‘पिरामिड के सबसे नीचे के तल्ले में भूमिहीन खेत मजदूर हैं, जिनकी संख्या चार करोड़ बीस लाख है। ये खेती में लगी हुई जनसंख्या के 37.8 प्रतिशत हैं। इनके बीच कम से कम तीस लाख लोग ऐसे हैं, जिन्हें क्रीतदास या बंधुआ मजदूर कहा जाता है। इनके ऊपर हैं ‘अत्यंत छोटे किसान।’ पांच एकड़ से कम की जमीन के मालिकाना वाली अथवा सम्पत्तिहीन रैयत अथवा बंटाई पर खेती करने वाले किसानों को इसी वर्ग में रखा गया है। भारत में अधिकांश स्थानों पर पांच एकड़ से कम जमीन की खेती से पूरे साल के लिए अनाज पाना भी संभव नहीं है। अतएव श्रम की बिक्री अपरिहार्य है। इसी कारण इस वर्ग के लोग खेत-मजदूर के निकटस्थ होते हैं।
सन् 1931 की जनगणना में व्यक्त अभिमत
वर्तमान विवाद ‘महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून’ को लेकर सामने आ रहा है जिसमें अनेक लोग इस मत के साथ सामने आ रहे हैं कि ‘मनरेगा’ की वजह से कृषि कार्य हेतु मजदूर नहीं मिल रहे हैं, जिससे कि कृषि को चोट पहुंच रही है। इस वर्ग का यह भी मानना है ‘मजदूरी की बढ़ती लागत’ कृषि को नुकसान पहुंचा रही है। अतएव कृषि के मौसम में मनरेगा के अंतर्गत मजदूरी पर रोक लगना चाहिए। सरकार, खासकर नौकरशाही इस तर्क से प्रभावित भी हो गई थी उसने ऐसा आदेश निकालने का मन भी बना लिया था। भला हो कि उन्हें सही समय पर यह ध्यान दिला दिया गया कि मनरेगा एक ‘कानून’ है और इसमें कार्य करने वाली मांग पर निर्भर कि वह कब कार्य करना चाहता है। इस तरह का कोई भी आदेश ‘गैरकानूनी’ होगा। अतएव इस बात की वकालत करने वाले श्रेष्ठी वर्ग के लिए आवश्यक है कि वह पहले ‘मनरेगा’ कानून का विस्तृत अध्ययन करें।
अन्य बातों में जाने से पहले इस बात पर भी गौर करना आवश्यक है कि गांव में रहने वाले 70 से 80 प्रतिशत लोग एक हेक्टेयर से कम जोत वाले किसान या खेतीहर मजदूर हैं। इसलिए बहुसंख्य समाज के हक को समृद्ध वर्ग के ऊपर आखिर कब तक न्योछारित किया जाता रहेगा और ये वर्ग कब अपने को ‘स्वामी’ समझने की मनःस्थिति से बाहर आ पाएगा? दूसरी बात जो कही गई है कि मनरेगा की वजह से खेती में मजदूरों की कमी हो गई है। इस पर भी तार्किक रूप से विचार किए जाने की आवश्यकता है। मनरेगा में एक परिवार को वर्ष में 100 दिन रोजगार मिलना है। सरकार के अपने आंकड़ों के हिसाब से ही मनरेगा की कार्यक्षमता 30 प्रतिशत के आसपास बैठती है। यानि मनरेगा वर्ष में करीब 30 दिन रोजगार दे पाता है। वर्ष में 365 दिन होते हैं इसमें से 30 दिन घटाने के बाद बाकी 335 दिन यानि 90 प्रतिशत से अधिक समय तक मजदूर ‘आपके’ लिए उपलब्ध है।
