दिल्ली

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लघु तटिनी
Posted on 30 Jul, 2013 12:41 PM लघु तटिनी, तट छाईं कलियाँ,
गूँजी अलियों की आवलियाँ।

तरियों की परियाँ हैं जल पर,
गाती हैं खग-कुल, कल-कल-स्वर,
तिरती हैं सुख-सुकर पंख-भर,
घूम-घूमकर सुघर मछलियाँ।

जल-थल-नभ आनंद-भास है,
किसी विश्वमय का विकास है,
सलिल-अनिल उर्मिल विलास है,
निस्तल-गीति-प्रीति की तालियाँ।

परिचय से संचित सारा जग,
राग-राग से जीवन जगमग,
नोएडा के पक्षी विहार की सूरत सुधारने की जरूरत
Posted on 30 Jul, 2013 12:35 PM

यहां प्रवासी पक्षी ही नहीं, पानी को साफ करने वाले दुर्लभ पौधे भी हैं बेशुमार

पतित पावनी, गंगे!
Posted on 29 Jul, 2013 01:30 PM पतित पावनी, गंगे!
निर्मल-जल-कल-रंगे!

कलकाचल-विमल धुली,
शत-जनपद-प्रगद-खुली,
मदन-मद न कभी तुली
लता-वारि-भ्रू-भंगे!
सुर-नर-मुनि-असुर-प्रसर
स्तव रव-बहु गीत-विहार
जल-धारा-धाराधर-
मुखर, सुकर-कर-अंगे!

रचनाकाल : 16 जनवरी, 1950। ‘अर्चना’ में संकलित

आरे, गंगा के किनारे
Posted on 29 Jul, 2013 01:04 PM आरे, गंगा के किनारे
झाऊ के वन से पगडंडी पकड़े हुए
रेती की खेती को छोड़कर, फूँस की कुटी;
बाबा बैठे झारे-बहारे।
हवाबाज ऊपर घहराते हैं,
डाक सैनिक आते-जाते हैं,
नीचे के लोग देखते हैं मन मारे।

रेलवे का पुल बँधा हुआ है,
तिनके की टट्टी के ठाट है,
यात्री जाते हैं, श्राद्ध करते हैं,
कहते हैं, कितने तारे!
सरि, धीरे बह री!
Posted on 29 Jul, 2013 12:54 PM सरि, धीरे बह रही!
व्याकुल उर, दूर मधुर,
तू निष्ठूर, रह री!
तृण-थरथर कृश तन-मन,
दुष्कर गृह के साधन,
ले घट श्लथ लखती, पथ
पिच्छल तू गहरी।
भर मत री राग प्रबल
गत हासोज्ज्वल निर्मल-
मुख-कलकल छवि की छल
चपला-चल लहरी!

‘गीतिका’ में संकलित

सरित के बोल खुले अनमोल
Posted on 29 Jul, 2013 12:51 PM नहीं रहते प्राणों में प्राण,
फूट पड़ते हैं निर्झर – गान।
कहाँ की चाप, कहाँ की माप,
कहाँ का ताप, कहाँ का दाप,
कहाँ के जीवन का परिमाप,
नहीं रे ज्ञात कहाँ का ज्ञान।

सरित के बोल खुले अनमोल,
उन्हीं में मुक्ता-जल-कल्लोल,
एक संदीपन का हिन्दोल,
एक जीती प्रतिमा बहमान।

बाँधों न नाव इस ठाँव, बंधु!
Posted on 29 Jul, 2013 12:48 PM बाँधों न नाव इस ठाँव बंधु!
पूछेगा सारा गाँव, बंधु!

यह घाट वही जिस पर हँसकर,
वह कभी नहाती थी धँसकर,
आँखें रह जाती थीं फँसकर,
कँपते थे दोनों पाँव, बंधु!

वह हँसी बहुत कुछ कहती थी,
फिर भी अपने में रहती थी,
सबकी सुनती थी, सहती थी,
देती थी सबके दाँव, बंधु!

रचनाकाल : 23 जनवरी, 1950, ‘अर्चना’ में संकलित

बाढ़
Posted on 27 Jul, 2013 12:36 PM (1)
पेय पय अंतर के स्नेह का पिलाती हुई,
खेल-सा खिलाती हुई,
नन्हीं उन लहरों को लेके निज गोद में,
मग्न थी अभी तो तू प्रमोद में;
जैसे कुल-लक्ष्मी निज अंतःपुर-चारिणी,
वैसे ही तटों के बीच भीतर विहारिणी,
तू थी महा शोभामयी
नित्य नई;
यमुने हे! तेरा वह शांत रूप सौम्याकार,
जान पड़ता था नहीं अंथःस्तल का विकार;
रोको नहीं पानी को जाने दो
Posted on 25 Jul, 2013 01:28 PM प्राचीन मनुष्य ने भी कई पीढ़ियों के अनुभव के बाद सीखा कि कहां बस्ती बसानी चाहिए और कहां नहीं। वे भी प
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