जगदीश गुप्त

जगदीश गुप्त
नाव के पाँव
Posted on 22 Sep, 2013 04:05 PM
नीचे नीर का विस्तार
ऊपर बादलों की छाँव,
चल रही है नाव;
चल रही है नाव;
लहरों में छिपे हैं पाँव,
सचमुच मछलियों से कहीं लहरों में छिपे हैं पाँव।
डाँड उठते और गिरते साथ,
फैल जाते दो सलोने हाथ;
टपकतीं बूँदें, बनातीं वृत्त,
पाँव जल में लीन करते नृत्त;
फूल खिल जाते लहरियों पर,
घूमते घिर आसपास भँवर;
हवा से उभरा हुआ कुछ पाल,
बर्फ की नदी
Posted on 22 Sep, 2013 04:04 PM
अपने को
और कितना नीचे लाऊँ?
मैं ही हूँ-
कभी हिम-शिखरों को छूता हुआ बादल
कभी सूखी धरती पर बहता हुआ जल
अब और कहाँ जाऊँ?

मेरे लिए
तुम्हें समझ पाना
बहुत मुश्किल है
और तु्म्हारे लिए-मुझे,
पर यह भी लगता है- जैसे हमीं
एक-दूसरे को समझ सकते हैं
कोई और नहीं,
यहाँ या कहीं।
मेरा अहम अपने आप-
बहुत बार पिघलकर पानी बन चुका है
गंगा के तट का एक खेत
Posted on 22 Sep, 2013 04:02 PM
गंगा के तट का एक खेत,
बहिया आई, बह गया अधपकी झुकती बालों के समेत।

जाने कितने, किस ठौर, किधर, किस साइत में बरसे बादल,
लहरें रह-रह बढ़ चलीं, भर गया डगर-डगर में जल ही जल।
हँसिया-खुर्पी का श्रम डूबा,
उगने-पकने का क्रम डूबा,
डूबी रखवारे की कुटिया
जिसमें संझा को दिया जला जाती थी केवट की बिटिया।
बरतन-भाँडे, कपड़े-लत्ते,
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