और मधुर रखना है कितना कठिन

भिड़ते-जूझते हमको हमारी
पानी ही पहचान देता है!

पानी पर कविता
Posted on 27 May, 2011 09:02 AM
कितना निर्मल-तरल मन चाहिए
लिखने के लिए पानी पर कविता
कवि के भीतर
पानी भी होना चाहिए पूरम्पूर

पानी पर कविता लिखने के लिए
पानी की हर हलचल पर
लगाना होता है पूरा आँख-कान
जुबान को पथरा (ने) नहीं देना
कवि के लिए सतत चुनौती है

प्यास के भूगोल से तय होती है
पानी की कविता की गहराई
पानी से ही पता चलता है
कि पानी की कविता
पानी बोलता है
Posted on 26 May, 2011 09:06 AM
पानी बोलता है
एक तरल जबान
प्यास जिसे कण्ठस्थ करती है
और तृप्ति करती रहती है
तरह-तरह के भाष्य

पानी बोलता है
तल में-
बादल में-
बहती धार में
गागर में-सागर में

पानी बोलता है
बारिश जिसका एक लहजा है

कविता में पंक्तियों का समय है यह
धरती में पानी के स्वच्छ-बचाव का

पानी बोलता है
जो नहीं बोलता
पानी अग्निगर्भ है
Posted on 25 May, 2011 09:07 AM
पानी बग़ावत करता है
झूठ-मूठ में सिर नहीं हिलाता

पानी जहाँ भी है
कुछ न कुछ कर रहा है
ज़िन्दगी का काम-काज

पानी ही है जो आँख में
सच्चाई चीन्हता है
और हथेलियों की आग

पानी अग्निगर्भ है
बिजली पैदा करता है
पचाता है अन्न

पानी का बल
कि अनुशासित है
बीहड़ से बीहड़ प्यास

आदिकवि की रामायण खोलो
बूँद-बुँदानी
Posted on 24 May, 2011 09:36 AM
बादल-घर से
धरती पर
उतर रहे हैं
बूँद-बुँदानी

माटी महक रही है

भीग-भीग कर
गीत बन रही
अपनी बोली-बानी।।

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