सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्यों में संभवत: यह सबसे मुश्किल लक्ष्य है क्योंकि यह मुद्दा इतना सरल नहीं है, जितना दिखता है। टिकाऊ पर्यावरण के बारे में जिस अवधारणा के साथ लक्ष्य सुनिश्चित किया गया है, सिर्फ उस अवधारणा के अनुकूल परिस्थितियां ही तय सीमा में तैयार हो जाए, तो उपलब्धि ही मानी जाएगी।
यद्यपि यह माना जाए कि विकास की राष्ट्रीय नीतियों एवं कार्यक्रमों के बीच समन्वय एवं उनमें व्यवस्थित रूप से एकीकरण किया जाए, पर यह संभव नहीं दिखता।
इस लक्ष्य के मुख्य रूप से तीन भाग है, जिसमें पहला है प्राकृतिक संसाधनों के क्षरण को पीछे लाना, यानी प्राकृतिक संसाधनों से सम्पन्न राज्यों में अगली पंक्ति में शुमार किया जाता रहा है, पर राज्य में में अवैध तरीके से प्राकृतिक संसाधनों का जितना अधिक दोहन हुआ है, उससे कुछ कम ही वैध तरीकों से भी हुआ है। राज्य की औद्योगिक नीतियों के तहत जिन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को प्रदेश में आमंत्रित किया गया है, उन्होंने प्राकृतिक संसाधनों का बंटाधार कर दिया है। जंगल माफियाओं ने अधिकारियों की मिली भगत से लाखों पेड़ काट लिए हैं। नदियों किनारे स्थित करखाने अपने अवषिश्टों को यूं ही फेंक रहे हैं, जिससे आस-पास के खेतों की उवर्रता खत्म हो रही है और भू-जल के साथ-साथ नदियां भी प्रदूषित हो रही हैं। उन पर कोई अंकुश नहीं है। जानवरों की अवैध तरस्करी अभी भी जारी है। वन संरक्षण हो या वन्य प्राणी संरक्षण दोनों को संरक्षित रख पाना मुश्किल हो रहा है।
नर्मदा पर बनने वाले प्रमुख बड़े बांधों के कारण हो रहा विस्थापन सदी की सबसे बड़ी समस्या रही है, जिसमें लाखों गरीबों की आवाज को इस आधार पर दबाने की कोशिश की जा रही है कि विकास के लिए बांध जरूरी है। पर बड़े बांध आयोग की रिपोर्ट एवं स्वतंत्र रिपोर्ट से मालूम पड़ता है कि बड़े बांधों से जितना लाभ होना दर्शाया जा रहा है, उतना लाभ नहीं होगा, पर निश्चय ही इससे कुछ बड़ी एवं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को लाभ होगा। मध्यम वर्ग की बड़ी आबादी को इस मुद्दे पर यह कह कर चुप करा दिया है कि बिजली, पानी की शहरी समस्या का समाधान उसी में निहित है। बड़े बांधों से सिर्फ आदिवासी एवं गरीब समुदाय का विस्थापन ही समस्या नहीं है, बल्कि बड़े बांधों के कारण हजारों एकड़ के जंगल डूब में चले गए, जिसकी कोई भरपाई नहीं की गई। टापुओं पर सिमट गए जानवर भूखों मर रहे हैं।
इस लक्ष्य का दूसरा भाग है - वर्तमान में जितने लोगों को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध नहीं हो रहा है, उनमें से कम से कम 50 फीसदी लोगों को 2015 तक स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराना। यह भी मुष्किल मामला दिखता है, उस हालात में जब बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को भूजल दोहन के असीमित अधिकार दिए जा रहे हैं और पानी का निजीकरण किया जा रहा है। ऐसे दौर में इस लक्ष्य के प्रति सरकार की प्रतिबध्दता पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है।
आर्थिक विकास के इस दौर में सभी मान रहे हैं कि अमीरी एवं गरीबी के बीच खाई बढ़ रही है, आर्थिक विकास का लाभ चंद लोगों को मिल रहा है, तब गरीबों के लिए स्वच्छ पेयजल तो सपना ही रहेगा, उन्हें अस्वच्छ पानी भी मिल पाएगा कि नहीं, कह पाना कठिन है। हालात तो ऐसे हैं कि प्रदेश में पानी को लेकर अक्सर हिंसक झड़प की खबर आती है। भूजल स्तर गिर जाने से, पानी में कारखानों के अवशिष्ट पदार्थों एवं रसायनों के घुल जाने से भूजल में नाइट्रेट बढ़ रहा है। मध्यप्रदेश में फलोरोसिस रोग से पीड़ितों की संख्या बढ़ रही है।
वर्तमान में मध्यप्रदेश में पेयजल की स्थिति इस प्रकार है----
संकटग्रस्त जिले
