Posted on 01 Dec, 2013 03:36 PMशंकर से आज्ञापित मुनि ने, पर्वत के उच्च शिखर पर से- दी छोड़ कमंडलु की गंगा, वरदान-जलद जैसे बरसे। लहराती - बलखाती नीचे पिघले तांबे - सी चली धार- थी कल्लोलिनी ताम्रवर्णी-फेनिल, सवेग, नटखट अपार।
बह उठी तीन धाराओं में ‘नारदी तीर्थ’ घेरती हुई- मुनिवर कश्यप के आश्रम को कुंडलाकार घेरती हुई। कुछ दूरी पर फिर ‘अग्निनदी’ उन ‘वेदतीर्थ’ धाराओं को-
Posted on 01 Dec, 2013 03:29 PMसूर्यास्त तक बाट जोहती नदी में मछलियों की तरह उछलती-तैरती रही बेसब्री रेशे-रेशे में अंधेरा घुलते हुए भी बराबर सोचती है नदी कि कोई तो आएगा ही उसके जन्मदिन पर विसर्जित करेगा गेंदे के फूल गुलाब और दिए उसमें कोई तो जरूर ही आएगा वह बहती है सबके भीतर से दिन-रात दुलारती गुनगुनाती मैल धोती और ढोती हुई
Posted on 01 Dec, 2013 03:20 PMमेरी रीढ़ की हड्डी में यह जो सांप घुसकर फुफकार रहा है समुद्र की ऊब है दूर-दूर तक फैला गहरा है समुद्र जो शराब का रंग और तीखापन ओढ़े हुए हर ओर छा गया है सिल्वटहीन सब कुछ बेहोश है हवा का एक-एक कदम लड़खड़ा रहा है
बड़ा डर लगता है बीच समुद्र में आ गया हूं चिनार के पत्तों-सा कांप रहा है रोम-रोम
Posted on 30 Nov, 2013 03:50 PMबांधों के लाभ हानि से लेकर उनके पर्यावरणीय, सामाजिक, आर्थिक, पारिस्थिकीय, राजनैतिक असरों पर साहित्य सामने है। जिससे सिर्फ आंख मूंद
Posted on 30 Nov, 2013 03:25 PMड्रामा बेस्ड ट्रेनिंग प्रोग्राम आजकल काफी इफेक्टिव साबित हो रहा है। इससे किसी टॉपिक या थीम को अलग-अलग तरह से समझ सकते हैं।
Posted on 29 Nov, 2013 09:27 AMपर्वतों उपत्यकाओं में पली बढ़ी हूँ मैं हिमनदों की बहुत लाडली हूँ मैं मुझसे ये धरा खिले जिसे गगन लखे ज्योतिर्मय नव विहान की छटा दिखे स्वयं गरल समेट कर सुधा प्रवाहती मैं क्या कहूं इस मही का प्राण हूँ मैं ही कलकल ध्वनि लिए शाश्वत गान गा रही पग बंधे हैं किंतु इच्छा मुक्ति दान की लक्ष्य था अनंत किंतु