पुस्तकें और पुस्तक समीक्षा

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प्यास
Posted on 23 Sep, 2013 04:28 PM दोपहर सिर पर थी। धूप आंखों को डस रही थी। पसीने की धारा बह रही थी। प्रमोद अपनी दुकान में बैठकर सड़क पर दौड़ते वाहनों को देखने में समय काट रहा था। उसका एक बेकाम का मित्र मोहन काले दुकान में बैठा था। वह कोई अखबार पढ़ रहा था।

इतने में प्रमोद की मां हाथ में लोटा लिए वहां आई।

‘देख रे प्रमोद... कितने जीव-जंतु हो गए इस पानी में...’
तवी
Posted on 22 Sep, 2013 04:12 PM स्याह पड़े ताँबे-सा
पथरीला तट,
जल-रेखा,
फैला सुनसान,
गर्म साँसें-सी
चट्टानों की।

‘काई के पत्थर ढूँढ़ों,
चिकने छोटे-
काई का साग...’
‘काई का...’
‘हाँ, हाँ, सच...’
‘लो, सुनो...’
‘अरे...रे...
फिसलो मत’

मुँदते स्वर,
अँधियारे पुलिनों पर
बचपन के;
जल-रेखा
तलवार-सरीखी

तैर रहे अनुभव-क्षण
धुँधली नदी में
Posted on 22 Sep, 2013 04:10 PM आज मैं भी नहीं अकेला हूँ
शाम है, दर्द है, उदासी है

एक खामोश साँझ-तारा है
दूर छूटा हुआ किनारा है
इन सबों से बड़ा सहारा है
एक धुँधली अथाह नदिया है
और बहकी हुई दिशा-सी है

नाव को मुक्त छोड़ देने में
और पतवार तोड़ देने में
एक अज्ञात मोड़ लेने में
क्या अजब-सी, निराश-सी,
सुखप्रद एक आधारहीनता-सी है
साँझ के बादल
Posted on 22 Sep, 2013 04:09 PM साँझ के बादलये अनजान नदी की नावें
जादू के-से पाल
उड़ाती
आतीं
मंथर चाल!

नीलम पर किरनों
की साँझी
एक न डोरी
एक न माँझी
फिर भी लाद निरंतर लातीं
सेंदुर और प्रवाल!

कुछ समीप की
कुछ सुदूर की
कुछ चंदन की
कुछ कपूर की
कुछ में गेरू, कुछ में रेशम
कुछ में केवल जाल!

ये अनजान नदी की नावें
गंगा-लहरी
Posted on 22 Sep, 2013 04:07 PM सदियों से जमी भावनाशून्य बर्फ को बूँद-बूँद गलाती
अड़ियल ठस चट्टानों को कण-कण बालू बनाती
काल के अनंत प्रवाह को हराती
लहर-लहर आगे ही आगे बहती जाने वाली गंगा
अपनी एक लहर, सिर्फ एक छोटी-सी लहर मुझे लौटा दो!
सही कहती हो माँ, कि तुम लहर-लहर
आगे सिर्फ आगे ही बढ़ती हो
लौटना-लौटाना तुम्हारी प्रकृति में नहीं
पर कभी ध्यान से देखना-लौटी हैं लहरें
नाव के पाँव
Posted on 22 Sep, 2013 04:05 PM नीचे नीर का विस्तार
ऊपर बादलों की छाँव,
चल रही है नाव;
चल रही है नाव;
लहरों में छिपे हैं पाँव,
सचमुच मछलियों से कहीं लहरों में छिपे हैं पाँव।
डाँड उठते और गिरते साथ,
फैल जाते दो सलोने हाथ;
टपकतीं बूँदें, बनातीं वृत्त,
पाँव जल में लीन करते नृत्त;
फूल खिल जाते लहरियों पर,
घूमते घिर आसपास भँवर;
हवा से उभरा हुआ कुछ पाल,
बर्फ की नदी
Posted on 22 Sep, 2013 04:04 PM अपने को
और कितना नीचे लाऊँ?
मैं ही हूँ-
कभी हिम-शिखरों को छूता हुआ बादल
कभी सूखी धरती पर बहता हुआ जल
अब और कहाँ जाऊँ?

मेरे लिए
तुम्हें समझ पाना
बहुत मुश्किल है
और तु्म्हारे लिए-मुझे,
पर यह भी लगता है- जैसे हमीं
एक-दूसरे को समझ सकते हैं
कोई और नहीं,
यहाँ या कहीं।
मेरा अहम अपने आप-
बहुत बार पिघलकर पानी बन चुका है
गंगा के तट का एक खेत
Posted on 22 Sep, 2013 04:02 PM गंगा के तट का एक खेत,
बहिया आई, बह गया अधपकी झुकती बालों के समेत।

जाने कितने, किस ठौर, किधर, किस साइत में बरसे बादल,
लहरें रह-रह बढ़ चलीं, भर गया डगर-डगर में जल ही जल।
हँसिया-खुर्पी का श्रम डूबा,
उगने-पकने का क्रम डूबा,
डूबी रखवारे की कुटिया
जिसमें संझा को दिया जला जाती थी केवट की बिटिया।
बरतन-भाँडे, कपड़े-लत्ते,
तय अब हमको ही करना है, हंसा तो तैयार अकेला...
Posted on 21 Sep, 2013 12:25 PM

स्वामीश्री ज्ञानस्वरूप सानंद (प्रो जी डी अग्रवाल जी) के गंगा अनशन के 101वें दिन पर मेरी ओर से गंगा निवेदन

स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद जीतय अब हमको ही करना है
हंसा तो तैयार अकेला
जीवित सानंद गले लगायें
या अर्थी पीछे रुदन गायें
हरिद्वार से बोल रहा हूं, तय अब हमको...

Swami Sanand
एक नदी की व्यथा
Posted on 21 Sep, 2013 11:53 AM मुझ पर है सबका अधिकार
मैं किस पर अधिकार दिखाऊँ
अनचाहे अवसाद में डूबी
किसको अपनी व्यथा सुनाऊँ
ताप मिटाए पाप हटाए
सबको शीतलता दे जाऊँ
मेरा ताप कौन हरेगा
किससे मैं यह आस लगाऊं
जग की क्षुधा मिटाती आई
कैसे अपनी प्यास बुझाऊं
इतने गरल पिलाये मुझको
अब मैं सुधा कहाँ से लाऊं
अनगिन पातक आँचल धोये
अपना आँचल कैसे पाऊँ
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