देश के पक्षी अभ्यारण्य कई तरह के बढ़ते प्रदूषण की वजह से खतरे में हैं। झीलों और तालाबों में पानी और आहार की कमी हो गई है। प्रवासी पक्षियों की आमद न होने से सैलानी भी अपना मुंह मोड़ रहे हैं। इस मुश्किल हालात का जायजा ले रहे हैं। प्रमोद भार्गव
यह पक्षी अभ्यारण्य उनतीस वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला है। हरियाली से घिरे इस भूखंड के ग्यारह वर्गकिलोमीटर क्षेत्र में उथली झीलें और तमाम प्रजातियों के करीब पैंतालीस हजार पेड़ हैं। इन्हीं पेड़ों पर पक्षी घोंसले बनाकर तमाम तरह की क्रीड़ाएं करते थे। इसी क्रीड़ा को देखने के सैलानियों का जमावड़ा बना रहता था। प्राकृतिक रूप में क्रीड़ा और आहार के लिए शिकार करने के करतब देखने के लिए यहां एक टॉवर भी बनाया गया है, जिस पर चढ़कर सैलानी इन पक्षियों के स्वछंद विचरण का आनंद उठाते थे। जाड़ों की शुरुआत के साथ ही हजारों की संख्या में सैलानी पक्षियों का आना शुरू हो जाता था। पिछले साल इन पक्षियों की संख्या लाखों में थी लेकिन अब हजारों में सिमटकर रह गई। सूखे की वजह से सुरहा ताल अधूरा रह गया। पक्षियों की कमी की एक वजह यह भी है कि तालाब खाली रहने से किसानों ने यहां खेती की शुरुआत कर दी। अब यहां गेहूं, अरहर और सरसों की फसलें लहलहा रही हैं। दरअसल इस झील में पानी की कमी होते ही पांचना बांध से पानी छोड़कर इसे लबालब भर दिया जाता था। पांचना बांध के अस्तित्व में आने से पहले यहां के झील और तालाबों के लिए पानी का मुख्य स्रोत गंभीर नदी हुआ करती थी। लेकिन कुछ समय पहले इस नदी को रोककर करौली जिले में पांच नदियों का संगम बनाकर पांचना बांध बना दिया गया।
इस बांध से अब घना को पानी दिए जाने की बजाय सिंचाई के लिए पानी दिए जाने को प्राथमिकता दी जा रही है। लिहाजा घना को पानी बमुश्किल या बड़ी जद्दोजहद के बाद ही मिल पाता है। इस साल ये पक्षी ऐसे रूठे कि एक भी सारस ने घना में अपना ठिकाना नहीं बनाया। अन्य प्रजातियों के जो पक्षी आए हैं उनकी संख्या भी पिछले सालों की तुलना में काफी कम हैं। इन खूबसूरत प्रवासी पक्षियों की गैरहाजिरी की वजह से ‘टूरिज्म एंड वाइल्ड लाइफ सोसायटी ऑफ इंडिया’ ने घना पर्यटन कार्यक्रमों को लगभग रद्द कर दिया है। इस अभ्यारण्य को विश्व धरोहर का दर्जा मिला है। हाल ही में संयुक्त राष्ट्र ने चेतावनी दी है कि अगर यहां पानी के पर्याप्त और पुख्ता इंतजाम नहीं किए गए तो अभ्यारण्य को विश्व धरोहर का दर्जा छीन लिया जाएगा। अगर जलापूर्ति करके घना की वीरानी दूर नहीं की गई तो जो स्थानीय लोग सैलानियों की आमद से अपनी आजीविका चलाते हैं उनकी रोजी-रोटी छिन जाने का खतरा भी बढ़ जाएगा। इसी क्षेत्र में गंगा और घाघरा नदियों की मैदानी तलहटियों में भी पक्षियों के झुंड आया करते थे, लेकिन अब यह पूरा इलाका पक्षियों की बाट जोह रहा है। कुछ प्रजातियों के पक्षी आए भी लेकिन उनकी संख्या अंगुलियों पर गिनने लायक है। इस क्षेत्र में शिकार करने के कारण भी पक्षियों की संख्या घटी है। मांस खाने के शौकीन, शिकारियों को मुंह मांगे दाम देने को तैयार रहते हैं। इस कारण शिकारियों के क्रूर हाथ पक्षियों को नहीं बख्शते। इस भय की वजह से सुरहा तालाब और गंगा और घाघरा नदियों के किनारों पर इक्का-दुक्का साइबेरियन पक्षी डेरा डालते भी हैं तो जल्द उठा भी लेते हैं। यहां मध्य एशिया, रूस, चीन और अफगानिस्तान जैसे देशों से हजारों किलोमीटर की यात्रा करके जाड़े के दिनों में पक्षियों की जमातों का सिलसिला शुरू हो जाता है। लेकिन इस बार इनके बसेरे सूने हैं।
भरतपुर के घना पक्षी अभ्यारण्य के बाद शिवपुरी जिले की दिहायला झील प्रवासी पक्षियों के लिए मशहूर थी। यहां आने वाले विदेशी परिंदों की संख्या दो लाख तक दर्ज की गई है। लेकिन इस बार इस झील की सतह पर सन्नाटा है। यहां सींखपर (पिनटेल) बड़ी संख्या में आते थे। नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी मुंबई के पक्षी विशेषज्ञों के शोधों के मुताबिक सींखपर एक प्रकार की बत्तख होती है। इसकी पूंछ सुई जैसी होती है, इसलिए इसे सींखपर कहते हैं। इनके पैरों में डाले गए छल्लों के अध्ययन से पता चला है दिहायल में ही नहीं पूरे भारतवर्ष में सींखपर रूस के कैस्पियन सागर और साइबेरिया क्षेत्रों से आते हैं। इस झील का पानी सिंचाई के लिए मुहैया कराने से झील में पानी रुकना बंद क्या हुआ, लिहाजा पक्षी भी रूठने लग गए। शिकार की वजह से पक्षी भयभीत हुए हैं। वन और राजस्व भूमि के विवाद को लेकर भी इन महकमों में जहां जंग छिड़ी रहती है। इस कारण भी सोन चिड़िया अभ्यारण्य, करैरा में आने वाली यह झील बर्बाद हुई। शिवपुरी के ही चांदपाठा और घसारई तालाब में हजारों की संख्या में प्रवासी परिंदे आते थे लेकिन इस बार दोनों तालाबों से विदेशी परिंदे नदारद हैं। झीलों में बढ़ते जल प्रदूषण की वजह से यह स्थिति निर्मित हुई है। चांदपाठा तालाब में इंजन से चलने वाली नौका विहार ने भी पक्षियों के सहज आवास में खलल डाला है। अगर सैलानी पक्षियों का नैसर्गिक आनंद लेना है तो नौकायन बंद करना जरूरी है।