यहां पर सवाल उठता है कि फिर कृषि के लिए मजदूर उपलब्ध क्यों नहीं हो पा रहे हैं? इसका कोई सीधा सपाट जवाब नहीं है इसलिए हमें घुमावदार व ऊँचे नीचे रास्ते से ही इसके उत्तर पर पहुंचना होगा। भारत में सरकारी तौर पर जिन मदों में मजदूरी का निर्धारण होता है, कृषि मजदूरी मूल्य निर्धारण के हिसाब से उनमें सबसे नीचे है। मनरेगा में मिलने वाली मजदूरी इससे भी कम है। यानि कृषि मजदूरी को पैमाने मानें तो मनरेगा में मिलने वाली मजदूरी महज उसे अगले दिन भी मजदूरी कर पाने के लिए जिंदा बनाए रखने के जितनी ही होती है। (कर्नाटक उच्च न्यायालय के मनरेगा के अंतर्गत न्यूनतम मजदूरी देने के आदेश के खिलाफ सरकार सर्वोच्च न्यायालय में जा रही है) गौरतलब है कि इसी वजह से जब तक गांव में परिवार के 2-3 सदस्य कार्य नहीं करते तब तक वे ठीक से जिंदा भी नहीं रह सकते। जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने रेप्टाक्रास ब्रेट मामले में साफ तौर पर कहा था कि एक मजदूर को कम से कम इतना तो मिलना ही चाहिए कि वह इंसान जैसा जीवन जी सके। इंसान जैसे जीवन के लिए उन्होंने शिक्षा, स्वास्थ्य व मनोरंजन की आवश्यकता बताई थी। 15वें श्रम सम्मेलन में भी इस विचार से सहमति जताई गई थी।
18वीं शताब्दी में बंगला भाषा में एक लोकप्रिय शब्द था ‘खतबंदी श्रमिक।’ यह एक तरह का बंधुआ मजदूर था जिसे कृषि में कार्य के बदले भोजन व कपड़ा दे दिया जाता था। हमारे समाज का एक हिस्सा आज भी आधुनिक कृषि को इस खतबंदी या बंधुआ मजदूर के भरोसे ही चलाना चाहता है। हम सब यह जानते हैं कि मनरेगा कमोवेश असफल होने के कगार पर पहुंच चुका है और उसे सिर्फ एक धक्के का इंतजार है। इस धक्के के लिए विश्व बैंक ने भी सरकार को चेताना शुरू कर दिया है। यहां पर एक और सवाल सामने आता है कि मजदूर आखिर जा कहां रहे हैं। कहा जा रहा है कि पंजाब व हरियाणा में कृषि मजदूर नहीं पहुंच रहे खासकर बिहार के! लेकिन हमें यह देखना और समझना होगा कि बिहार व छत्तीसगढ़ के मजदूरों ने पंजाब जाना क्यों बंद कर दिया और अब वह दक्षिण भारत में ‘अधोसंरचना’ यानि सड़क आदि निर्माण कार्यों में क्यों जाने लगे हैं। मनरेगा को ‘गरियाने’ वाले समाज ने क्या कभी एक भी मजदूर से पूछा है कि वह गांव में काम कर भी रहा है या नहीं, अथवा क्या मनरेगा ने उसे गांव में रोक रखा है? शायद इसकी जरुरत ही नहीं समझी गई।
अब शहरों में बंधुआ मजदूरों की अधिक आवश्यकता है। विश्व बैंक की भी इसमें मौन स्वीकृति है। बड़ी संख्या में पलायन करने वाले अपने सामाजिक व सांस्कृतिक परिवेश से बेदखल होकर शहरों में पहुंचते हैं और सड़क किनारे पशुवत जीवन जीने को अभिशप्त हो जाते हैं। ये इन अंजाने गन्तव्यों पर बरसों-बरस पड़े रहते हैं और दीर्घकालीन बीमारी की ही तरह दीर्घकालीन गरीबी जो कि जीनांतरित होकर अगली पीढ़ी में हस्तांतरित हो जाती है, के शिकार हो जाते हैं। खेती में मजदूरों की कमी की समस्या की ओर वापस लौटते हैं। