गंगा के तट का एक खेत

गंगा के तट का एक खेत,
बहिया आई, बह गया अधपकी झुकती बालों के समेत।

जाने कितने, किस ठौर, किधर, किस साइत में बरसे बादल,
लहरें रह-रह बढ़ चलीं, भर गया डगर-डगर में जल ही जल।
हँसिया-खुर्पी का श्रम डूबा,
उगने-पकने का क्रम डूबा,
डूबी रखवारे की कुटिया
जिसमें संझा को दिया जला जाती थी केवट की बिटिया।
बरतन-भाँडे, कपड़े-लत्ते,
सब भीज गए, बह गए रोज के ईंधन के सूखे पत्ते।
हर बहा, बहे हरहा गोरू,
रो रही दुलरुआ की जोरू,
जिसका सहेट मिट गया-
और जो थी गिरधरवा की चहेत;
गंगा के तट का एक खेत,
बहिया आई, बह गया अधपकी झुकती बालों के समेत।

कुछ घटी बाढ़, पौधों के भीजे सिर दीखे,
धरती निकली, ले रहे धूप आकर कछुए समझे -सीखे,
बह चली अरे फिर पुरवैया,
फिर छम-छम करती बढ़ी लहरियाँ, खुले पाल, डोली नैया;
मटमैले जल में परछाईं
धुँधली-धुँधली बनती-मिटती, लहराती साँपों की नाईं।
फिर घटा नीर, फिर तट उभरे,
कंकड़, उभरे, पत्थर उभरे, टूटे-फूटे कुछ घट उभरे,
चिकनी मिट्टी में सने पाँव
उनके, जो जाते पार गाँव,
पैरों के रह जाते निशान धँसकर धरती में ठाँव-ठाँव
हो गई धूप कुछ कड़ी और,
जल की बिछड़पन से हिया दरकने लगा पंक का ठौर-ठौर।
चाँदनी रात में कर जाता जादू, सपनों में धुला रेत।
गंगा के तट का एक खेत,
बहिया आई, बह गया अधपकी झुकती बालों के समेत।

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