पेयजल के भरोसेमंद स्रोत नौला मनुष्य द्वारा विशेष प्रकार के सूक्ष्म छिद्र युक्त पत्थर से निर्मित एक सीढ़ीदार जल भण्डार है, जिसके तल में एक चौकोर पत्थर के ऊपर सीढ़ियों की श्रृंखला जमीन की सतह तक लाई जाती है। सामान्यतः तल पर कुंड की लम्बाई- चौड़ाई 5 से 8 इंच तक होती है, और ऊपर तक लम्बाई-चौड़ाई बढ़ती हुई 4 से 8 फीट (लगभग वर्गाकार) हो जाती है। नौले की कुल गहराई स्रोत पर निर्भर करती है। आम तौर पर गहराई 5 फीट के करीब होती है ताकि सफाई करते समय डूबने का खतरा न हो। नौला सिर्फ उसी जगह पर बनाया जा सकता है, जहाँ प्रचुर मात्रा में निरंतर स्रावित होने वाला भूमिगत जल विद्यमान हो। इस जल भण्डार को उसी सूक्ष्म छिद्रों वाले पत्थर की तीन दीवारों और स्तम्भ को खड़ा कर ठोस पत्थरों से आच्छादित कर दिया जाता है। प्रवेश द्वार को वथा संभव कम चौड़ा रखा जाता है। छत को चारों ओर ढलान दिया जाता है ताकि वर्षाजल न रुके और कोई जानवर न बैठे।
पृथ्वी एकमात्र ऐसा ग्रह है जिसमें जीवन निहित है इसका एक महत्वपूर्ण कारण है पृथ्वी पर जल की मौजूदगी। प्रकृति ने हमें सुंदर हिमालय जैसी अनेक पर्वतमालाएं, हरे-भरे जंगल व जल संसाधनों के रूप में हजारों नदियां वरदान स्वरुप प्रदान की हैं। प्रकृति ने हमें हर एक रूप में प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध बनाया है, जो हजारों सालों से मानव समेत हर एक जीव जन्तु को पल्लवित व पोषित करती आ रही हैं। इन्ही प्राकृतिक उपहारों में से एक है पहाड़ी नौले-धारे (Springs) जो पहाड़ों में रहने वाले लोगों की कई सालों से जलापूर्ति करते आये हैं। वास्तव में देखा जाए तो नौले व धारे पर्वतीय क्षेत्र की संस्कृति और संस्कारों का दर्पण भी हैं। पहाड़ों में रहने वाले लोगों की मानें तो वे इन्हें जल मंदिर के रूप में पूजते हैं। नवजात शिशु के नामकरण संस्कार के समय स्नान, देवपुजन, नामकरण के पश्चात् जननी परिवार, बच्चों, ननद, जेठानी, देवरानी के साथ नैवेद्य, ज्योतिपट्ट, धूप-दीप, रौली-अक्षत, तांबे की गगरी आदि लेकर नौले पर जाती हैं। विवाह संस्कार भी नौला मेंटने के बाद ही पूरा होता है। नव वधू ससुराल में बड़े बुजुर्गों का आशीष लेकर, मायके से कलश के रूप में मिली तांबे की गगरी, पूजा सामग्री, वर-वधू के विवाह में पहने हुए मुकुट आदि लेकर ननद व अन्य सहेलियों के साथ नीला भेंटने के लिए जाती। रास्ते भर हंसी-ठिठोली, शंख ध्वनि होती। नौला पूजन कर भगवान श्री हरि विष्णु और लक्ष्मी जी का आशीर्वाद लेने के पश्चात एक निश्चित स्थान पर सभी सामग्री का विसर्जन कर दिया जाता है। नववधू गगरी में जल लिए सभी साथियों के साथ घर वापस आकर पुनः वड़े बुजुर्गों का आशीष लेती और तब विवाह संस्कार सम्पन्न माना जाता। इन नौलों में वास्तुकला के वेजोड़ नमूने स्तम्भों और दीवारों पर पौराणिक कथाओं पर आधारित देवी-देवताओं के चित्र उकेरे होते हैं। पहले के जमाने से ही यहां के लोग नौले-धारों की देखभाल और