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि 40 प्रतिशत किसानों के पास छोटी जोत हैं और वे सिर्फ कृषि पर आश्रित रहकर जीविकायापन नहीं कर सकते। इसे इस उदाहरण से भी समझा जा सकता है। पिछले दिनों मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड अंचल से हो रहे पलायन के अध्ययन के दौरान यह बात सामने आई कि यहां मनरेगा के अंतर्गत ठीक से कार्य नहीं मिल रहा है और यदि यहां उन्हें प्रतिदिन मात्र 150 रु. भी मिल जाते हैं तो वे पलायन नहीं करेंगे। मेरे द्वारा यह पूछने पर कि पलायन करके वे कहां जाते हैं? तो अधिकांश का कहना था दिल्ली, पंजाब और हरियाणा। वहां वे निर्माण कार्यों में मजदूरी करते हैं। यानि मजदूरों का पंजाब की ओर पलायन जारी है। यहीं पर सवाल उठता है कि यदि वे पंजाब जा रहे हैं तो फिर कृषि में कार्य क्यों नहीं करते?
इसी सवाल के जवाब में सब कुछ छिपा है। हम सभी जानते हैं कि आधुनिक यंत्र आधारित कृषि में बुआई से लेकर कटाई तक सारा काम मशीनों से किया जा सकता है और अनेक स्थानों पर ऐसा किया भी जा रहा है। कृषि की मुख्य समस्या उपज के मूल्य निर्धारण की है। मूल्य का निर्धारण कैसे होता है यह हम सभी जानते हैं। 42 प्रतिशत किसानों द्वारा खेती छोड़ने का मन बनाए जाने का इतिहास और भविष्य भी हमें मालूम है। इसीलिए इस बात का भी अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल नहीं है कि कृषि पर संकट क्यों थोपा जा रहा है। दरअसल एक वर्ग कृषि से बंधुआ मजदूरी को समाप्त ही नहीं करना चाहता। यदि देश के 70 प्रतिशत व्यक्ति दिनों-दिन गरीब होकर दयनीय स्थिति में पहुंचते जा रहे हों और शहरों में सड़क किनारे ‘गैर नागरिक’ की तरह जीवन जीते हैं तो यह हमारे नीति निर्माताओं के अनुकूल ही है। आवश्यकता इस बात की है कि मनरेगा का क्रियावयन ठीक से हो तथा इसमें न्यूनतम जीवन जी सकने लायक मजदूरी दी जाए और किसानों को उनकी फसल का यथोचित मूल्य दिलवाया जाए। भारत की अधिकांश खेती छोटी जोत की खेती है और उसे ही सशक्त करने की आवश्यकता है न कि 8-10 प्रतिशत कार्पोरेट या बड़ी जोत की खेती को। यदि छोटी जोत की खेती को संभालने का प्रयत्न होगा तो भारत की खेती अपने आप संकट से बाहर निकल आएगी। साथ ही हमें किसान को मजदूर बनाने के षड़यंत्र को नाकामयाब करना होगा।
मनरेगा को ‘सामाजिक पाप’ बताने वालों को ध्यान में रखना चाहिए,
जिंदगी भर एक खता हम करते रहे,
धूल तो चेहरे पर थी, आईना साफ करते रहे।
सन् 1931 की जनगणना में व्यक्त अभिमत
यदि देश के 70 प्रतिशत व्यक्ति दिनों-दिन गरीब होकर दयनीय स्थिति में पहुंचते जा रहे हों और शहरों में सड़क किनारे ‘गैर नागरिक’ की तरह जीवन जीते हैं तो यह हमारे नीति निर्माताओं के अनुकूल ही है। भारत की अधिकांश खेती छोटी जोत की खेती है और उसे ही सशक्त करने की आवश्यकता है न कि 8-10 प्रतिशत कार्पोरेट या बड़ी जोत की खेती को। यदि छोटी जोत की खेती को संभालने का प्रयत्न होगा तो भारत की खेती अपने आप संकट से बाहर निकल आएगी।
