गंगा को पूजा से ज्यादा प्यार की दरकार

जनता का गंगा के प्रति जितना सामंती रवैया है, वह सामंतों का अपने गुलामों के प्रति भी न रहता होगा। आपकी गंदगी की सफाई करे, तो गंगा करे, आपके त्योहारों का कचरा ढोए, तो गंगा ढोए, मरे जानवर तक गंगा की भेंट चढ़ जाते हैं। दुर्गा पूजा, गणेश पूजा पर जितनी भी मूर्तियां प्रवाहित होती हैं, वह सब गंगा और आसपास की नदियों में ही होती हैं। गंगा की शुद्धि के लिए धन तो है, पर मन नहीं। जिस दिन जनता का मन होगा, धन नगण्य हो जाएगा। आज जल बोतल में बिक रहा है, एक दिन ऐसा आएगा, जब इन नदियों को बोतलों के नाम से जाना जाएगा।

भारत नदियों का देश है। कभी-कभी ऐसा लगता है कि कहीं नदियों की बहुलता ने नदियों के स्वास्थ्य के प्रति जनमानस को उदासीन तो नहीं कर दिया। दक्षिण भारत में नदियां फिर भी अपेक्षाकृत स्वच्छ हैं। लेकिन उत्तर भारत नदियों की संकुलता के बावजूद उनके प्रति अधिक निरपेक्ष है। पंचनद कहने को है, हम लोगों ने उसे पंचनाला बना दिया है। कभी-कभी मैं सोचता हूं कि मुगल और मुसलिम बादशाह नदियों को अधिक प्यार करते थे। उन्होंने नदियों को बहुत अधिक संरक्षण दिया। यही नहीं, नदियों के किनारे उन्होंने नगर भी बसाए। पानी को वे प्यार करते थे। पानी का इस्तेमाल भी अधिक करते थे। फव्वारों के माध्यम से वे पानी की रिसाइक्लिंग भी कराते थे। मुजफ्फरनगर के पास रोहाना कलां है। वहां जो नदी बहती है, वह अब लगभग निर्जला हो रही है, लेकिन उस पर शेरशाह सूरी का बनवाया बावनदरा पुल आज भी मौजूद है। इससे यह अंदाज लगता है कि नदी का पाट कितना चौड़ा था। जल का कैसे इस्तमाल किया जाए, उसके निर्देश तक फारसी में खुदे थे। अब हैं या नहीं, यह कह नहीं सकता, लेकिन हकीकत यह है कि हमने नदियों को प्यार कम किया, पूजा ज्यादा की।

नदियों की पूजा के चक्कर में हमने यह भुला दिया कि जल का भी अपना एक जीवन है। हमने उसे अपने कर्मकांड का साधन बना लिया। हमारे जीने से लेकर मरने तक सारे काम जल से होते हैं। शिवलिंग पर मनों जल चढ़ाया जाता है, जबकि जल की कमी का खतरा निरंतर बढ़ता जा रहा है। स्थिति के अनुसार अपने अंधविश्वासों में फेरबदल करना हम जानते ही नहीं। हमारे कर्मकांड और धार्मिक आयोजन, जब आबादी कम थी, तब पानी के जीवन पर भारी नहीं पड़ते थे। लेकिन आज जब जनसंख्या का विस्फोट हो रहा है, तब उन धार्मिक अंधविश्वासों और कर्मकांडों के कारण जल मात्र का जीवन संकट में है। उनका दबाव ही होता, तो भी शायद नदियां झेल ले जातीं, लेकिन उनका व्यावसायिक और तकनीकी दोहन तो आज पराकाष्ठा पर पहुंच चुका है। जल-धन लोलुपता का शिकार सबसे अधिक हुआ है। सरकारों के द्वारा भी और जनता के द्वारा भी। क्षमा करें जन साधारण भी, जल का चाहे, वह नदियों का हो या कुओं या तालाबों का, सबसे अधिक दोहन करता है। इस समस्या से निपटना आसान नहीं। सरकार तो जान-बूझकर कर रही है और जनता अनभिज्ञता और अंधश्विस के चलते।

गंगा उत्तर भारतीयों के लिए जीवनदायिनी नदी है और शायद इसी कारण हम भारतीय उसे माता और पवित्रता का प्रतीक मानते हैं। लेकिन हमने गंगा माता की स्थिति भी और माताओं जैसी बना दी। बूढ़ी हुई और उसकी व्यर्थता बढ़ गई। उसे पवित्र करने का हम बार-बार संकल्प लेते हैं, लेकिन हर त्योहार और संस्कार के लिए गंगा को निशाना बनाते हैं। जनता का गंगा के प्रति जितना सामंती रवैया है, वह सामंतों का अपने गुलामों के प्रति भी न रहता होगा। आपकी गंदगी की सफाई करे, तो गंगा करे, आपके त्योहारों का कचरा ढोए, तो गंगा ढोए, मरे जानवर तक गंगा की भेंट चढ़ जाते हैं। दुर्गा पूजा, गणेश पूजा पर जितनी भी मूर्तियां प्रवाहित होती हैं, वह सब गंगा और आसपास की नदियों में ही होती हैं। गंगा की शुद्धि के लिए धन तो है, पर मन नहीं। जिस दिन जनता का मन होगा, धन नगण्य हो जाएगा। आज जल बोतल में बिक रहा है, एक दिन ऐसा आएगा, जब इन नदियों को बोतलों के नाम से जाना जाएगा। जन-सहभागिता के लिए छोटे-छोटे दायित्व ही बड़ा काम कर सकते हैं जैसेः-

गंदगी की वजह से संकट में गंगागंदगी की वजह से संकट में गंगा1. हरिद्वार में साधु-संत अपने आश्रमों का गंगा जल और फूलों का अंबार गंगा में डालना बंद करें। गंगा और गुरुओं की अर्चना सौ किलो की माला से न होकर एक फूल से भी हो सकती है। गंगा की आरती करने वाले संतों के सौ-सौ कमरों के आश्रम हैं, जिनका कचरा गंगा में जाता है। यह है गंगा की पूजा अर्चना।
2. यह भ्रम दूर करें कि गंगाजल में कीटाणुओं को मारने की अद्भुत शक्ति है। उसके साथ चाहे कितना भी अत्याचार करो, वह प्रदूषित नहीं होगा।
3. मरे जानवर और मनुष्य देह गंगा को अर्पित करना बंद करें। यह प्रदूषण का सबसे बड़ा माध्यम है।
4. त्योहारों पर मूर्तियों का जल प्रवाह जलचरों को भी नुकसान पहुंचाता है और जल के प्रवाह को भी अवरुद्ध करता है।
5. सबसे आसान काम है नदियों के किनारे छायादार वृक्ष रोपना। आज बाढ़, सूखा आदि अनेक संकटों का कारण जंगलों का न होना ही है। पशु-पक्षी का गायब होते चले जाना भी मनुष्य के जीवन को अधूरा करता है। जन सहयोग और आत्मसंयम नदियों के दर्द को समझकर ही किया जा सकता है। धन तो इतना आया, पर क्या गंगा साफ हो पाई? साफ तो दरअसल मन को करना है, जिसमें आपके बच्चों के लिए प्यार बसता है। उसमें एक कोना नदियों के प्यार के लिए खाली रखें। जनता जितना कर सकती है, उतना सरकारें या धन नहीं कर सकते।

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