दिल्ली

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सिर्फ स्नान नहीं, विज्ञान है मकर सक्रान्ति
Posted on 16 Jan, 2012 05:24 PM

जिस क्षण से जीवनवर्धक सूर्य, जीवनसहांरक शनि की राशि में प्रवेश कर उसके नकरात्मक प्रभाव को रोकत

makar sankranti
गंगा को पूजा से ज्यादा प्यार की दरकार
Posted on 16 Jan, 2012 02:44 PM

जनता का गंगा के प्रति जितना सामंती रवैया है, वह सामंतों का अपने गुलामों के प्रति भी न रहता होग

सुनिए मधुमक्खी का संदेश
Posted on 13 Jan, 2012 03:52 PM

रेगिस्तान की सूचना पहाड़ में ग्लेशियर दे रहे हैं तो मैदानी इलाकों में मधुमक्खियों के छत्ते हमें बता रहे हैं कि हम संकट के मुहाने पर है। मधुमक्खियों के छत्ते इसलिए क्योंकि पर्यावरण का इससे सुंदर संकेतक दूसरा होना मुश्किल है। इन छत्तों को आप प्रकृति की सबसे अनूठी घड़ी भी कह सकते हैं। मधुमक्खियां अपने आस-पास के दो तीन किलोमीटर से पराग इकट्ठा करती हैं। यहां यह जान लेना महत्वपूर्ण है कि हम केवल उन मधुमक्खियों की बात कर रहे हैं जो मानवीय बस्ती के आस-पास छत्ते लगाती हैं। यानी वे मधुमक्खियां जो मनुष्य के निकट हैं। लेकिन जैसे-जैसे पर्यावरण में बदलाव आता है ये मधुमक्खियां उत्तर की ओर खिसकने लगती हैं।

इंसान जैसे-जैसे विकसित हुआ है वह अकेला पड़ता गया है। प्रकृति में मौजूद दूसरे जीवजंतु, प्राणी, वनस्पतियां सब उससे लगातार दूर होते गये हैं। ऐसा कोई एक दिन में नहीं हुआ लेकिन यह क्रम कभी रूका भी नहीं। जीवजंतु तो न जाने कब के हमारे लिए पालतू हो गये थे। मनुष्य ने सबसे पहले जिस जानवर को पालतू बनाया वह संभवतः गाय थी। उसके पहले तक का जो इतिहास हम देखते हैं वह यही है कि अस्तित्व में बने रहने के लिए मनुष्य भी पशुओं को उसी तरह मारता था जैसे एक पशु दूसरे को मारता था। लेकिन जिसे विकसित मनुष्य कह सकते हैं उसने जो कुछ किया उससे केवल पशुओं के अस्तित्व पर ही नहीं बल्कि वनस्पतियों के अस्तित्व पर भी संकट आ गया है। पहले मनुष्य ने पशुओं को मारा होगा लेकिन पशु उससे दूर नहीं भागे थे। लेकिन आज प्रकृति में मौजूद जीव धीरे-धीरे मनुष्य से दूर होते जा रहे हैं। याद करिए आखिरी बार आपने कब किसी घोसले को देखा था? याद करिए कि आपने अपने आस-पास किसी मधुमक्खी के छत्ते को कब देखा था?
लोकोपयोगी भूमि पर अविधिक कब्जा
Posted on 11 Jan, 2012 04:44 PM

छत्तीसगढ़ के गांवों व शहरों में तालाबों की बड़ी संख्या आदिकाल से रही है। हर गांव में कम से कम

रूठे रूठे से हैं मेहमान परिंदे
Posted on 11 Jan, 2012 01:07 PM देश के पक्षी अभ्यारण्य कई तरह के बढ़ते प्रदूषण की वजह से खतरे में हैं। झीलों और तालाबों में पानी और आहार की कमी हो गई है। प्रवासी पक्षियों की आमद न होने से सैलानी भी अपना मुंह मोड़ रहे हैं। इस मुश्किल हालात का जायजा ले रहे हैं। प्रमोद भार्गव