पंजाब में व्यास और सतलज नदियों के मुहाने और नंगल और रोपड़ के दलदली क्षेत्र में भी लागों की तादाद में प्रवासी पक्षी आते थे। इस क्षेत्र को इसी कारण हरिके पक्षी अभ्यारण्य घोषित किया गया। यहाँ साइबेरिया, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से पक्षी आकर जाड़े में पड़ाव डालते थे। एक समय पक्षियों के आहार, प्रजनन और क्रीड़ा के लिए यह स्थान जितना अनुकूल और उपयुक्त था उतना ही नदियों में बढ़ते प्रदूषण, भोजन की कमी और चोरी-छिपे शिकार की वजह से प्रतिकूल और अनुपयुक्त हो गया। इन वजहों से पंजाब के इन रमणीय स्थलों पर देशी-विदेशी पक्षियों की संख्या तेजी से घट रही है। इन परिंदों की संख्या इसी क्रम में घटती रही तो एक समय यहां पक्षियों का कलरव ठहर जाएगा। प्रसिद्ध पक्षी विज्ञानी सलिम अली ने इस दलदली झील के प्राकृतिक अहमियत का अनुभव करते हुए यहां आने वाले पक्षियों पर नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी के शोधार्थियों से 1982 में अध्ययन भी कराया था। इन अध्ययनों से पता चला था कि ग्रे-हेरोन नाम का पक्षी एक हजार सात सौ किलोमीटर की दूरी तय करके रूस की बुलकुश झील से पंजाब आया था। बुलकुश के पक्षी विज्ञानियों को इस पक्षी के पैरों में बंधा छल्ला खोलने पर यह जानकारी मिली थी कि यह पक्षी पंजाब की प्रवास-यात्रा से लौटा है। इस दलदली क्षेत्र में 210 प्रकार की पक्षी नस्लों की पहचान की जा चुकी है। लेकिन इस बार यहां बमुस्किल चालीस प्रजातियों के ही पक्षी आए हैं। दलदल में बढ़ती जलकुंभी भी पक्षियों के सहज आवास में एक बड़ी बाधा है। प्रवासी पक्षी विशेषज्ञों का मानना है कि इस बार लगातार तीसरी मर्तबा भी इन पक्षियों की संख्या कम रही। कई दुर्लभ पक्षियों ने बमुश्किल हफ्ते भर डेरा डाला। वातावरण की अनुकूलता न पाने पर ये पक्षी गोविंद सागर झील की ओर रुख कर गए।
विशेषज्ञों का कहना है कि भोजन चक्र बिगड़ने से विदेशी पक्षियों की आमद कम हुई है। प्रवासी पक्षियों का मुख्य भोजन छोटी मछलियां या इनसे मेल खाते जीव-जंतु और कीड़े-मकोड़े हैं। लेकिन प्रदूषण, सीवेज का पानी, इलेक्ट्रानिक और घरेलू प्लास्टिक कचरे के झीलों में जमा होने से आहार की उपलब्धता पर असर पड़ा है। नतीजतन पक्षी भी घट गए। जीव विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि जलीय पारदर्शिता खत्म होने की वजह भी, पक्षियों की संख्या कम होने का एक कारण है। इस वजह से पक्षियों को भोजन तलाशने में कठिनाई तो होती ही है, समय भी ज्यादा लगता है। कारखानों से निकले पानी के सतलज और व्यास नदियों में मिलने से पारदर्शिता का संकट उत्पन्न हुआ। रोपड़ इंटरनेशनल वैटलैंड ने एनएफएल थर्मल प्लांट और सीमेंट फैक्ट्री से निकले प्रदूषित पानी के सतलज में मिलने को खतरनाक बताया है। इस जल की शुद्धि के लिए हाल ही में केंद्रीय पर्यावरम मंत्री जयराम रमेश ने सतलज की सफाई के लिए दो सौ करोड़ रुपए की एक योजना मंजूर की है। लेकिन इस धनराशि से क्या नतीजे निकलेंगे- यह तो अभी भविष्य के गर्भ में है। पूरे देश में मांस के शौकीनों की बढ़ती संख्या ने भी प्रवासी पक्षियों को संकट में डाला है। इन पक्षियों का मांस बेहद महंगा बिकता है। लिहाजा शिकारियों को दाम भी अच्छे मिलते हैं। जिंदा और मरे पक्षियों का कारोबार इधर खूब फल-फूल रहा है।
