दिल्ली

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पण्डोह
Posted on 05 Dec, 2013 10:52 AM विकास बुद्धि ने
रोक दिया
छलछलाती निरंतर बहती
नील-श्वेत नदी का रास्ता

बीच में ही टोक दिया
जल का राग

पृथ्वी की धमनी में
जम गया रक्त का थक्का

पाशबद्ध है
मुनि वशिष्ठ की विपाशा

क्रोध में कांप रही।
गहरी हरी झील।

एक निर्जन नदी के किनारे
Posted on 05 Dec, 2013 10:50 AM मैं जानता हूं
तुम कुछ नहीं सोचती मेरे बारे में
तुम्हारी एक अलग दुनिया है
जादुई रंगों और
करिश्माई बांसुरियों की

एक सुनसान द्वीप पर अकेले तुम
आवाज देती हो
जल-पक्षियों को
एक निर्जन नदी के किनारे में
कभी अंजलि भरता हूं
बहते पानी से
कभी बालू पर लिखता हूं वे अक्षर
जिनसे तुम्हारा नाम बनता है

जमा होती गई हैं मुझमें
सूखी नदियों के पाट
Posted on 05 Dec, 2013 10:48 AM सूखी नदियों के पाटों का रंग
चलो दिखाऊं गर हिम्मत है तो
आकार केवल आकार
नदियों का नाम उन्हें फिर भी मिला हुआ
रेत हमारे सीने तक आ जाती है
यह है नदी का रास्ता
यह सूखापन भी जाता है आरंभ तक अंत तक
पंछी उन्हें पार करता है और मन में
हूक उठती है
एक कल्पना जो अतृप्त रहेगी की चले चलें
इसके साथ-साथ
और ध्यान देने पर यह बात उभरती आती है
नदी नहीं था मैं
Posted on 05 Dec, 2013 10:46 AM मैं धूप था मैं बारिश
नदी नहीं था मैं
मुझे बुहत दुःख था

पहाड़ था मैं
पहाड़ का पेड़ था
पहाड़ के चरागाह
रेवड़
निर्भ्रांत आकाश
नदी नहीं था पर
दुःख था बहुत दुःख था

गड़रिया था
पत्ते चरती बकरी था
मधु ढूंढता भ्रमर था
तिनके से उलझा पंछी था
पहाड़ का ढहा कगार था
पहाड़ का प्यार था

बहुत कुछ था
रूपिन और सूपिन
Posted on 05 Dec, 2013 10:44 AM खिली हुई चांदनी में बिखरा है किसा बचपन। किसको याद है चांदनी पेड़ों से छनकर आई या दीवार से। मैं ही नहीं ज्यादा जानता अपने बचपन के बारे में ज्यादा तो किसी से क्यों कहूं नहीं जानता मुझे कोई। जैसे नैटवाड़ की नदियों रूपिन और सूपिन को नहीं जानता कोई। इनसे बनकर ही बनी है टौंस। और इनसे बनी भागीरथी, जिसने बनाई गंगा। बहरहाल। बड़े होकर मैं दोस्तों और रिश्तों में घुलमिल नहीं सका। मैंने कहा, नदी भी जब मिलती है
मेधा पाटकर
Posted on 05 Dec, 2013 10:42 AM समुद्र है तो बादल है
बादल है तो पानी है
पानी है तो नदी है
नदी है तो बची हुई है मेधा पाटकर

नदी है तो घर हैं
उसके किनारे बसे हुए
घर हैं तो गांव है
गांव है मगर डूबान पर
डूबान में एक द्वीप है
स्वप्न का
झिलमिल
मेधा पाटकर

वह जंगल की हरियाली है
चिड़ियों का गीत
फूलों के रंग और गंध के लिए लड़ती
गंगा में पिता
Posted on 05 Dec, 2013 10:41 AM कल
चुप हो गए पिता
गंगा में डुबकी मारकर

बरसों की छुटी हुई नौकरी
अपमान और असुरक्षा के बीच
पिता जानते थे कि
गंगा हिमालय से निकलती है
और हिमालय कहां है

इस माचिसनुमा शहर में
पिता ने बटोर लिए थे आंकड़े
कि घर के आंगन से बिस्तर तक कितने हिमालय हैं
और सड़क तक आते-आते
कितनी गंगाएं सूखा जाती है

फूटी हुई नाव
चिड़िया
Posted on 05 Dec, 2013 10:39 AM एक छोटी-सी चिड़िया
प्यासी हुई
उड़कर आती है
नदी से
दो बूंद पानी पीकर
नदी के
बराबर हो जाती है

जितनी दूर तक
बहती है
लंबी-चौड़ी नदी
कई-कई दिनों में
उससे बहुत दूर
कुछ ही पलों में
धाड़ आती है चिड़िया
और लौट आती है
अपने घोंसले में
चिड़िया का घोंसला
कोई ब्रह्मा का
कमंडल तो है नहीं
कि उसमें समा जाए
नदी
Posted on 03 Dec, 2013 12:26 PM दूर किसी घर में कुछ गिरा है
पीतल की गगरी-सा!
लुढ़कती चला आई है टनटनाहट
सूनी दोपहरी में
कई देहलियां लांघकर।
आवाज की एक नदी बह गई है
इस घर से उस घर तक।
इसमें धोकर अपने थके हुए हाथ
सोचती है यह उसकी
चौंकी हुई उबासी-
हर घर से हर घर तक जाती है राह,
इतना अकेला नहीं होता है आदमी!
एक गूंज का दामन पकड़े
अनगूंज कितने ले आएं कब भीतर-
नाव भी एक स्त्री है!
Posted on 03 Dec, 2013 12:24 PM नाव भी एक स्त्री है
उस युवती चित्रकार ने दिसंबर की एक शाम
अपनी तस्वीरों को दिखाते हुए मुझे गैलरी में यही बताया था

उस गैलरी में आने से पहले
मैं तो यही जानता था
कि नाव तो लकड़ी का एक निर्जीव शरीर है
और उस पर सवार होकर मैंने कई नदियां पार की थीं
पर उस शाम के बाद मैंने जाना
नाव भी बोलती है, सुनती है
और सहती है एक भारतीय स्त्री की तरह
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