दिल्ली

Term Path Alias

/regions/delhi

विकास के मानक को बदलना जरूरी
Posted on 03 Nov, 2011 12:11 PM

अगर एक नजर देश की नदियों पर डालें, तो इन नदियों ने अपना पानी लगातार खोया है, चाहे वह बरसाती नदी हो या फिर ग्लेश्यिर से निकलने वाली सदनीरा। इनमें लगातार पानी का प्रवाह कम होता जा रहा है। इनमें वर्षात बिन वर्षा वाले पानी का अंतर बहुत बड़ा है। इसका सबसे बड़ा कारण नदियों के जलागम क्षेत्रो का वन-विहीन होना है। पिछले कुछ समय से देश में पानी की बढ़ती खपत चिंता का विषय बनती जा रही है। इसी तरह उपजाऊ मिट्टी की जगह रसायनों ने ली है।

पूरी दुनिया में आज की सबसे बड़ी पर्यावरणीय चर्चा का अहम हिस्सा विकसित और विकासशील देशों की बढ़ती सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) दर है। बेहतर होती जीडीपी का सीधा मतलब होता है, उद्योगों की अप्रत्याशित वृद्धि। यानी ऊर्जा की अधिक खपत और पर्यावरण पर प्रतिकूल असर। इस तरह के विकास का सीधा प्रभाव आदमी की जीवन शैली पर पड़ता है। आरामदेह वस्तुएं आवश्यकताएं बनती जा रही हैं। कार, एसी व अन्य वस्तुएं ऊर्जा की खपत पर दबाव बनाती जा रही हैं। सच तो यह है कि अच्छी जीडीपी और विलासिता का लाभ दुनिया में बहुत से लोगों को नहीं मिलता, पर इसकी कीमत सबको चुकानी पड़ रही है।

जैविक खाद और खाद्यान्न उत्पादन
Posted on 02 Nov, 2011 04:30 PM

यह व्यवस्था मिट्टी को उसके पोषक तत्वों से अलग करने में विश्वास नहीं करती और आज की जरूरत के लिए उसे किसी प्रकार से खराब नहीं करती। इस व्यवस्था में मिट्टी एक जीवित तत्व है। मिट्टी में जीवाणुओं और अन्य जीवों की जीवित संख्या उसकी उर्वरता में महत्वपूर्ण योगदान करती है और उसे किसी भी कीमत पर सुरक्षित और विकसित किया जाना चाहिए। मृदा कि संरचना से लेकर मृदा के आवरण तक उसका पूरा वातावरण अधिक महत्वपूर्ण होता है।

हालांकि भारत इन दिनों खाद्यान्न उत्पादन के क्षेत्र में बेहतर काम कर रहा है, लेकिन लोगों के कुछ खास समूह समय-समय पर 'जैव कृषि' का मुद्दा उठाते रहते हैं। उनका दावा है कि वह 'स्वच्छ कृषि' है और फसलों की उत्पादकता को बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले रसायनों के दुष्प्रभावों से मुक्त है। मानवता के भविष्य के लिए चिंतित स्थानीय पर्यावरणविद, ग्रीनपीस जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठन और नाना प्रकार के अन्य परोपकारी लोग 'रासायनिक उर्वरकों' का इस्तेमाल बंद न करने पर उनकी भावी पीढ़ियों के समक्ष उत्पन्न होने वाले संकट के बारे में सचेत कर रहे हैं। वास्तव में कुछ देशों के पूर्व अनुभवों को देखते हुए खाद्यान्न उत्पादन में जैव उवर्रकों का प्रयोग संकट पैदा करने का सुनिश्चित तरीका है और सिर्फ 'जैव उर्वरकों' से उगाई जाने वाली फसलों की कम उत्पादकता अकाल को प्रेरित कर सकती है। 50 के दशक में हमारे पड़ोसी देश चीन का यह अनुभव रहा है, जब सिर्फ 'जैव उर्वरकों' के प्रयोग और गोबर, मानव अवशिष्ट, पेड़ के गिरे हुए पत्तों आदि पर निर्भरता से अकाल आ गया था, जिसमें 3 करोड़ लोगों की जानें चली गई थीं।
भूमि सुधार के लिए जन-सत्याग्रह की जरूरत
Posted on 02 Nov, 2011 04:04 PM

प्राकृतिक संसाधनों की लूट व इससे जुड़े भ्रष्टाचार पर रोक लगनी चाहिए। सबसे गरीब परिवारों को जहां