इन पक्षियों को पकड़ने के कई तरीके अपनाए जाते हैं। शिकारी झील क्षेत्र में बेहोशी की दवा दानों में मिलाकर डाल देते हैं। इसे खाने से पक्षियों के बेहोश होते ही शिकारी इन्हें पकड़ लेते हैं। नशीली दवा खाने से बेहोश या दम तोड़ चुके पक्षी को खाने से मानव स्वास्थ्य पर कोई बुरा असर नहीं पड़ता। क्योंकि नमक डले पानी से मांस का शोधन करने से दवा का असर एकदम खत्म हो जाता है। अगर बेहोश चिड़िया को नमक मिले पानी में डूबो दिया जाए तो पक्षी की बेहोशी टूट जाती है और कुछ ही देर में वह होश में आ जाता है। इन पक्षियों को थोक में पकड़ने के लिए शिकारी रात के सन्नाटे का भी लाभ उठाते हैं। शिकारी एक ओर जाल पकड़कर बैठ जाते हैं और दूसरी तरफ से थाली और खाली कनस्तर बजाकर शोर करते हैं। इस आंतंकित ध्वनि प्रदूषण से पक्षी ध्वनि की विपरीत दिशा में सीधी उड़ान भरते हैं और जाल में उलझ जाते हैं। शिकार पर न वन अमले का की अंकुश है और न ही पुलिस का। नतीजतन शिकार की तादाद निरंतर बढ़ रही है। अगर प्रदूषण और शिकार से मुक्ति के उपाय नहीं तलाशे गए तो तय है कि एक दिन ऐसा भी आ सकता है कि जब प्रवासी पक्षी मनोरम भारतीय झीलों से हमेशा के लिए रूठ जाएं? यहां की शीतल हरियाली स्निग्ध सुगंध और पोषक आहार की बहुलता देशी-विदेशी पक्षियों के ठहरने, प्रजनन करने और स्वछंद उड़ान भरने के लिए अनुकूल परिवेश तैयार करती हैं।
साइबेरिया में जब रक्त जमा देने वाली सर्दी शुरू होती है, तब तापमान शून्य से चालीस डिग्री नीचे चला जाता है। चारों ओर बर्फ का साम्राज्य छा जाता है। ऐसे प्रतिकूल समय में दुर्लभ सारस और विभिन्न नस्लों के बहुरंगी पक्षी भारत और एशिया के अनुकूल ठिकानों की ओर समूहों में उड़ान भरते हैं और करीब पांच हजार किलोमीटर की दूरी तय कर मनोरम झीलों में अस्थायी ठौर बनाते हैं।
हरदोई जिले में तीन पक्षी विहार हैं- नवाबगंज, लाखबहोशी और सांडी। पक्षी विशेषज्ञ केके रस्तोगी का दावा है कि इन पक्षी विहारों में प्रवासी परिंदों की संख्या आधी से कम रह गई है। 224 वर्ग किलोमीटर में फैले इस विहार की परिधि में दो दर्जन गांव है। इसकी उथली झी कमल, जलकुंभी, शैवाल, नारगुजरिया के झाड़-झंखाड़ों से ढकी रहती है। इन पर बनाए घरौंदों में टफ्टेड पोचर्ड, कॉमनटील, गार्डबाल, ग्रीनलैंड, वाइपर, वाइट स्ट्रोक, टेंड प्रेस्टिड, पंचडर्टील, छोटा लालासर विजन, ओपन विलस्टार, कामनडक, विसिलिंग टील वगैरह पक्षी करीब चार महीने तक डेरा डाले रहकर समय गुजारते हैं। रस्तोगी ने इस बार इन पक्षी विहारों की सैर करने के बाद नेचुरल हिस्ट्री मुंबई के लिए जो रिपोर्ट तैयार की है उसमें कहा गया है कि इस मर्तबा केवल 35 प्रजातियों के सैलानी पक्षी देखने में आए हैं। इनमें भी साइबेरिया से आए पक्षियों की संख्या बमुश्किल चार-पांच है। इसके पहले दो सौ प्रजातियों के पक्षी यहां बसेरा करने आते थे।
अपनी रिपोर्ट में रस्तोगी ने बताया है कि पूरी झील में एक हजार से ज्यादा परिंदे नहीं हैं। इनमें सबसे ज्यादा छ सौ की संख्या में टप्टेड पोचर्ड हैं। रिपोर्ट में सारस पांच और मार्श हैरियर की संख्या दो बताई गई है। खुलासा किया गया है कि पानी और घास का कमी की वजह से आहार में कमी हुई। परिंदों ने मुंह मोड़ लिया। मौसम में बदलाव ने भी मेहमान पक्षियों की संख्या घटाई है। सांडी पक्षी विहार में इस साल 17,270 विदेशी पक्षी आए, जबकि पिछले साल इनकी संख्या 25,625 थी। पक्षियों की आमद में यह गिरावट जलवायु परिवर्तन का संकेत है। उत्तर प्रदेश के बलिया जिले का सुरहा ताल मेहमान पक्षियों का आसान ठिकाना रहा करता था। लेकिन अब इस तालाब से भी पक्षियों ने किनारा कर लिया है। देश की सबसे बड़ी और दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी समुद्री चिल्का झील भी प्रदूषित हो रही है। इसे देशी-विदेशी पक्षी बसेरा नहीं बना रहे। नतीजतन सैलानियों की आमद थम गई है। यहां के पर्यटन व्यवसाय से जुड़े लोगों के लिए आजीविका का संकट बढ़ गया है। लिहाजा चिल्का विकास प्राधिकरण झील के पानी की गुणवत्ता में सुधार लाने की कोशिश कर रहा है। जल, वनस्पति और झील को आवास, आहार और प्रजनन का स्थल बनाने वाले जीव-जंतुओं पर शोध की तैयारी की जा रही है। यह शोध आर्द्रभूमि शोध एवं प्रशिक्षण केंद्र करेगा। इसके तहत झील में अध्ययन बांबे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी के साथ मिलकर किया जाएगा। इसके अलावा पश्चिम बंगाल में सीआईएफआरआई के साथ विश्व बैंक के सहयोग से चल रहे एकीकृत तटीय क्षेत्र प्रबंधन परियोजना के तहत मछली पारिस्थितिकी और विभिन्न तथ्यों के बारे में अध्ययन किया जाएगा। आधुनिक विकास झीलों, तालाबों और नदियों के लिए प्रदूषण का ऐसा कारण बन गया है, जिससे इंसान तो इंसान पक्षी भी हैरान-परेशान हैं।
प्राणि विशेषज्ञ लाल सिंह रावत से बातचीत
मध्य प्रदेश के घना और दिहायला समेत देश के कई अभ्यारण्यों में इस साल पक्षियों की घटने की वजह क्या है?