रखरखाव सभी मिलजुलकर करते आए हैं। प्रातःकाल सूर्योदय से पहले घरों की युवतियों तांबे की गगरी लेकर पानी लेने नौले-धारों पर साथ-साथ जाती, गुनगुनाती, वार्तालाप करती जल की गगरी सिर पर रख कतारबद्ध तरीके से वापस घर आती थी। घर के बड़े-बुजुर्ग, बच्चे सभी को किसी न किसी वक्त इन स्थानों के आसपास देखा जाता था। घर पर रहने वाले मवेशियों के पीने के लिए और छोटी-छोटी क्यारियों को सींचने के लिए यहीं से जल लाया जाता था। पहाड़ी क्षेत्रों में 90 फीसदी से ज्यादा आवादी पेयजल, कृषि, पशुपालन आदि जैसी मूलभूत आवश्यकताओं के लिए इन्हीं प्राकृतिक जल स्रोतों पर आश्रित हैं परंतु मानवजनित कारणों जैसे अनियोजित विकास, वनों का अतिदोहन एवं बढ़ती जनसंख्या के फलस्वरुप पहाड़ों में कभी मनुष्य द्वारा विशेष प्रकार के सूक्ष्म छिद्र युक्त पत्थर से निर्मित एक सीढ़ीदार जल भण्डार है, जिसके तल में एक चौकोर पत्थर के ऊपर सीढ़ियों की श्रृंखला जमीन की सतह तक लाई जाती है। सामान्यतः तल पर कुंड की लम्बाई- चौड़ाई 5 से 8 इंच तक होती है, और ऊपर तक लम्बाई-चौड़ाई बढ़ती हुई 4 से 8 फीट (लगभग वर्गाकार) हो जाती है। नौले की कुल गहराई स्रोत पर निर्भर करती है। आम तौर पर गहराई 5 फीट के करीब होती है ताकि सफाई करते समय डूबने का खतरा न हो। नौला सिर्फ उसी जगह पर बनाया जा सकता है, जहाँ प्रचुर मात्रा में निरंतर स्रावित होने वाला भूमिगत जल विद्यमान हो। इस जल भण्डार को उसी सूक्ष्म छिद्रों वाले पत्थर की तीन दीवारों और स्तम्भ को खड़ा कर ठोस पत्थरों से आच्छादित कर दिया जाता है। प्रवेश द्वार को यथा संभव कम चौड़ा रखा जाता है। छत को चारों ओर ढलान दिया जाता है ताकि वर्षाजल न रुके और कोई जानवर न बैठे। आच्छादित करने से वाष्पीकरण कम होता है और अंदर के बाष्प को छिद्र युक्त पत्थरों द्वारा अवशोषित कर पुनः स्रोत में पहुंचा दिया जाता है। मौसम में बाहरी तापमान और अन्दर के तापमान में अधिकता या कमी के फलस्वरूप होने वाले वाष्पीकरण से नमी निरंतर बनी रहती है। सर्दियों में रात्रि और प्रातः जल गरम रहता है और गर्मियों में ठंडा।
उत्तरी भारत की महत्वपूर्ण नदियों में है नौले- धारों का महत्वपूर्ण योगदान
उत्तरी भारत की सिंधु, गंगा, ब्रह्मपुत्र जैसी महत्वपूर्ण नदियां हिमालयी ग्लेशियर पिघलने से या इन्हीं नौले- धारों के नदी में मिलने से यह नदियां अविरल बहती रहती हैं। लेकिन जिस तेजी के साथ ये नौले धारे सूख रहे हैं वैज्ञानिकों ने इसे बेहद चिंता का विषय बताया है इन महत्वपूर्ण नदियों के मार्ग पर जलाभाव के चलते जलप्रवाह प्रभावित हो रहा है जिसके परिणामस्वरूप लाखों लोगों के जीवन पर भी गहरा जलसकंट मंडरा रहा है। जल की कमी से हिमालय की पारिस्थितिक तंत्र तथा जैवविविधता में भी भारी गड़बड़ी देखने को मिल रही है। हम जानते हैं कि हिमालयी क्षेत्र जैवविविधता से सम्पन्न रहा है एवं विश्व के पारिस्थतिक समन्वय स्थापित करने में अहम भूमिका हिमालय में वास करने वाले जीव जंतुओं की रही है लेकिन बढ़ते जल की कमी के चलते हिमालयी जीवों की संख्या में भी भारी कमी देखने को मिल रही है जोकि जंगल, पानी, लोगों और जलवायु के बीच जटिल संबंधों की ओर इशारा करता है।