भूमि सुधार
बारिश का संगीत
Posted on 02 Nov, 2011 03:20 PM

जंगलों, पहाड़ों, पठारों, समतल पर वर्षा अपनी तरह-तरह की किलकरियों से गूंजने लगती है। झमाझम, रिम

मेहनत पर जुर्माना
Posted on 02 Nov, 2011 01:57 PM

चावल, गेहूं या चीनी, कोई भी ऐसी फसल नहीं जिसका अधिक उत्पादन होने पर किसानों को मेहनत का सही दाम

कृषि
अनुपम जी को जमनालाल बजाज पुरस्कार
Posted on 29 Oct, 2011 12:37 PM

पानी और पर्यावरण पर काम करने वाले मशहूर पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र को साल 2011 के लिए जमनालाल बजाज पुरस्कार दिया गया है। उनको यह पुरस्कार आगामी 7 नवंबर को मुंबई में दिया जाएगा। अनुपम मिश्र को यह पुरस्कार ग्रामीण विकास में अभूतपूर्व योगदान के लिए दिया जा रहा है। अनुपम मिश्र की पुस्तक आज भी खरे हैं तालाब ने देश में नये सिरे से तालाबों के बारे में जागरुकता पैदा की है।

जमनालाल बजाज पुरस्कार चार श्रेणियों में दिया जाता है जिसमें ग्राम विकास में तकनीकि का योगदान, ग्राम विकास में अभूतपूर्व योगदान, महिला और बाल विकास के क्षेत्र में किया जा रहा काम और विश्व पटल पर गांधी विचार के आधार पर किये जा रहे काम को हर साल यह पुरस्कार दिया जाता है।

अनुपम मिश्र
वह किताब रामचरित मानस नहीं है, लेकिन दो लाख छप चुकी है
Posted on 25 Oct, 2011 03:23 PM

हिंदी भाषी परिवारों का आकार देखते हुए दो लाख की संख्या का भी बड़ा मतलब नहीं होना चाहिए लेकिन जब बात हिंदी किताब की बिक्री की हो तो यह सचमुच में यह आंकड़ा बहुत बड़ा है। एक जमाने में गुलशन नंदा जैसों के उपन्यास वगैरह की बिक्री के दावों को छोड़ दें तो आज के हिंदी प्रकाशन व्यवसाय के लिए दो हजार प्रतियों का बिकना भी किताब का सुपरहिट होना है। अब इसे अनुपम मिश्र और गांधी शांति प्रतिष्ठान का स्वभाव मानना चाहिए कि वे अपनी किताब आज भी खरे हैं तालाब की छपाई दो लाख पार करने पर न कोई शोर मचा रहे हैं, न विज्ञापन कर रहे हैं। अगर इस अवसर का अपना व्यावसायिक लाभ या कोई पुरस्कार वगैरह पाने की उम्मीद होती तो यह काम जरूरी होता लेकिन अनुपम मिश्र न तो पुरस्कारों की होड़ में हैं, न थे और न ही गांधी शांति प्रतिष्ठान किताब से कमाई को बढ़ाना चाहता है।

दिल्ली में फिर सुपरबग का खतरा
Posted on 13 Oct, 2011 11:55 AM

दिल्ली के पानी में जब भी सुपरबग की आशंका जताई जाती है तो दिल्ली सरकार कुछ फौरी कदम उठाकर, चैन क

कैसे हो जैव संपदाओं का संरक्षण
Posted on 13 Oct, 2011 10:20 AM

सबसे खतरनाक हमला किसान, खेत, जंगल, जड़ी-बुटियां और इनसे जुड़े हमारे हजारों वर्ष पुराने ज्ञान पर

नवगीत में वर्षा-चित्रण
Posted on 12 Oct, 2011 05:59 PM

प्रकृति की सुन्दरतम ऋतु- वर्षा ऋतु आदि कवि वाल्मीकि से लेकर आधुनिक नवगीतकारों तक को काव्य सृजन की प्रेरणा देती रही हैं। संस्कृत साहित्य में कलिदास का वर्षा-ऋतु चित्रण अप्रतिम है। हिन्दी साहित्य के मध्ययुग में तुलसी, सूर, जायसी आदि कवियों ने पावस ऋतु का सुंदर-सरस चित्रण किया है। आधुनिक हिन्दी साहित्य में छायावादी कवियों में प्रसाद, निराला, पंत तथा महादेवी ने वर्षा संबंधी कई कविताएँ लिखी हैं। महा

प्रकृति कि सबसे सुंदर ऋतु- वर्षा
×