एक तो जाड़ों का मौसम देर से शुरू हुआ, दूसरे मौसम का चक्र में कुछ सालों से परिवर्तन हो रहा है। इसे बढ़ते हुए वैश्विक तापमान का असर भी माना जा रहा है।
झीलों से सिंचाई के लिए पानी लिया जा रहा है, इस वजह से भी क्या परिंदे प्रभावित हो रहे हैं?
सिंचाई के लिए पानी लिया जाना एक बड़ा कारण जरूर है। इस वजह से झीलों का जल संग्रह क्षेत्र सिमट जाता है। नतीजतन परिंदे पारंपरिक डेरों से मुंह मोड़ लेते हैं। हालांकि गहरी झीलों के साथ यह समस्या नहीं है। मध्य प्रदेश के शिवपुरी की चांदपाठा और घसारई झीलों में अभी भी करीब पंद्रह-पंद्रह हजार पक्षी डेरा डाले हुए हैं। सिंचाई की समस्या से निपटने के लिए जरूरी है कि जिन झीलों के जल संग्रह क्षेत्र में किसानों की जमीनें आती हैं, उन्हें पर्यटन उद्योग से होने वाले लाभ से जोड़ जाए और उनकी कृषि भूमि के अनुपात में कुल लाभ का हिस्सा उन्हें भी दिया जाए। ऐसा होता है तो किसान उस जमीन में खेती नहीं करेंगे और उन्हें आजीविका के लिए पर्यटन से आमदनी होने लगेगी। वे फिर झीलों का संरक्षण और परिंदों की चिंता भी करेंगे।
जलीय पारदर्शिता घटने का क्या असर हो रहा है?
यह सही है। जल में पारदर्शिता कम होने से परिंदों को कीट-पतंगें आसानी से दिखाई नहीं देते हैं। लिहाजा उन्हें आहार का संकट झेलना पड़ता है। लेकिन इसकी सही जानकारी के लिए अभी वैज्ञानिक अनुसंधान होना बाकी है। वैज्ञानिकों को शोध करके बताना चाहिए कि किन कारणों से झीलों में पारदर्शिता घट रही है और उसे दूर करने के आसान उपाय क्या हैं।
पक्षियों के शिकार से क्या असर पड़ता है?
शिकार की घटनाएं होती हैं। बीते साल दिहायला झील में पानी में जहर डालकर कुछ पक्षियों को मारा गया था, जिसकी पुलिस कार्रवाई भी की गई थी।
ऐसे कौन से उपाय हो सकते हैं, जिससे पक्षियों की आमद बढ़े?