रोचक है पहाड़ी झरनों का जलविज्ञान
विज्ञान की नज़र से देखें तो नौले-धारे (spring) भूजल का एक रूप है जो प्रायः उच्च हिम क्षेत्रों में ग्लेशियरों के पिघलने से या वर्षा जल से रिचार्ज होते हैं। नौले- धारों में पानी आमतौर पर वर्षा द्वारा उत्पन्न जल को मिट्टी द्वारा सोख लिया जाता है और अंतर्निहित इन्ही संरचना को हम पहाड़ी नौले- धारों के रूप में देखते हैं। भूमि की आंतरिक संरचना में अनेक जलभृत पाएं जाते हैं जिन्हें हम सरल भाषा में भूमिगत जल टैंक एवं इन केशिकाओं को हम प्राकृतिक पाइपलाइन के रूप में समझ सकते हैं।
हिमालयी क्षेत्रों में पायी जाने वाली प्रमुख चट्टानों के गुण
1. फिलाइट (Phyllite): ये ऐसी चट्टानें हैं जिनमें छिद्र आपस में जुड़े नहीं होते हैं जिसके कारण जल का एक समान प्रवाह नहीं बन पाता है।
2. क्वार्टजाइट (quartzite): इसमें भी छिद्र अच्छी तरह से जुड़े नहीं होते हैं व यह भी जल का समान प्रवाह बनाए रखने में विफल रहते हैं।
3. बलुआ पत्बर (Sandstone): इस प्रकार की चट्टानों में जल को अवशोपित करने व जल को सुचारू परिवहन तंत्र प्रदान करने का गुण है।
4. ग्रेनाइट (Granite): इस प्रकार की शैलों में बहुत कम सरंध्रता के कारण आम तौर पर अपर्याप्त जलभृत बनाते हैं लेकिन कुछ परिस्थितियों में जब यह अत्यधिक खंडित होता है, तो यह अच्छा जलभूत बनाता है।
5. परतदार चटूट्टानें (Schist): बहुत कम सरंध्रता के कारण आम तौर पर अपर्याप्त जलभृत का निर्माण करती हैं लेकिन अधिक भंग हो जाने पर यह एक अच्छा जलभृत का निर्माण करती हैं।
6. चूना पत्थर (Limestone): पर्याप्त विघटन के गुण के कारण यह चट्टान झरझरी (porous) हो जाती है इसलिए अच्छा जलभूत का निर्माण करती है।
जल प्रवाह दर के आधार पर प्राकृतिक झरनों के प्रकार
सामान्यतया पहाड़ी धारों को उनके औसत जल प्रवाह के आधार पर आठ श्रेणियों में विभक्त किया गया है (मेज़र, 1919 वर्गीकरण) हालोंकि हमारे देश में अधिकांश धारे निम्न जल प्रवाह के हैं अतः इन्हें छठवीं तथा सातवीं श्रेणी में रखा जा सकता है। राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान द्वारा हिमाचल तथा जम्मू एवं कश्मीर के 1500 से भी अधिक पहाड़ी धारों का सर्वे करने पर देखा गया कि 80% से भी अधिक पहाड़ी धारों का जल प्रवाह 2 से 10 लीटर प्रति मिनट की श्रेणी में पाया गया।
श्रेणियां औसतन जल स्राव दर
पहली > 10 घन मीटर प्रति सेकंड
दूसरी 1-10 घन मीटर प्रति सेकंड
तीसरी 0.1-1 घन मीटर प्रति सेकंड
चौथी 10-100 लीटर प्रति सेकंड
पांचवी 1-10 लीटर प्रति सेकंड
छठवीं 0.1-1 लीटर प्रति सेकेंड
सातवीं 10-100 मिली लीटर प्रति सेकंड
आठवीं >10 मिली लीटर प्रति सेकंड
क्या है गर्म धारों (Hot Springs) का रहस्य?
