चने के झाड़ पर चढ़ाना को मुहावरे की दुनिया से निकाल कर भारतीय किसानों के जीवन में प्रविष्ठ करा देने का चमत्कार भारतीय कृषि वैज्ञानिकों और नीति निर्माताओं ने कर दिखाया है। हरित क्रांति के समय किए गए वायदों की हकीकत पिछले 15 वर्षों में 2.5 लाख किसानों की आत्महत्याओं के रूप में सामने आई है। इसके बावजूद हमारा तंत्र दूसरी हरित क्रांति की बात कह रहा है। आधुनिक खेती और आधुनिक विकास का रास्ता गरीब दुनिया के किसानों को फंसाने और डूबाने वाला रास्ता है। इसमे सिर्फ बहुराष्ट्रीय कंपनियों की चांदी है। इस संकट के समाधान के लिए आधुनिक विकास पद्धति पर पुनर्विचार करते हुए इसकी दिशा को बदलने की जरूरत है।
भारत में किसानों की बढ़ती आत्महत्याएं चर्चा और चिंता का विषय हैं। वर्ष 2010 के राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकडे़ के अनुसार 1995 से 2010 तक आत्महत्याओं की संख्या आधिकारिक रूप से ढाई लाख के ऊपर पहुंच गई है। यह भारत की खेती और किसानों पर गहराते जबरदस्त संकट का संकेत है। इसके समाधान के लिए जरूरी है कि संकट का समुचित विश्लेषण हो। हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि दवा से मर्ज और बदतर हो जाए? भारत की किसान आत्महत्याओं के बारे में मार्के की बात यह है कि ये सबसे ज्यादा उन इलाकों में हो रही हैं, जहां की खेती अपेक्षाकृत ज्यादा आधुनिक, विकसित’ और ‘प्रगतिशील’ है। सर्वाधिक किसान आत्महत्याएं महाराष्ट्र, आन्ध्रप्रदेश एवं कर्नाटक में हुई हैं। पंजाब, केरल और गुजरात से भी लगातार आत्महत्याओं की खबरें आ रही हैं। देश के पिछड़े व गरीब राज्यों में मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा किसान आत्महत्याओं के मामले में आगे हैं, किन्तु बिहार, उत्तरप्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड, झारखंड, पश्चिम बंगाल, असम जैसे पिछड़े राज्य इस मामले में भी पीछे हैं।यह एक विरोधाभास है। इसीलिए आधुनिक उन्नत खेती और किसान आत्महत्याओं के इस आपसी संबंध को समझना जरूरी है। मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले के सोयाबीन किसानों का अनुभव इस मामले में कुछ रोशनी डाल सकता है। इस वर्ष इस जिले में सोयाबीन फसल नष्ट होने के बाद अक्टूबर 2011 में चार दिन में तीन किसानों ने आत्महत्या की थी। होशंगाबाद जिला मध्यप्रदेश में खेती के मामले में उन्नत और खुशहाल माना जाता है। इस जिले की खेती का बड़ा हिस्सा एक बड़ी सिंचाई परियोजना-तवा बांध की नहरों से सिंचित होता है। यहां की खेती पूरी तरह आधुनिक, रासायनिक, मशीनीकृत तथा बाजार आधारित हो चुकी है। खरीफ में सोयाबीन तथा रबी में गेहूं यहां की मुख्य फसल है जो दोनों ही नकदी फसलें हैं। सोयाबीन तो शत प्रतिशत नकदी फसल है, क्योंकि इसे सीधे उपभोग नहीं किया जा सकता। इसकी पूरी उपज मंडियों व कारखानों में ही जाती है। सोयाबीन एक विदेशी फसल है, जिसकी भारत में खेती सबसे पहले यहीं से शुरु हुई है। सोयाबीन की खली ज्यादातर निर्यात होती है, इस मायने में यह एक निर्यात फसल भी है।
