मार्कण्डी

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सखी मार्कण्डी
Posted on 18 Oct, 2010 11:41 AM आगे जाकर जब मैं कॉलेज में पढ़ने लगा तब इम्तहान के बाद हमारी भैयादूज होती है। फसल काटने के दिन होते। दो-दो दिन खेत में ही बिताने पड़ते। तब मार्कण्डी मुझे शकरकंद भी खिलाती और अमृत जैसा पानी भी पिलाती। जब यह देखने के लिए मैं जाता कि रात को ठंड के मारे वह कांप तो नहीं रही है, तब अपने आइने में वह मुझे मृगनक्षत्र दिखाती।क्या हरएक नदी माता ही होती है? नहीं। मार्कण्डी तो मेरी छुटपन की सखी है। वह इतनी छोटी है कि मैं उसे अपनी बड़ी बहन भी नहीं कह सकता।

बेलगुंदी के हमारे खेत में गूलर के पेड़ के नीचे दुपहर की छाया में जाकर बैठूं तो मार्कण्डी का मंद पवन मुझे जरूर बुलायेगा। मार्कण्डी के किनारे मैं कई बार बैठा हूं, और पवन की लहरों से डोलती हुई घास की पत्तियों को मैंने घंटों तक निहारा है। मार्कण्डी के किनारे असाधारण अद्भुत कुछ भी नहीं है। न कोई खास किस्म के फूल हैं, न तरह-तरह के रंगों की तितलियां हैं। सुन्दर पत्थर भी वहां नहीं हैं। अपने कलकूजन से चित्त को बेचैन कर डाले ऐसे छोटे-बड़े प्रपात भला वहां कहां से हों? वहां है केवल स्निग्ध शांति।

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