पृथ्वी की सतह के अंदर गहराई में भूतापीय ऊष्मा, विभिन्न प्रकार की रासायनिक अभिक्रियाओं एवं रेडियोएक्टिव पदाथों के क्षय से गर्भ का औसत तापमान काफी अधिक (लगभग 200-250 डिग्री सेल्सियस) हो जाता है। जब पृथ्वी की सतह का जल किसी बड़े भंग (fracture) या भ्रंश (fault) के माध्यम से बहकर इस गहराई में पहुँचता है तो यह इस ऊष्मा के सम्पर्क में आने से काफी गर्म हो जाता है। यह गर्म जल किसी बड़े भंग (fracture) या भ्रंश (fault) के माध्यम से बहकर पुनः पृथ्वी की सतह पर गर्म धारे के रूप में प्रस्फुटित होता है। सामान्तवा गर्म धारों में उपचारात्मक गुण होने के कारण आम लोग यह मानते हैं कि सल्फर के कारण गर्म धारों की उत्पति होती है लेकिन यह सही नहीं हैं। यास्तव में सामान्य तापमान पर जल सल्फर के साथ प्रतिक्रिया नहीं करता है लेकिन उच्च तापमान पर इनकी रासायनिक प्रतिक्रिया संभव होती है। अतः सल्फर जोकि पहाड़ी चट्टानों में आमतौर पर पाया जाता है इसके गर्म जल के साथ प्रतिक्रिया करने पर गर्म जल में उपचारात्मक गुण आ जाते हैं। भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआई) द्वारा 1991 में तैयार किए गए 'जियोधर्मल एटलस ऑफ इंडिया में पूरे भारत में सात प्रमुख भू-तापीय प्रांतों में लगभग 340 गर्म धारे (थर्मल स्प्रिंग्स) चिन्हित किये गए हैं। 340 थर्मल स्प्रिंग्स में से लगभग 113 में 10,600 मेगावाट बिजली उत्पादन के लिए अनुमानित कुल संसाधन क्षमता है। विशेषकर उच्च पर्वतीय क्षेत्रों जैसे लद्दाख, जम्मू एवं कश्मीर जहाँ शीतकाल में नदियां जम जाती हैं पनविजली संयंत्र के माध्यम से बिजली उत्पादित करना संभव नहीं हो पाता है। ऐसे स्थानों पर इन गर्म धारों की मदद से बिजली पैदा कर आम लोगों के जीवन को आसान बनाया जा सकता है। अब तक भारत में धर्मल स्प्रिंग्स को केवल उनके उपचारात्मक मूल्यों के लिए जाना जाता है, क्योंकि कुछ वीमारियों जैसे एक्जिमा, गठिया आदि को ठीक करने की क्षमता इन गर्म धारों में है। भू-तापीय क्षमता का विकास विशेष रूप से पहाड़ी क्षेत्रों में अनेक दैनिक ऊर्जा की जरूरतों को पूरा कर सकता है। इन तापीय झरनों के पानी का उपयोग सब्जियों की खेती के लिए ग्रीनहाउस तापमान को बनाए रखने और छोटे उद्योगों जैसे कोल्ड स्टोरेज प्लांट, ऊन धोने, कृषि उत्पादों को सुखाने आदि के लिए सीधे किया जा सकता है। तापीय जलधाराओं का बेहतर उपयोग करने के लिए अभी भी बहुत शोघ की आवश्यकता है।
कैसे होंगे पहाड़ी नौले- घारे पुनर्जीवित ?