उपरोक्त जनगणना पराधीन भारत में संभवतः जीविका के आधार पर निष्कर्ष निकाले जाने वाली अंतिम जनसंख्या थी क्योंकि वर्ष 1941 में विश्व युद्ध के चलते इतने विस्तार से विश्लेषण संभव नहीं हो पाया था। लेकिन आठ दशक बीत जाने, भारत के आजाद होकर 21वीं शताब्दी में प्रवेश कर लेने और विश्व की दूसरी सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था बन जाने के बावजूद क्या उपरोक्त स्थिति में कोई परिवर्तन आया है? शायद नहीं! क्योंकि अर्जुन सेनगुप्ता समिति ने अपनी महत्वपूर्ण रिपोर्ट में साफ तौर पर कहा था कि खेती पर निर्भर समुदाय की 30 प्रतिशत कमाई तो मजदूरी से ही होती है। यानि पिछली एक शताब्दी से हम कदम ताल कर रहे हैं और यदि कृषि या ग्रामीण मजदूरों के हक में कुछ करने का प्रयत्न किया भी जाता है तो हमारे यहां के प्रभावशाली वर्ग जिसमें राजनेता, कृषि वैज्ञानिक व बड़े किसान व उनके हितैषी शामिल हैं, इस पहल को प्रतिगामी कदम बताकर इससे छुटकारा पाने की गुहार करने लगते हैं।वर्तमान विवाद ‘महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून’ को लेकर सामने आ रहा है जिसमें अनेक लोग इस मत के साथ सामने आ रहे हैं कि ‘मनरेगा’ की वजह से कृषि कार्य हेतु मजदूर नहीं मिल रहे हैं, जिससे कि कृषि को चोट पहुंच रही है। इस वर्ग का यह भी मानना है ‘मजदूरी की बढ़ती लागत’ कृषि को नुकसान पहुंचा रही है। अतएव कृषि के मौसम में मनरेगा के अंतर्गत मजदूरी पर रोक लगना चाहिए। सरकार, खासकर नौकरशाही इस तर्क से प्रभावित भी हो गई थी उसने ऐसा आदेश निकालने का मन भी बना लिया था। भला हो कि उन्हें सही समय पर यह ध्यान दिला दिया गया कि मनरेगा एक ‘कानून’ है और इसमें कार्य करने वाली मांग पर निर्भर कि वह कब कार्य करना चाहता है। इस तरह का कोई भी आदेश ‘गैरकानूनी’ होगा। अतएव इस बात की वकालत करने वाले श्रेष्ठी वर्ग के लिए आवश्यक है कि वह पहले ‘मनरेगा’ कानून का विस्तृत अध्ययन करें।
अन्य बातों में जाने से पहले इस बात पर भी गौर करना आवश्यक है कि गांव में रहने वाले 70 से 80 प्रतिशत लोग एक हेक्टेयर से कम जोत वाले किसान या खेतीहर मजदूर हैं। इसलिए बहुसंख्य समाज के हक को समृद्ध वर्ग के ऊपर आखिर कब तक न्योछारित किया जाता रहेगा और ये वर्ग कब अपने को ‘स्वामी’ समझने की मनःस्थिति से बाहर आ पाएगा? दूसरी बात जो कही गई है कि मनरेगा की वजह से खेती में मजदूरों की कमी हो गई है। इस पर भी तार्किक रूप से विचार किए जाने की आवश्यकता है। मनरेगा में एक परिवार को वर्ष में 100 दिन रोजगार मिलना है। सरकार के अपने आंकड़ों के हिसाब से ही मनरेगा की कार्यक्षमता 30 प्रतिशत के आसपास बैठती है। यानि मनरेगा वर्ष में करीब 30 दिन रोजगार दे पाता है। वर्ष में 365 दिन होते हैं इसमें से 30 दिन घटाने के बाद बाकी 335 दिन यानि 90 प्रतिशत से अधिक समय तक मजदूर ‘आपके’ लिए उपलब्ध है।
