पुस्तकें और पुस्तक समीक्षा

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बाढ़ में दशाश्मेध घाट
Posted on 13 Sep, 2013 11:56 AM दशाश्वमेध घाट पर गंगा की धारा है
तट पर जल के ऊपर ऊँचे भवन खड़े हैं
विपुल गुहा-कक्षी ज्यों क्षुद्र पहाड़ गड़े हैं।
बिजली जली ज्योति से भग्न तिमिर कारा है।
तोड़ मारते जल-प्रवाह का स्वर न्यारा है।
जल पर पीपल की शाखा के छत्र पड़े हैं
दल-दल के तम से बिजली के स्रोत लड़े हैं
तम्साच्छन्न क्षितिज-तरुश्रेणी, नभ सारा है।

दरें बैठे, काली सड़क दाहिने बाएँ,
वह अँजोरिया रात
Posted on 13 Sep, 2013 11:45 AM तुम्हे याद है अँजोरिया? हम तुम दोनों
नहीं सो सके, रहे घूमते नदी किनारे
मुग्ध देखते प्यार-भरी आँखों से प्यारे
भूमि-गगन के रूप-रंग को। यों तो टोनों

पर विश्वास नहीं मेरा, पर टोने ही सा
कुछ प्रभाव हम दोनों पर था। कभी ताकते
भरा चाँद, फिर लहरों को, फिर कभी नापते
अंतर का आनंद डगों से, जो यात्री-सा

दोनों का अभिन्न सहचर था। इधर-उधर के
सहस्त्रधारा
Posted on 13 Sep, 2013 11:31 AM ओ सहस्त्रधारा!
ओ विमुक्त, ओ अबाध
अयि सदा विश्रृंखले
शैल-अंक, केलि-मग्न
विविध अकारा
ओ सहस्त्रधारा!

राशि-राशि नीर भर
तुंग शैल से उतर
कहीं दौड़ती अधीर
कहीं थिरकती निडर
दिखाती कला अनेक
पद -क्षेप द्वारा
ओर सहस्त्रधारा!

क्षुद्र तरु-पुंज में
वन्य घास में कहीं
एक क्षण को फँसी
क्रुद्ध स्वर फिर वही
गागर भरने की वेला
Posted on 09 Sep, 2013 01:25 PM गागर भरने की वेला हौले बीती जाती है।
क्यों भूल-चूक हो जाती चिर-परिचित व्यापारों में,
दिन-दिन भर उलझी रहती सब दिन इन घर-द्वारों में,
वैसे से तो दुपहर ही से उत्सुकता उकसाती है।
लगता गागर भरने की वेला बीती जाती है।
औरों की देखा देखी जब तक रहती धुलसाती,
सौरभ-भीनी स्मृतियों की धारा में बहती जाती,
सहसा रागिनी रँगीली थमती, झटका खाती है!
सिंधु-मिलन की चाह नहीं, बस
Posted on 09 Sep, 2013 01:23 PM सिंधु-मिलन की चाह नहीं, बस
मुझको तो बहते जाना है!
दो पुलिनों से बँधकर भी
कितनी स्वतंत्र है जीवन-धारा!
रोक रखेगी मुझको कब तक
पत्थर चट्टानों की कारा?
अपनी तुंग-तरंगों का ही
रहता इतना बड़ा भरोसा;
लौट-लौटकर नहीं देखता,
मुझको तो बहते जाना है!

राह बनाकर चलना पड़ता,
इसीलिए रुक-रुक चलता हूं,
झुकना शील-स्वभाव; शिलाओं को
नर्मदा की कुमुदनी
Posted on 09 Sep, 2013 01:22 PM होशंगाबाद का अभूतपूर्व पर्व बनी
नर्मदा के तट की बास्वानी व्याख्यानमाला,
तिरती तरंगों पर
कान्हा की वंशी की
सम्मोहक मूर्च्छनाएँ
दूरागत दीपों की
क्वाँरी आकांक्षाएँ
गलबहियाँ डाले
रास रचतीं शरदोत्सव का।
गर्वा की तालों पर
करतीं अठखेलियाँ
तट के नितंबों से
लहरों की करधनियाँ।
नयन श्रवण, श्रवण नयन
एक बरन, एक बयन
गंगा-दशहरा
Posted on 08 Sep, 2013 01:10 PM बाप ने बहल बनावाई थी
सैलानी सैर हेतु
(बैलगाड़ी भूसा-खाद-
लकड़ी ढोने में व्यस्त)
रंग-बिरंगी सुतलियों से
बिनी खटोलिया के
चारों ओर टनटनातीं
रशना-सी घंटियाँ,
बैलों की मरोड़ पूँछ
टिटकार करते ही
अंग-अंग लहराते
दचकों के दोला में।
बीघापुर स्टेशन से
उसी में बिठाकर तुम्हें
विदा करा लाया था।
माँ ने हर्षाश्रुओं से
नदी का रास्ता
Posted on 08 Sep, 2013 01:06 PM नदी को रास्ता किसने दिखाया?
सिखाया था उसे किसने
कि अपनी भावना के वेग को
उन्मुक्त बहने दे?
कि वह अपने लिए
खुद खोज लेगी
सिंधु की गंभीरता
स्वच्छंद बहकर?
इसे हम पूछते आए युगों से
और सुनते भी युगों से आ रहे उत्तर नदी का;
‘मुझे कोई कभी आया नहीं था राह दिखलाने;’
‘बनाया मार्ग मैंने आप ही अपना;
‘ढकेला था शिलाओं को;
ऐ नदी...
Posted on 07 Sep, 2013 03:08 PM सच बताना ऐ नदी
क्यों उछलती आ रही हो
हिम पर्वतों से निकल
क्यों पिघलती जा रही हो
प्रकृति में सौन्दर्य है ...
उसी से मिलकर चली हो
निज चिरंतन वेग ले
माटी में उसकी सनी हो
राह में बाधाएं इतनी
फिर भी सदा नीरा बनी हो
अटल नियति है यही
अनवरत बहना तुम्हें है
पाप कोई जन करे
बोझ तो ढोना तुम्हें है
आज भी कितने मरूथल
नर्मदा के चित्र
Posted on 07 Sep, 2013 12:49 PM नष्ट नहीं सौंदर्य कभी उनके लेखे,
जिनके प्राणों में एक सदृश-श्री-शक्ति है,
वैसे ही जैसे गुलाब का महकता
जीवन जीवित है बिखरे-भी दलों में।
नष्ट हुई चीजों के ऊपर एक कुछ
है प्रकाश ऐसा ही, जो जाता नहीं;
धुँधला है इतने प्रकाश की झलक है,
जितनी भरने और बहने के बीच में
देखी जाती है दुखिया की आँख में!
भिन्न भिन्न मिस हैं जिनसे निज रूप को
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