आज समय आ गया है इन पहाड़ी धारों को सूखने से बचाने का, अगर अब हमारे द्वारा कोई ठोस प्रयास नहीं किया गया तो ये धारे जोकि पर्वतीय क्षेत्र की जीवन रेखा तो हैं ही साथ में हिमालय से निकलने वाली सभी नदियों की प्राण ऊर्जा भी हैं इनकी अनुपस्थति में नदियों के अविरल जल प्रवाह की परिकल्पना मिथ्या मात्र होगी। अगर इन पहाड़ी धारों की बचाना होगा तो हमें अपनी सोच 'संसाधन' (Resource) से स्रोत (Source) की ओर प्रतिमान विस्थापित करनी होगी। हमें सोचना होगा कि झील, जलाशयों, नदियों इत्यादि में जल कहाँ से आता है। वस्तुतः हमें मूलभूत स्रोतों यानि कि जलभृत और धारों पर बात करनी पड़ेगी। जलभृत धारों को पोषित करते हैं और धारे धाराओं को, धाराएं नदियों को और नदियाँ जलाशयों और समुन्द्र को। यह जल चक्र निर्वाध चलता रहे इसके लिए पहाड़ी धारों का संरक्षण और पुनर्जीवीकरण आवश्यक है। आज विज्ञान ने इतनी प्रगति कर ली है कि भूवैज्ञानिक, भू-रसायनिक एवं समस्थानिक विश्लेषण से पहाड़ी धारों के करनी होगी। हमें सोचना होगा कि झील, जलाशयों, नदियों इत्यादि में जल कहाँ से आता है। वस्तुतः हमें मूलभूत स्रोतों यानि कि जलभृत और धारों पर बात करनी पड़ेगी। जलभृत धारों को पोषित करते हैं और धारे धाराओं को, धाराएं नदियों को और नदियाँ जलाशयों और समुन्द्र को। यह जल चक्र निर्वाध चलता रहे इसके लिए पहाड़ी घारों का संरक्षण और पुनर्जीचीकरण आवश्यक है। आज विज्ञान ने इतनी प्रगति कर ली है कि भूवैज्ञानिक, भू-रसायनिक एवं समस्थानिक विश्लेषण से पहाड़ी धारों के करनी होगी। हमें सोचना होगा कि झील, जलाशयों, नदियों इत्यादि में जल कहाँ से आता है। वस्तुतः हमें मूलभूत स्रोतों यानि कि जलभृत और धारों पर बात करनी पड़ेगी। जलभृत धारों को पोषित करते हैं और धारे धाराओं को, धाराएं नदियों को और नदियाँ जलाशयों और समुन्द्र को। यह जल चक्र निर्वाध चलता रहे इसके लिए पहाड़ी घारों का संरक्षण और पुनर्जीचीकरण आवश्यक है। आज विज्ञान ने इतनी प्रगति कर ली है कि भूवैज्ञानिक, भू-रसायनिक एवं समस्थानिक विश्लेषण से पहाड़ी धारों के पुनर्भरण क्षेत्र का चिह्नीकरण किया जा सकता है। इनके पुनर्भरण क्षेत्र को संरक्षित क्षेत्र घोषित कर वर्षा जल को निर्वाध रूप से पहाड़ी धारे को पोषित करने वाले जलभृत तक पहुंचाया जा सकता है ताकि पहाड़ी धारे की अविरलता को सुनिश्चित किया जा सके। इन पहाड़ी धारों की वहनीयता को सुनिश्चित करने के लिए इन्हे स्थानीय लोगों की आजीविका से जोड़ना पड़ेगा ताकि स्थानीय लोगों में इनके स्वामित्व का भाव विकसित किया जा सके। अब सरकार इनके संरक्षण के लिए काफी गंभीर है और हाल ही में संस्कृति मंत्रालय की पहल पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने 14वीं सदी में निर्मित कत्यूरकालीन सभ्यता एवं संस्कृति के गवाह स्यूनराकोट तलहटी पर बने मंदिरनुमा प्राचीन नौले को राष्ट्रीय घरोहर घोषित किया है। इसके साथ ही जल जीवन मिशन, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी इत्यादि योजनाओं में रोजगार गारंटी इत्यादि योजनाओं में इनके पुनर्जीवीकरण के लिए प्रयास किये जा रहे हैं। हालाँकि इन स्रोतों का कायाकल्प स्थानीय लोगों के चढ़-चढ़ कर प्रतिभाग करने पर ही संभव हो पायेगा।
सपंर्क करेंः
लेखकगण डॉ. सोबन सिंह रावत, आयुष कुकरेती, डॉ. सुधीर कुमार राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रुड़की में वैज्ञानिक हैं।
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