यहां पर सवाल उठता है कि फिर कृषि के लिए मजदूर उपलब्ध क्यों नहीं हो पा रहे हैं? इसका कोई सीधा सपाट जवाब नहीं है इसलिए हमें घुमावदार व ऊँचे नीचे रास्ते से ही इसके उत्तर पर पहुंचना होगा। भारत में सरकारी तौर पर जिन मदों में मजदूरी का निर्धारण होता है, कृषि मजदूरी मूल्य निर्धारण के हिसाब से उनमें सबसे नीचे है। मनरेगा में मिलने वाली मजदूरी इससे भी कम है। यानि कृषि मजदूरी को पैमाने मानें तो मनरेगा में मिलने वाली मजदूरी महज उसे अगले दिन भी मजदूरी कर पाने के लिए जिंदा बनाए रखने के जितनी ही होती है। (कर्नाटक उच्च न्यायालय के मनरेगा के अंतर्गत न्यूनतम मजदूरी देने के आदेश के खिलाफ सरकार सर्वोच्च न्यायालय में जा रही है) गौरतलब है कि इसी वजह से जब तक गांव में परिवार के 2-3 सदस्य कार्य नहीं करते तब तक वे ठीक से जिंदा भी नहीं रह सकते। जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने रेप्टाक्रास ब्रेट मामले में साफ तौर पर कहा था कि एक मजदूर को कम से कम इतना तो मिलना ही चाहिए कि वह इंसान जैसा जीवन जी सके। इंसान जैसे जीवन के लिए उन्होंने शिक्षा, स्वास्थ्य व मनोरंजन की आवश्यकता बताई थी। 15वें श्रम सम्मेलन में भी इस विचार से सहमति जताई गई थी।
18वीं शताब्दी में बंगला भाषा में एक लोकप्रिय शब्द था ‘खतबंदी श्रमिक।’ यह एक तरह का बंधुआ मजदूर था जिसे कृषि में कार्य के बदले भोजन व कपड़ा दे दिया जाता था। हमारे समाज का एक हिस्सा आज भी आधुनिक कृषि को इस खतबंदी या बंधुआ मजदूर के भरोसे ही चलाना चाहता है। हम सब यह जानते हैं कि मनरेगा कमोवेश असफल होने के कगार पर पहुंच चुका है और उसे सिर्फ एक धक्के का इंतजार है। इस धक्के के लिए विश्व बैंक ने भी सरकार को चेताना शुरू कर दिया है। यहां पर एक और सवाल सामने आता है कि मजदूर आखिर जा कहां रहे हैं। कहा जा रहा है कि पंजाब व हरियाणा में कृषि मजदूर नहीं पहुंच रहे खासकर बिहार के! लेकिन हमें यह देखना और समझना होगा कि बिहार व छत्तीसगढ़ के मजदूरों ने पंजाब जाना क्यों बंद कर दिया और अब वह दक्षिण भारत में ‘अधोसंरचना’ यानि सड़क आदि निर्माण कार्यों में क्यों जाने लगे हैं। मनरेगा को ‘गरियाने’ वाले समाज ने क्या कभी एक भी मजदूर से पूछा है कि वह गांव में काम कर भी रहा है या नहीं, अथवा क्या मनरेगा ने उसे गांव में रोक रखा है? शायद इसकी जरुरत ही नहीं समझी गई।