जिन झीलों में आवास, आहार और प्रजनन का अनुकूल वातावरण है, उनका पर्याप्त संरक्षण और पक्षी-प्रवास के दौरान सुरक्षा व्यवस्था जरूरी है। इन इंतजामों की कमी के कारण ही देश की कई झीलों में साईबेरियन क्रेन (सारस) और पेलिकन जैसे अहम पक्षी नहीं आ रहे हैं।
जल, वनस्पति और झील को आवास, आहार और प्रजनन का स्थल बनाने वाले जीव-जंतुओं पर शोध की तैयारी की जा रही है। यह शोध आर्द्रभूमि शोध एवं प्रशिक्षण केंद्र करेगा। इसके तहत झील में अध्ययन बांबे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी के साथ मिलकर किया जाएगा। इसके अलावा पश्चिम बंगाल में सीआईएफआरआई के साथ विश्व बैंक के सहयोग से चल रहे एकीकृत तटीय क्षेत्र प्रबंधन परियोजना के तहत मछली पारिस्थितिकी और विभिन्न तथ्यों के बारे में अध्ययन किया जाएगा। आधुनिक विकास झीलों, तालाबों और नदियों के लिए प्रदूषण का ऐसा कारण बन गया है, जिससे इंसान तो इंसान पक्षी भी हैरान-परेशान हैं।
देश में पर्यावरण के साथ खिलवाड़ की आंच अब परिंदों तक जा पहुँची है। पारिस्थितिकी तंत्र के बिगड़ने की वजह से पक्षियों के जीवनचक्र पर विपरीत असर पड़ रहा है। यही वजह है कि विश्व प्रसिद्ध घना पक्षी-अभ्यारण्य के अलावा दूसरे अभ्यारण्यों की मनोरम झीलों पर जो परिंदे हर साल हजारों की संख्या में डेरा डाला करते थे, वे इस साल नदारद हैं। मेहमान पक्षी तो हजारों किलोमीटर की यात्रा कर देश की उथली झीलों, तालाबों, दलदलों और नदियों के किनारों पर चार महीने बसेरा किया करते थे। उनकी संख्या में काफी कमी आई है। बदलती आबोहवा की वजह से कई परंपरागत आवास स्थलों पर इन प्रवासी पक्षियों ने शगुन के लिए भी पड़ाव नहीं डाला। यह स्थिति पर्यावरणविदों के लिए तो चिंताजनक है ही, पर्यटन व्यवसाय की नजर से भी गंभीर चेतावनी है। राजस्थान में भरतपुर का केवलादेव घना राष्ट्रीय पक्षी अभ्यारण्य देश में एक ऐसा मनोरम स्थल था, जहां प्रवासी पक्षियों का सबसे ज्यादा जमावड़ा होता था।इस वजह से यहां देश और दुनिया से सबसे ज्यादा सैलानी पहुंचते थे। लेकिन इस साल तालाब सूखे रहने की वजह से सन्नाटा है। परिंदे रूठे तो पर्यटक भी रूठ गए। साइबेरियन सारसों का भी यह अहम ठिकाना हुआ करता था।यह पक्षी अभ्यारण्य उनतीस वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला है। हरियाली से घिरे इस भूखंड के ग्यारह वर्गकिलोमीटर क्षेत्र में उथली झीलें और तमाम प्रजातियों के करीब पैंतालीस हजार पेड़ हैं। इन्हीं पेड़ों पर पक्षी घोंसले बनाकर तमाम तरह की क्रीड़ाएं करते थे। इसी क्रीड़ा को देखने के सैलानियों का जमावड़ा बना रहता था। प्राकृतिक रूप में क्रीड़ा और आहार के लिए शिकार करने के करतब देखने के लिए यहां एक टॉवर भी बनाया गया है, जिस पर चढ़कर सैलानी इन पक्षियों के स्वछंद विचरण का आनंद उठाते थे। जाड़ों की शुरुआत के साथ ही हजारों की संख्या में सैलानी पक्षियों का आना शुरू हो जाता था। पिछले साल इन पक्षियों की संख्या लाखों में थी लेकिन अब हजारों में सिमटकर रह गई। सूखे की वजह से सुरहा ताल अधूरा रह गया। पक्षियों की कमी की एक वजह यह भी है कि तालाब खाली रहने से किसानों ने यहां खेती की शुरुआत कर दी। अब यहां गेहूं, अरहर और सरसों की फसलें लहलहा रही हैं। दरअसल इस झील में पानी की कमी होते ही पांचना बांध से पानी छोड़कर इसे लबालब भर दिया जाता था। पांचना बांध के अस्तित्व में आने से पहले यहां के झील और तालाबों के लिए पानी का मुख्य स्रोत गंभीर नदी हुआ करती थी। लेकिन कुछ समय पहले इस नदी को रोककर करौली जिले में पांच नदियों का संगम बनाकर पांचना बांध बना दिया गया।
इस बांध से अब घना को पानी दिए जाने की बजाय सिंचाई के लिए पानी दिए जाने को प्राथमिकता दी जा रही है। लिहाजा घना को पानी बमुश्किल या बड़ी जद्दोजहद के बाद ही मिल पाता है। इस साल ये पक्षी ऐसे रूठे कि एक भी सारस ने घना में अपना ठिकाना नहीं बनाया। अन्य प्रजातियों के जो पक्षी आए हैं उनकी संख्या भी पिछले सालों की तुलना में काफी कम हैं। इन खूबसूरत प्रवासी पक्षियों की गैरहाजिरी की वजह से ‘टूरिज्म एंड वाइल्ड लाइफ सोसायटी ऑफ इंडिया’ ने घना पर्यटन कार्यक्रमों को लगभग रद्द कर दिया है। इस अभ्यारण्य को विश्व धरोहर का दर्जा मिला है। हाल ही में संयुक्त राष्ट्र ने चेतावनी दी है कि अगर यहां पानी के पर्याप्त और पुख्ता इंतजाम नहीं किए गए तो