जल, वनस्पति और झील को आवास, आहार और प्रजनन का स्थल बनाने वाले जीव-जंतुओं पर शोध की तैयारी की जा रही है। यह शोध आर्द्रभूमि शोध एवं प्रशिक्षण केंद्र करेगा। इसके तहत झील में अध्ययन बांबे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी के साथ मिलकर किया जाएगा। इसके अलावा पश्चिम बंगाल में सीआईएफआरआई के साथ विश्व बैंक के सहयोग से चल रहे एकीकृत तटीय क्षेत्र प्रबंधन परियोजना के तहत मछली पारिस्थितिकी और विभिन्न तथ्यों के बारे में अध्ययन किया जाएगा। आधुनिक विकास झीलों, तालाबों और नदियों के लिए प्रदूषण का ऐसा कारण बन गया है, जिससे इंसान तो इंसान पक्षी भी हैरान-परेशान हैं।

देश में पर्यावरण के साथ खिलवाड़ की आंच अब परिंदों तक जा पहुँची है। पारिस्थितिकी तंत्र के बिगड़ने की वजह से पक्षियों के जीवनचक्र पर विपरीत असर पड़ रहा है। यही वजह है कि विश्व प्रसिद्ध घना पक्षी-अभ्यारण्य के अलावा दूसरे अभ्यारण्यों की मनोरम झीलों पर जो परिंदे हर साल हजारों की संख्या में डेरा डाला करते थे, वे इस साल नदारद हैं। मेहमान पक्षी तो हजारों किलोमीटर की यात्रा कर देश की उथली झीलों, तालाबों, दलदलों और नदियों के किनारों पर चार महीने बसेरा किया करते थे। उनकी संख्या में काफी कमी आई है। बदलती आबोहवा की वजह से कई परंपरागत आवास स्थलों पर इन प्रवासी पक्षियों ने शगुन के लिए भी पड़ाव नहीं डाला। यह स्थिति पर्यावरणविदों के लिए तो चिंताजनक है ही, पर्यटन व्यवसाय की नजर से भी गंभीर चेतावनी है। राजस्थान में भरतपुर का केवलादेव घना राष्ट्रीय पक्षी अभ्यारण्य देश में एक ऐसा मनोरम स्थल था, जहां प्रवासी पक्षियों का सबसे ज्यादा जमावड़ा होता था।
migratory bird
कृषि पर मनरेगा की चोट
Posted on 09 Jan, 2012 01:32 PM

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने पायलट आधार पर कृषि विज्ञान केन्द्रों के जरिए प्रौद्योगिकी के हस्

मनरेगा से कृषि पर संकट नहीं
Posted on 06 Jan, 2012 11:09 AM ‘पिरामिड के सबसे नीचे के तल्ले में भूमिहीन खेत मजदूर हैं, जिनकी संख्या चार करोड़ बीस लाख है। ये खेती में लगी हुई जनसंख्या के 37.8 प्रतिशत हैं। इनके बीच कम से कम तीस लाख लोग ऐसे हैं, जिन्हें क्रीतदास या बंधुआ मजदूर कहा जाता है। इनके ऊपर हैं ‘अत्यंत छोटे किसान।’ पांच एकड़ से कम की जमीन के मालिकाना वाली अथवा सम्पत्तिहीन रैयत अथवा बंटाई पर खेती करने वाले किसानों को इसी वर्ग में रखा गया है। भारत में अध
गले पड़ता कृषि का फंदा
Posted on 06 Jan, 2012 10:15 AM

चने के झाड़ पर चढ़ाना को मुहावरे की दुनिया से निकाल कर भारतीय किसानों के जीवन में प्रविष्ठ करा

जल घोषणापत्र बनाकर करें नये साल का आगाज
Posted on 05 Jan, 2012 03:41 PM

महान गुरु गुरुनानक जी ने जिस नदी के किनारे बैठकर तप किया था, वह ही सूखने के कगार पर है। पंचनद

tehri dam landslide
शेखावाटी के किसानों को मोरारका फाउंडेशन की देन: कम पानी और मिट्टी के बिना खेती कैसे करें
Posted on 04 Jan, 2012 05:06 PM

विदेशी तरीके से बने वाटर ट्रीटमेंट प्लांट को लगाने में 50-60 लाख रुपये का खर्च आता है, जबकि मो

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