इस तरह होशंगाबाद जिले के किसान काफी ‘प्रगतिशील’ हैं। जो-जो सरकारी तंत्र (और अब कंपनियां) कहता आया है वह उन्होंने किया - नई फसलें अपनाओ, नई-नई उन्नत (HYV) किस्मों के बीजों का प्रयोग करो, बाजार के लिए खेती करो, निर्यात के लिए खेती करो, रासायनिक खाद एवं रासायनिक कीटनाशक- खरपतवारनाशक दवाइयों का उपयोग करो, बैलों की जगह ट्रेक्टर-हार्वेस्टर (और अब रोटावेटर) का प्रयोग करो, केसीसी (किसान क्रेडिट कार्ड) बनाओ, कर्ज लेकर खेती करो आदि-आदि। किन्तु अब होशंगाबाद जिले का किसान बुरी तरह फंस गया है। उसकी जमीन बंजर हो रही है, सोयाबीन की पैदावार गिर रही है, सोयाबीन में कीट प्रकोप बढ़ता जा रहा है। साथ ही यह नयी-नयी ज्यादा महंगी कीटनाशक दवाईयों का इस्तेमाल करने पर भी काबू में नहीं आ पा रहा है, लागतें बढ़ती जा रही हैं, और कर्ज भी बढ़ता जा रहा है। मध्यप्रदेश में सोयाबीन की पैदावार जो वर्ष 1994 तक 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक पंहुच गई थी, अब गिरते-गिरते 11 क्विंटल पर आ गई है। होशंगाबाद संभाग में तो इस वर्ष यह 6.4 क्विंटल ही रही। सोयाबीन की हर नई किस्म की पैदावार 4-5 साल बाद कम हो जाती है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार होने के कारण सोयाबीन की कीमतें भी काफी गिरती-चढ़ती रहती हैं। उधर वैश्वीकरण की नीतियों के तहत खाद, पानी, बिजली, डीजल सबकी लागतें बढ़ रही हैं। होशंगाबाद जिले का किसान ऐसा फस गया है कि वह आसानी से सोयाबीन छोड़कर दूसरी फसल भी नहीं अपना पा रहा है।
पहले खेती ‘मानसून का जुआ’ कहलाती थी और मौसम का जोखिम खेती का प्रमुख जोखिम था। किन्तु अब किसान चार तरह के जोखिम झेल रहे हैं -
1. मौसम का जोखिम (जो कम होने के बजाय बढ़ा है, क्योंकि नए बीज ज्यादा नाजुक और मौसम की अतियों के प्रति कम सहनशील हैं)
2. सरकारी तंत्र की असफलता के जोखिम (समय पर बिजली न मिलना, नहरों में पानी न मिलना, खाद नहीं मिलना, समर्थन मूल्य पर खरीदी में दिक्कतें)
3. आधुनिक टेक्नोलॉजी की असफलता के जोखिम (एक फसली खेती में इकट्ठा नुकसान, नए बीजों की पैदावार 4-5 सालों में कम हो जाना, कीटों में प्रतिरोधक शक्ति का विकास, भूजल का नीचे जाना आदि)
4. बाजार के जोखिम (उपज के दाम गिर जाना, खाद-बीज-दवाई के दाम बढ़ जाना, खाद-बीज का नकली निकल जाना आदि)
इस तरह अब खेती सिर्फ मानसून का ही नहीं, सरकारी कुप्रबंध, आधुनिक टेक्नोलॉजी और वैश्विक बाजार का भी जुआ बन गई है। दूसरी ओर पुरानी पारंपरिक सुरक्षाएं खत्म हो गई हैं। ज्यादा पूंजी, ज्यादा लागत और ज्यादा कर्ज वाली खेती होने के कारण फसल नष्ट होने पर किसान को ज्यादा बड़ा झटका लगता है। ‘फसल बीमा’ इस बढ़ते जोखिम की समस्या का समाधान करने में सक्षम नहीं है। देश में किसानों की बढ़ती आत्महत्याएं फसल बीमा योजना की असफलता की खुली घोषणा है। होशंगाबाद जिले में तो इस वर्ष ‘मौसम आधारित फसल बीमा’’ का एक नया पायलट प्रोजेक्ट चल रहा है, जिसमें दो निजी बीमा कंपनियां शामिल हैं। यह भी किसानों के लिए एक और छल साबित हुआ है। कुल मिलाकर, देश के अन्य हिस्सों की तरह होशंगाबाद का अनुभव भी बताता है कि खेती के संकट और किसानों की आत्महत्याओं की जड़ें आधुनिक, बाजार-आधारित, तथाकथित ‘उन्नत’ खेती में छिपी है। इसलिए भारत सरकार द्वारा ‘दूसरी हरित क्रांति’ के रूप में जो समाधान (कंपनियों की बड़ी भूमिका, कॉन्ट्रेक्ट खेती, ज्यादा बाजार आधारित खेती, निर्यात केन्द्रित खेती, जीन-मिश्रित बीज आदि) पेश किया जा रहा है, वह ऐसी दवा है जो मर्ज को और बढ़ाने वाली साबित होगी। आधुनिक खेती और आधुनिक विकास का रास्ता गरीब दुनिया के किसानों को फंसाने और डूबाने वाला रास्ता है। इसमे सिर्फ बहुराष्ट्रीय कंपनियों की चांदी है। इस संकट के समाधान के लिए आधुनिक विकास पद्धति पर पुनर्विचार करते हुए इसकी दिशा को बदलने की जरूरत है।
Path Alias
/articles/galae-padataa-karsai-kaa-phandaa
Post By: Hindi