अभ्यारण्य को विश्व धरोहर का दर्जा छीन लिया जाएगा। अगर जलापूर्ति करके घना की वीरानी दूर नहीं की गई तो जो स्थानीय लोग सैलानियों की आमद से अपनी आजीविका चलाते हैं उनकी रोजी-रोटी छिन जाने का खतरा भी बढ़ जाएगा। इसी क्षेत्र में गंगा और घाघरा नदियों की मैदानी तलहटियों में भी पक्षियों के झुंड आया करते थे, लेकिन अब यह पूरा इलाका पक्षियों की बाट जोह रहा है। कुछ प्रजातियों के पक्षी आए भी लेकिन उनकी संख्या अंगुलियों पर गिनने लायक है। इस क्षेत्र में शिकार करने के कारण भी पक्षियों की संख्या घटी है। मांस खाने के शौकीन, शिकारियों को मुंह मांगे दाम देने को तैयार रहते हैं। इस कारण शिकारियों के क्रूर हाथ पक्षियों को नहीं बख्शते। इस भय की वजह से सुरहा तालाब और गंगा और घाघरा नदियों के किनारों पर इक्का-दुक्का साइबेरियन पक्षी डेरा डालते भी हैं तो जल्द उठा भी लेते हैं। यहां मध्य एशिया, रूस, चीन और अफगानिस्तान जैसे देशों से हजारों किलोमीटर की यात्रा करके जाड़े के दिनों में पक्षियों की जमातों का सिलसिला शुरू हो जाता है। लेकिन इस बार इनके बसेरे सूने हैं।
भरतपुर के घना पक्षी अभ्यारण्य के बाद शिवपुरी जिले की दिहायला झील प्रवासी पक्षियों के लिए मशहूर थी। यहां आने वाले विदेशी परिंदों की संख्या दो लाख तक दर्ज की गई है। लेकिन इस बार इस झील की सतह पर सन्नाटा है। यहां सींखपर (पिनटेल) बड़ी संख्या में आते थे। नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी मुंबई के पक्षी विशेषज्ञों के शोधों के मुताबिक सींखपर एक प्रकार की बत्तख होती है। इसकी पूंछ सुई जैसी होती है, इसलिए इसे सींखपर कहते हैं। इनके पैरों में डाले गए छल्लों के अध्ययन से पता चला है दिहायल में ही नहीं पूरे भारतवर्ष में सींखपर रूस के कैस्पियन सागर और साइबेरिया क्षेत्रों से आते हैं। इस झील का पानी सिंचाई के लिए मुहैया कराने से झील में पानी रुकना बंद क्या हुआ, लिहाजा पक्षी भी रूठने लग गए। शिकार की वजह से पक्षी भयभीत हुए हैं। वन और राजस्व भूमि के विवाद को लेकर भी इन महकमों में जहां जंग छिड़ी रहती है। इस कारण भी सोन चिड़िया अभ्यारण्य, करैरा में आने वाली यह झील बर्बाद हुई। शिवपुरी के ही चांदपाठा और घसारई तालाब में हजारों की संख्या में प्रवासी परिंदे आते थे लेकिन इस बार दोनों तालाबों से विदेशी परिंदे नदारद हैं। झीलों में बढ़ते जल प्रदूषण की वजह से यह स्थिति निर्मित हुई है। चांदपाठा तालाब में इंजन से चलने वाली नौका विहार ने भी पक्षियों के सहज आवास में खलल डाला है। अगर सैलानी पक्षियों का नैसर्गिक आनंद लेना है तो नौकायन बंद करना जरूरी है।
पंजाब में व्यास और सतलज नदियों के मुहाने और नंगल और रोपड़ के दलदली क्षेत्र में भी लागों की तादाद में प्रवासी पक्षी आते थे। इस क्षेत्र को इसी कारण हरिके पक्षी अभ्यारण्य घोषित किया गया। यहाँ साइबेरिया, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से पक्षी आकर जाड़े में पड़ाव डालते थे। एक समय पक्षियों के आहार, प्रजनन और क्रीड़ा के लिए यह स्थान जितना अनुकूल और उपयुक्त था उतना ही नदियों में बढ़ते प्रदूषण, भोजन की कमी और चोरी-छिपे शिकार की वजह से प्रतिकूल और अनुपयुक्त हो गया। इन वजहों से पंजाब के इन रमणीय स्थलों पर देशी-विदेशी पक्षियों की संख्या तेजी से घट रही है। इन परिंदों की संख्या इसी क्रम में घटती रही तो एक समय यहां पक्षियों का कलरव ठहर जाएगा। प्रसिद्ध पक्षी विज्ञानी सलिम अली ने इस दलदली झील के प्राकृतिक अहमियत का अनुभव करते हुए यहां आने वाले पक्षियों पर नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी के शोधार्थियों से 1982 में अध्ययन भी कराया था। इन अध्ययनों से पता चला था कि ग्रे-हेरोन नाम का पक्षी एक हजार सात सौ किलोमीटर की दूरी तय करके रूस की बुलकुश झील से पंजाब आया था। बुलकुश के पक्षी विज्ञानियों को इस पक्षी के पैरों में बंधा छल्ला खोलने पर यह जानकारी मिली थी कि यह पक्षी पंजाब की प्रवास-यात्रा से लौटा है। इस दलदली क्षेत्र में 210 प्रकार की पक्षी नस्लों की पहचान की जा चुकी है। लेकिन इस बार यहां बमुस्किल चालीस प्रजातियों के ही पक्षी आए हैं। दलदल में बढ़ती जलकुंभी भी पक्षियों के सहज आवास में एक बड़ी बाधा है। प्रवासी पक्षी विशेषज्ञों का मानना है कि इस बार लगातार तीसरी मर्तबा भी इन पक्षियों की संख्या कम रही। कई दुर्लभ पक्षियों ने बमुश्किल हफ्ते भर डेरा डाला। वातावरण की अनुकूलता न पाने पर ये पक्षी गोविंद सागर झील की ओर रुख कर गए।
