स्याह पड़े ताँबे-सा
पथरीला तट,
जल-रेखा,
फैला सुनसान,
गर्म साँसें-सी
चट्टानों की।
‘काई के पत्थर ढूँढ़ों,
चिकने छोटे-
काई का साग...’
‘काई का...’
‘हाँ, हाँ, सच...’
‘लो, सुनो...’
‘अरे...रे...
फिसलो मत’
मुँदते स्वर,
अँधियारे पुलिनों पर
बचपन के;
जल-रेखा
तलवार-सरीखी
तैर रहे अनुभव-क्षण
पकड़े स्मृति की बाँहें
बहे जा रहे अनगिनत
अविरत जल-कण।
स्याह पड़े ताँबे-सा
पथरीला तट,
जल की रेखा...
पथरीला तट,
जल-रेखा,
फैला सुनसान,
गर्म साँसें-सी
चट्टानों की।
‘काई के पत्थर ढूँढ़ों,
चिकने छोटे-
काई का साग...’
‘काई का...’
‘हाँ, हाँ, सच...’
‘लो, सुनो...’
‘अरे...रे...
फिसलो मत’
मुँदते स्वर,
अँधियारे पुलिनों पर
बचपन के;
जल-रेखा
तलवार-सरीखी
तैर रहे अनुभव-क्षण
पकड़े स्मृति की बाँहें
बहे जा रहे अनगिनत
अविरत जल-कण।
स्याह पड़े ताँबे-सा
पथरीला तट,
जल की रेखा...
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