एस. एन. गुप्ता

एस. एन. गुप्ता
ऐ नदी...
Posted on 07 Sep, 2013 03:08 PM
सच बताना ऐ नदी
क्यों उछलती आ रही हो
हिम पर्वतों से निकल
क्यों पिघलती जा रही हो
प्रकृति में सौन्दर्य है ...
उसी से मिलकर चली हो
निज चिरंतन वेग ले
माटी में उसकी सनी हो
राह में बाधाएं इतनी
फिर भी सदा नीरा बनी हो
अटल नियति है यही
अनवरत बहना तुम्हें है
पाप कोई जन करे
बोझ तो ढोना तुम्हें है
आज भी कितने मरूथल
पहाड़ की पीड़ा
Posted on 30 Aug, 2013 12:51 PM
विधाता ने कितने श्रम से
बनाया होगा पहाड़ को
कि उसकी प्रिय कृति मनुज
कुछ तो निकटता
अनुभव कर सके उससे
ऊँचे ऊँचे वृक्ष,फल,वन पुष्प
बलूत, बुराँस,शैवाक
हरे भरे बुग्याल और
सबकी क्षुधा शांत करने हेतु
कलकल करते झरने
उन सबके मध्य
पसरी हुई घाटी से
होकर बहती पहाड़ की
लाडली नदी जिसे
बड़े यत्न से अपनी
जल नहीं अनंत है...
Posted on 30 Aug, 2013 12:50 PM
यह विनम्र गंग धार
बह रही अनंत से
विमल चली थी स्रोत से
समल बना दिया इसे
विनाश तो विहंस हो
बजा रहा मृदंग है
दैव भी सुरसरि का
नाश देख दंग है
क्या हुआ है मनुज को
क्यों अंत देखता नहीं
ज्ञान क्या नहीं उसे
जल नहीं अनंत है
सभ्यता विहान से
युगों के आह्वान से
उदय है विज्ञान का
छू रहा है गगन आज
मैं एक नदी सूखी
Posted on 24 Aug, 2013 11:30 AM
मैं एक नदी सूखी सी
कल मैं कलकल बहती थी
उन्मुक्त न कोई बंधन
क्वांरी कन्या सी ही थी
पूजित भी परबस भी थी
जब सुबह सवेरे सूरज
मेरे द्वारे आता था
सच कहूँ तो मेरा आँगन
उल्लसित हो जाता था
आलस्य त्याग कर मुझ में
सब पुण्य स्थल को जाते
जब घंटे शंख,अज़ान
गूंजते थे शांति के हेतु
मैं भी कृतार्थ होती थी
उसमें अपनी छवि देकर
वसुंधरा
Posted on 23 Aug, 2013 11:20 AM
प्रकाशमय किया है सूर्य ने जिसको
चंद्रमा ने वर्षा की है रजत किरणों की
प्रसन्न हैं झिलमिल तारे जिसे देख कर
फूलों ने भी बिखेरी है सुगंध हंसकर
ऐसी न्यारी सुन्दर वसुंधरा ये है
प्रकृति ने संवारा है इसको बड़े श्रम से
वन,पर्वत,घाटी,नदियाँ,झरने सभी
रंग भरते हैं इसमें सतरंगी
समय के साथ इसकी सुन्दरता
बढ़ती ही जा रही थी असीम
निर्मल जल की धारा
Posted on 20 Aug, 2013 10:38 AM
नन्हीं निर्मल जल की धारा
जब धरा से फूट निकलती है
बच बाधाओं से कुछ सकुचाती
निज श्रम से मार्ग बनाती है
कोई साथ नहीं कुछ ज्ञात नहीं
सब कुछ ही तो अन्जाना है
उत्साहित हो अपने बल पर
आगे ही आगे बढ़ते जाना है
संकल्प लिए दृढ़ निष्ठा से
उठती गिरती कल कल करती
कहीं उछल कूद कर गाती सी
चट्टानों से भी टकरा जाती
उसके कृत से आकर्षित हो
मैं गंगा हूँ माँ भी हूँ मैं
Posted on 17 Aug, 2013 09:18 AM
मैं गंगा हूँ माँ भी हूँ मैं

कहते जग की कल्याणी मैं

शिव के ललाट में धारी हूँ

उनके करवट लेने से ही

मैं प्रलयंकर बन जाती हूँ

जो गरल पी गए थे हंस कर...

उन सर्जक की अभिलाषा हूँ

मैं सदियों से बन मोक्ष दात्री

अमृत घट, प्रलय ले साथ-साथ

हिमवान पिता का प्रणव घोष
मैं गंगा हूँ
Posted on 16 Aug, 2013 04:26 PM
मैं गंगा हूँ-गंगा मैया,

हाँ, यही तो प्रसिद्ध नाम है मेरा,

भागीरथी, जान्हवी, मंदाकिनी, विष्णुपदी
अन्य कई नाम भी है मेरे,

महाराजा भागीरथ बने थे
भू-लोक पर मेरे अवतरण के कारक,

मैंने ही मोक्ष प्रदान किया था सगर पुत्रों को,

भारत राष्ट्र की आत्मा मुझमें बसती है,

यमुना, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, नर्मदा,
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