अब शहरों में बंधुआ मजदूरों की अधिक आवश्यकता है। विश्व बैंक की भी इसमें मौन स्वीकृति है। बड़ी संख्या में पलायन करने वाले अपने सामाजिक व सांस्कृतिक परिवेश से बेदखल होकर शहरों में पहुंचते हैं और सड़क किनारे पशुवत जीवन जीने को अभिशप्त हो जाते हैं। ये इन अंजाने गन्तव्यों पर बरसों-बरस पड़े रहते हैं और दीर्घकालीन बीमारी की ही तरह दीर्घकालीन गरीबी जो कि जीनांतरित होकर अगली पीढ़ी में हस्तांतरित हो जाती है, के शिकार हो जाते हैं। खेती में मजदूरों की कमी की समस्या की ओर वापस लौटते हैं। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि 40 प्रतिशत किसानों के पास छोटी जोत हैं और वे सिर्फ कृषि पर आश्रित रहकर जीविकायापन नहीं कर सकते। इसे इस उदाहरण से भी समझा जा सकता है। पिछले दिनों मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड अंचल से हो रहे पलायन के अध्ययन के दौरान यह बात सामने आई कि यहां मनरेगा के अंतर्गत ठीक से कार्य नहीं मिल रहा है और यदि यहां उन्हें प्रतिदिन मात्र 150 रु. भी मिल जाते हैं तो वे पलायन नहीं करेंगे। मेरे द्वारा यह पूछने पर कि पलायन करके वे कहां जाते हैं? तो अधिकांश का कहना था दिल्ली, पंजाब और हरियाणा। वहां वे निर्माण कार्यों में मजदूरी करते हैं। यानि मजदूरों का पंजाब की ओर पलायन जारी है। यहीं पर सवाल उठता है कि यदि वे पंजाब जा रहे हैं तो फिर कृषि में कार्य क्यों नहीं करते?
इसी सवाल के जवाब में सब कुछ छिपा है। हम सभी जानते हैं कि आधुनिक यंत्र आधारित कृषि में बुआई से लेकर कटाई तक सारा काम मशीनों से किया जा सकता है और अनेक स्थानों पर ऐसा किया भी जा रहा है। कृषि की मुख्य समस्या उपज के मूल्य निर्धारण की है। मूल्य का निर्धारण कैसे होता है यह हम सभी जानते हैं। 42 प्रतिशत किसानों द्वारा खेती छोड़ने का मन बनाए जाने का इतिहास और भविष्य भी हमें मालूम है। इसीलिए इस बात का भी अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल नहीं है कि कृषि पर संकट क्यों थोपा जा रहा है। दरअसल एक वर्ग कृषि से बंधुआ मजदूरी को समाप्त ही नहीं करना चाहता। यदि देश के 70 प्रतिशत व्यक्ति दिनों-दिन गरीब होकर दयनीय स्थिति में पहुंचते जा रहे हों और शहरों में सड़क किनारे ‘गैर नागरिक’ की तरह जीवन जीते हैं तो यह हमारे नीति निर्माताओं के अनुकूल ही है। आवश्यकता इस बात की है कि मनरेगा का क्रियावयन ठीक से हो तथा इसमें न्यूनतम जीवन जी सकने लायक मजदूरी दी जाए और किसानों को उनकी फसल का यथोचित मूल्य दिलवाया जाए। भारत की अधिकांश खेती छोटी जोत की खेती है और उसे ही सशक्त करने की आवश्यकता है न कि 8-10 प्रतिशत कार्पोरेट या बड़ी जोत की खेती को। यदि छोटी जोत की खेती को संभालने का प्रयत्न होगा तो भारत की खेती अपने आप संकट से बाहर निकल आएगी। साथ ही हमें किसान को मजदूर बनाने के षड़यंत्र को नाकामयाब करना होगा।
मनरेगा को ‘सामाजिक पाप’ बताने वालों को ध्यान में रखना चाहिए,
जिंदगी भर एक खता हम करते रहे,
धूल तो चेहरे पर थी, आईना साफ करते रहे।
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