विशेषज्ञों का कहना है कि भोजन चक्र बिगड़ने से विदेशी पक्षियों की आमद कम हुई है। प्रवासी पक्षियों का मुख्य भोजन छोटी मछलियां या इनसे मेल खाते जीव-जंतु और कीड़े-मकोड़े हैं। लेकिन प्रदूषण, सीवेज का पानी, इलेक्ट्रानिक और घरेलू प्लास्टिक कचरे के झीलों में जमा होने से आहार की उपलब्धता पर असर पड़ा है। नतीजतन पक्षी भी घट गए। जीव विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि जलीय पारदर्शिता खत्म होने की वजह भी, पक्षियों की संख्या कम होने का एक कारण है। इस वजह से पक्षियों को भोजन तलाशने में कठिनाई तो होती ही है, समय भी ज्यादा लगता है। कारखानों से निकले पानी के सतलज और व्यास नदियों में मिलने से पारदर्शिता का संकट उत्पन्न हुआ। रोपड़ इंटरनेशनल वैटलैंड ने एनएफएल थर्मल प्लांट और सीमेंट फैक्ट्री से निकले प्रदूषित पानी के सतलज में मिलने को खतरनाक बताया है। इस जल की शुद्धि के लिए हाल ही में केंद्रीय पर्यावरम मंत्री जयराम रमेश ने सतलज की सफाई के लिए दो सौ करोड़ रुपए की एक योजना मंजूर की है। लेकिन इस धनराशि से क्या नतीजे निकलेंगे- यह तो अभी भविष्य के गर्भ में है। पूरे देश में मांस के शौकीनों की बढ़ती संख्या ने भी प्रवासी पक्षियों को संकट में डाला है। इन पक्षियों का मांस बेहद महंगा बिकता है। लिहाजा शिकारियों को दाम भी अच्छे मिलते हैं। जिंदा और मरे पक्षियों का कारोबार इधर खूब फल-फूल रहा है।
इन पक्षियों को पकड़ने के कई तरीके अपनाए जाते हैं। शिकारी झील क्षेत्र में बेहोशी की दवा दानों में मिलाकर डाल देते हैं। इसे खाने से पक्षियों के बेहोश होते ही शिकारी इन्हें पकड़ लेते हैं। नशीली दवा खाने से बेहोश या दम तोड़ चुके पक्षी को खाने से मानव स्वास्थ्य पर कोई बुरा असर नहीं पड़ता। क्योंकि नमक डले पानी से मांस का शोधन करने से दवा का असर एकदम खत्म हो जाता है। अगर बेहोश चिड़िया को नमक मिले पानी में डूबो दिया जाए तो पक्षी की बेहोशी टूट जाती है और कुछ ही देर में वह होश में आ जाता है। इन पक्षियों को थोक में पकड़ने के लिए शिकारी रात के सन्नाटे का भी लाभ उठाते हैं। शिकारी एक ओर जाल पकड़कर बैठ जाते हैं और दूसरी तरफ से थाली और खाली कनस्तर बजाकर शोर करते हैं। इस आंतंकित ध्वनि प्रदूषण से पक्षी ध्वनि की विपरीत दिशा में सीधी उड़ान भरते हैं और जाल में उलझ जाते हैं। शिकार पर न वन अमले का की अंकुश है और न ही पुलिस का। नतीजतन शिकार की तादाद निरंतर बढ़ रही है। अगर प्रदूषण और शिकार से मुक्ति के उपाय नहीं तलाशे गए तो तय है कि एक दिन ऐसा भी आ सकता है कि जब प्रवासी पक्षी मनोरम भारतीय झीलों से हमेशा के लिए रूठ जाएं? यहां की शीतल हरियाली स्निग्ध सुगंध और पोषक आहार की बहुलता देशी-विदेशी पक्षियों के ठहरने, प्रजनन करने और स्वछंद उड़ान भरने के लिए अनुकूल परिवेश तैयार करती हैं।
साइबेरिया में जब रक्त जमा देने वाली सर्दी शुरू होती है, तब तापमान शून्य से चालीस डिग्री नीचे चला जाता है। चारों ओर बर्फ का साम्राज्य छा जाता है। ऐसे प्रतिकूल समय में दुर्लभ सारस और विभिन्न नस्लों के बहुरंगी पक्षी भारत और एशिया के अनुकूल ठिकानों की ओर समूहों में उड़ान भरते हैं और करीब पांच हजार किलोमीटर की दूरी तय कर मनोरम झीलों में अस्थायी ठौर बनाते हैं।
हरदोई जिले में तीन पक्षी विहार हैं- नवाबगंज, लाखबहोशी और सांडी। पक्षी विशेषज्ञ केके रस्तोगी का दावा है कि इन पक्षी विहारों में प्रवासी परिंदों की संख्या आधी से कम रह गई है। 224 वर्ग किलोमीटर में फैले इस विहार की परिधि में दो दर्जन गांव है। इसकी उथली झी कमल, जलकुंभी, शैवाल, नारगुजरिया के झाड़-झंखाड़ों से ढकी रहती है। इन पर बनाए घरौंदों में टफ्टेड पोचर्ड, कॉमनटील, गार्डबाल, ग्रीनलैंड, वाइपर, वाइट स्ट्रोक, टेंड प्रेस्टिड, पंचडर्टील, छोटा लालासर विजन, ओपन विलस्टार, कामनडक, विसिलिंग टील वगैरह पक्षी करीब चार महीने तक डेरा डाले रहकर समय गुजारते हैं। रस्तोगी ने इस बार इन पक्षी विहारों की सैर करने के बाद नेचुरल हिस्ट्री मुंबई के लिए जो रिपोर्ट तैयार की है उसमें कहा गया है कि इस मर्तबा केवल 35 प्रजातियों के सैलानी पक्षी देखने में आए हैं। इनमें भी साइबेरिया से आए पक्षियों की संख्या बमुश्किल चार-पांच है। इसके पहले दो सौ प्रजातियों के पक्षी यहां बसेरा करने आते थे।
