सखी मार्कण्डी

आगे जाकर जब मैं कॉलेज में पढ़ने लगा तब इम्तहान के बाद हमारी भैयादूज होती है। फसल काटने के दिन होते। दो-दो दिन खेत में ही बिताने पड़ते। तब मार्कण्डी मुझे शकरकंद भी खिलाती और अमृत जैसा पानी भी पिलाती। जब यह देखने के लिए मैं जाता कि रात को ठंड के मारे वह कांप तो नहीं रही है, तब अपने आइने में वह मुझे मृगनक्षत्र दिखाती।क्या हरएक नदी माता ही होती है? नहीं। मार्कण्डी तो मेरी छुटपन की सखी है। वह इतनी छोटी है कि मैं उसे अपनी बड़ी बहन भी नहीं कह सकता।

बेलगुंदी के हमारे खेत में गूलर के पेड़ के नीचे दुपहर की छाया में जाकर बैठूं तो मार्कण्डी का मंद पवन मुझे जरूर बुलायेगा। मार्कण्डी के किनारे मैं कई बार बैठा हूं, और पवन की लहरों से डोलती हुई घास की पत्तियों को मैंने घंटों तक निहारा है। मार्कण्डी के किनारे असाधारण अद्भुत कुछ भी नहीं है। न कोई खास किस्म के फूल हैं, न तरह-तरह के रंगों की तितलियां हैं। सुन्दर पत्थर भी वहां नहीं हैं। अपने कलकूजन से चित्त को बेचैन कर डाले ऐसे छोटे-बड़े प्रपात भला वहां कहां से हों? वहां है केवल स्निग्ध शांति।

गड़रिये बताते हैं कि मार्कण्डी बैजनाथ के पहाड़ से आती है। उसका उद्गम खोजने की इच्छा मुझे कभी नहीं हुई। हमारे तालुके का नक्शा हाथ में आ जाय तो भी उसमें मार्कण्डी की रेखा मैं नहीं खोजूंगा। क्योंकि वैसा करने से वह सखी मिटकर नदी बन जायेगी! मुझे तो उसके पानी में अपने पांव छोड़कर बैठना ही पसंद है। पानी में पांव डाला कि फौरन उसकी कलकल-कलकल आवाज शुरू हो जाती है। छुटपन में हम दोनों कितनी ही बातें किया करते थे। एक-दूसरे का सहवास ही हमारे आनंद के लिए काफी हो जाता था। मार्कण्डी क्या बता रही है यह जानने की परवाह न मुझे थी, न मैं जो कुछ बोलता हूं उसका अर्थ समझने के लिए वह रुकती थी। हम एक-दूसरे से बोल रहे हैं, इतना ही हम दोनों के लिए काफी था। भाई-बहन जब बरसों बाद मिलते हैं, तब एक-दूसरे से हजारों सवाल पूछा करते हैं। किन्तु इन सवालों के पीछे जिज्ञासा नहीं होती। वह तो प्रेम व्यक्त करने का केवल एक तरीका होता है। प्रश्न क्या पूछा और उत्तर क्या मिला, इस ओर ध्यान दे सके इतना स्वस्थ चित्त भला प्रेम-मिलन के समय कैसे हो?

मार्कण्डी के किनारे-किनारे मैं गाता हुआ घूमता और मार्कण्डी उन गीतों को सुनती जाती। सोलहवें वर्ष की आयु में शिव-भक्ति के बल पर जिन्होंने यमराज को पीछे धकेल दिया उन मार्कण्डेय ऋषि का उपाख्यान गाते समय मुझे कितना आनंद मालूम होता था।

मृकंडु ऋषि के कोई संतान न थी। उन्होंने तपश्चर्या की और महादेव जी को प्रसन्न किया। महादेव जी ने वरदान में विकल्प रखा।

साधू सुंदर शाहणा सुत तया सोळाच वर्षे मिती
जो कां मूढ कुरूप तो शतवरी वर्षे असे स्व-स्थिति
या दोहींत जसा मनांत रुचला तो म्यां तुतें दीधला।


(एक लड़का साधुचरित, खूबसूरत और सयाना होगा। किन्तु उसकी आयु सिर्फ सोलह साल की होगी। दूसरा मूढ़ और बदसूरत होगा। उसकी आयु सौ साल की होगी। मगर वह उम्रभर जैसा का वैसा ही रहेगा। इन दोनों में से जो तुम्हें पसंद हो, सो मैं दूंगा।)

अब इन दोनों में से कौन सा पसंद करें? ऋषि ने धर्मपत्नी से पूछा। दोनों ने सोचा, बालक भले सोलह वर्ष ही जिये किन्तु वह सद्गुणी हो। वहीं कुल का उद्धार करेगा। दोनों ने यही वर मांग लिया। मार्कण्डेय उम्र में ज्यो-ज्यों खिलता गया त्यों-त्यों मां-बाप के वदन म्लान होते चले गए। आखिर सोलह वर्ष पूरे हुए।

युवक मार्कण्डेय पूजा में बैठा है। यमराज अपने पाड़े पर बैठकर आये। किन्तु शिवलिंग को भेंटे हुए युवा साधु को छूने की हिम्मत उन्हें कैसे हो? हां, ना करते-करते उन्होंने आखिर पाश फेंका। उधर लिंग से त्रिशूलधारी शिवजी प्रकट हुए और अपनी धृष्टता के लिए यमराज को भला-बुरा बहुत कुछ सुनना पड़ा। मृत्युंजय महादेव जी के दर्शन करने के बाद मार्कण्डेय को मृत्यु का डर कैसे हो सकता? उसकी आयुधारा अब तक बह रही है।

आगे जाकर जब मैं कॉलेज में पढ़ने लगा तब इम्तहान के बाद हमारी भैयादूज होती है। फसल काटने के दिन होते। दो-दो दिन खेत में ही बिताने पड़ते। तब मार्कण्डी मुझे शकरकंद भी खिलाती और अमृत जैसा पानी भी पिलाती। जब यह देखने के लिए मैं जाता कि रात को ठंड के मारे वह कांप तो नहीं रही है, तब अपने आइने में वह मुझे मृगनक्षत्र दिखाती।

आज भी जब मैं अपने गांव जाता हूं, मार्कण्डी से बिना मिले नहीं रहता। किन्तु अब वह पहले की भांति मुझसे लाड़ नहीं करती। जरा-सा स्मित करके मौन ही धारण करती है। उसके सुकुमार वदन पर पहले के जैसा लावण्य नहीं है। किन्तु अब उसके स्नेह की गंभीरता बढ़ गयी है।

अगस्त 1928

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