वे जिले जहां भूजल स्तर दो से चार मीटर नीचे जा चुका है (कुल जिले-22)-
1. बालाघाट |
6. सागर |
11. टीकमगढ़ |
16. श्योपुर |
21. मण्डला |
2. भिण्ड |
7. शाजापुर |
12. कटनी |
17. ग्वालियर |
22. होशंगाबाद |
3. मुरैना |
8. रीवा |
13. सीधी |
19. छतरपुर |
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4. गुना |
9. सतना |
14. छिंदवाड़ा |
20. डिण्डोरी |
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5. राजगढ़ |
10. पन्ना |
15. दमोह |
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- इनमें से भिण्ड, ग्वालियर, ष्योपुर, मुरैना, शिवपुरी, छतरपुर, राजगढ़, टीकमगढ़, रीवा, पन्ना, सतना, सागर, और छिंदवाड़ा के कई इलाकों में भूजल स्तर चार मीटर से भी नीचे जा चुका है।- मध्यप्रदेश के 48 जिलों के कुल 313 विकासखण्ड हैं जिनमें से 26 विकासखण्डों में भूजल का जरूरत से बहुत ज्यादा दोहन (या यूं कहें कि शोषण) किया जा चुका है।
- केन्द्रीय भूजल बोर्ड ने जिन कुंओं का अध्ययन किया उन अध्ययनित कुंओं में से 40.73 फीसदी कुंओं का जल स्तर चार मीटर से ज्यादा नीचे जा चुका है।
- मध्यप्रदेश के 9988 हैण्डपम्प भूजल स्तर नीचे चले जाने के कारण बंद हो गए हैं।
क्या होगा अगले पांच साल में?
- मध्यप्रदेश सरकार ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (वर्ष 2007 ये वर्श 2012 तक) के अन्तर्गत पानी पर 19 अरब 18 करोड़ रूपए खर्च करेगी।
- ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में ग्रामीणों क्षेत्रों पर 15 अरब 47 करोड़ 57 लाख रूपये खर्च होंगे 50 लाख रूपए खर्च का प्रावधान है।
- बंद नलकूपों के स्थान पर नये नलकूपों के निर्माण पर 1 अरब 81 करोड़ 98 लाख रूपए खर्च करने की बात सरकार ने कही है।
- जल स्तर बढ़ाने वाली संरचनाओं पर 42.20 करोड़ रूपए खर्च करने का प्रस्ताव है।
- रूफ वाटर हार्वेस्टिंग के अन्तर्गत 6760 योजनाएं क्रियान्वित होंगी और 1 करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया है।
इकाई और पेयजल उपलब्धता
पेयजल की जरूरत की पहचान और आकलन की इकाई बसाहटें है। मध्यप्रदेश सरकार के लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग के अनुसार राज्य की बसाहटों और पेयजल उपलब्धता की स्थिति इस प्रकार है-
1. राज्य मे कुल बसाहटों की संख्या |
126172 |
2. 40 लीटर पेयजल की अनुमानित व्यवस्था |
10655 |
3. 40 लीटर जल से कम व्यवस्था वाली |
20289 |
4. जल स्रोतहीन बसाहटें |
4228 |
हैण्डपम्प की स्थिति
1. कुल स्थापित हैण्डपम्प |
374288 |
2. चालू हैण्डपम्पों की संख्या |
351185 |
3. खराब हैण्डपम्प (बंद) |
13115 |
4. जल स्तर में कमी से बंद हैण्डपम्प |
9988 |
राज्य में कुल नलजल/सतही जल
1. कुल योजनाएं |
8192 |
2. चालू योजनाओं की संख्या |
6685 |
3. बंद योजनाओं की संख्या |
1507 |
4. 11 वीं पंचवर्षीय योजना में नई योजनाओं |
1350 |
इस मुद्दे के तीसरे भाग में लक्ष्य रख गया है कि राष्ट्रीय स्तर पर वर्ष 2020 तक झुग्गी बस्ती में रहने वाली कुल जनसंख्या में से कम से कम 10 करोड़ लोगों के जीवन स्तर में सुधार कर दिया जाए। यह मामला उतना ही गंभीर है, जितना कि पर्यावरण का संरक्षण। ग्रामीणों की आजीविका खत्म करना, जंगल के आश्रितों को विस्थापित करना, खेती में बहुराश्टीय कम्पनियों को आमंत्रित कर किसानों एवं खेत मजदूरों को बेदखल करना और उसके बाद शहरों पर बढ़ते दवाब एवं अवैध कॉलोनियों के विकसित होने पर सरकार की बढ़ती चिंता और पुन: उन्हें दिहाड़ी मजदूरी से वंचित कर पुर्नवास के नाम पर शहर से 10-15 किलोमीटर दूर भगा देना जैसे तथ्यों से समझा जा सकता है कि विकास का क्या स्वरूप तय हो रहा है और समस्या को सुलझाया जा रहा है या कि उलझाया जा रहा है।
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