अपनी रिपोर्ट में रस्तोगी ने बताया है कि पूरी झील में एक हजार से ज्यादा परिंदे नहीं हैं। इनमें सबसे ज्यादा छ सौ की संख्या में टप्टेड पोचर्ड हैं। रिपोर्ट में सारस पांच और मार्श हैरियर की संख्या दो बताई गई है। खुलासा किया गया है कि पानी और घास का कमी की वजह से आहार में कमी हुई। परिंदों ने मुंह मोड़ लिया। मौसम में बदलाव ने भी मेहमान पक्षियों की संख्या घटाई है। सांडी पक्षी विहार में इस साल 17,270 विदेशी पक्षी आए, जबकि पिछले साल इनकी संख्या 25,625 थी। पक्षियों की आमद में यह गिरावट जलवायु परिवर्तन का संकेत है। उत्तर प्रदेश के बलिया जिले का सुरहा ताल मेहमान पक्षियों का आसान ठिकाना रहा करता था। लेकिन अब इस तालाब से भी पक्षियों ने किनारा कर लिया है। देश की सबसे बड़ी और दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी समुद्री चिल्का झील भी प्रदूषित हो रही है। इसे देशी-विदेशी पक्षी बसेरा नहीं बना रहे। नतीजतन सैलानियों की आमद थम गई है। यहां के पर्यटन व्यवसाय से जुड़े लोगों के लिए आजीविका का संकट बढ़ गया है। लिहाजा चिल्का विकास प्राधिकरण झील के पानी की गुणवत्ता में सुधार लाने की कोशिश कर रहा है। जल, वनस्पति और झील को आवास, आहार और प्रजनन का स्थल बनाने वाले जीव-जंतुओं पर शोध की तैयारी की जा रही है। यह शोध आर्द्रभूमि शोध एवं प्रशिक्षण केंद्र करेगा। इसके तहत झील में अध्ययन बांबे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी के साथ मिलकर किया जाएगा। इसके अलावा पश्चिम बंगाल में सीआईएफआरआई के साथ विश्व बैंक के सहयोग से चल रहे एकीकृत तटीय क्षेत्र प्रबंधन परियोजना के तहत मछली पारिस्थितिकी और विभिन्न तथ्यों के बारे में अध्ययन किया जाएगा। आधुनिक विकास झीलों, तालाबों और नदियों के लिए प्रदूषण का ऐसा कारण बन गया है, जिससे इंसान तो इंसान पक्षी भी हैरान-परेशान हैं।
किसानों को मिले फायदा
प्राणि विशेषज्ञ लाल सिंह रावत से बातचीत
मध्य प्रदेश के घना और दिहायला समेत देश के कई अभ्यारण्यों में इस साल पक्षियों की घटने की वजह क्या है?
एक तो जाड़ों का मौसम देर से शुरू हुआ, दूसरे मौसम का चक्र में कुछ सालों से परिवर्तन हो रहा है। इसे बढ़ते हुए वैश्विक तापमान का असर भी माना जा रहा है।
झीलों से सिंचाई के लिए पानी लिया जा रहा है, इस वजह से भी क्या परिंदे प्रभावित हो रहे हैं?
सिंचाई के लिए पानी लिया जाना एक बड़ा कारण जरूर है। इस वजह से झीलों का जल संग्रह क्षेत्र सिमट जाता है। नतीजतन परिंदे पारंपरिक डेरों से मुंह मोड़ लेते हैं। हालांकि गहरी झीलों के साथ यह समस्या नहीं है। मध्य प्रदेश के शिवपुरी की चांदपाठा और घसारई झीलों में अभी भी करीब पंद्रह-पंद्रह हजार पक्षी डेरा डाले हुए हैं। सिंचाई की समस्या से निपटने के लिए जरूरी है कि जिन झीलों के जल संग्रह क्षेत्र में किसानों की जमीनें आती हैं, उन्हें पर्यटन उद्योग से होने वाले लाभ से जोड़ जाए और उनकी कृषि भूमि के अनुपात में कुल लाभ का हिस्सा उन्हें भी दिया जाए। ऐसा होता है तो किसान उस जमीन में खेती नहीं करेंगे और उन्हें आजीविका के लिए पर्यटन से आमदनी होने लगेगी। वे फिर झीलों का संरक्षण और परिंदों की चिंता भी करेंगे।
जलीय पारदर्शिता घटने का क्या असर हो रहा है?
यह सही है। जल में पारदर्शिता कम होने से परिंदों को कीट-पतंगें आसानी से दिखाई नहीं देते हैं। लिहाजा उन्हें आहार का संकट झेलना पड़ता है। लेकिन इसकी सही जानकारी के लिए अभी वैज्ञानिक अनुसंधान होना बाकी है। वैज्ञानिकों को शोध करके बताना चाहिए कि किन कारणों से झीलों में पारदर्शिता घट रही है और उसे दूर करने के आसान उपाय क्या हैं।
पक्षियों के शिकार से क्या असर पड़ता है?
शिकार की घटनाएं होती हैं। बीते साल दिहायला झील में पानी में जहर डालकर कुछ पक्षियों को मारा गया था, जिसकी पुलिस कार्रवाई भी की गई थी।
ऐसे कौन से उपाय हो सकते हैं, जिससे पक्षियों की आमद बढ़े?
जिन झीलों में आवास, आहार और प्रजनन का अनुकूल वातावरण है, उनका पर्याप्त संरक्षण और पक्षी-प्रवास के दौरान सुरक्षा व्यवस्था जरूरी है। इन इंतजामों की कमी के कारण ही देश की कई झीलों में साईबेरियन क्रेन (सारस) और पेलिकन जैसे अहम पक्षी नहीं आ रहे हैं।
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