प्रयाग शुक्ल
प्रयाग शुक्ल
दूर देश में नदी, भाग -3
Posted on 05 Oct, 2013 02:58 PMनदी के पास स्मृतियाँ हैं अनेकों,उनकी भी जो
अब नहीं रहे। उनकी भी जो
आए ते कभी उसके किनारे।
किसी भी नदी के पास
स्मृतियाँ हैं अनेकों।
दिलाती हैं याद मुझे
देश की नदियों की
नदी दूर देश में!
कहाँ गया हूँ मैं सबके किनारे
पर, गया हूँ जिनके किनारे
वे सब आती हैं याद।
दूर देश में।
निकलती है धूप।
घिरती है रात।
दूर देश में नदी, भाग-2
Posted on 05 Oct, 2013 02:56 PMरात से पहलेपेड़ों की छायाएँ
किनारे पर
खिड़की पर मैं।
उतरेगी रात।
मिट जाएँगी छायाएँ।
नहीं दिखेंगी पगडंडी भी
इधर के पेड़ों तक जाती हुई।
सुबह होगी
फिर दिखेगी पगडंडी
फिर दिखेगी नदी
छायाएँ बस चुकी होंगी
स्मृति के कोटर में
स्मृति के कोटर
के साथ
मैं जाऊँगा नदी किनारे
तब मुझे नदी और ज्यादा
दूर देश में नदी, भाग -1
Posted on 05 Oct, 2013 02:54 PMयहां से सबने लिखा हैचिट्ठियों में
जहाँ वे ठहरे हैं, उसके सामने नदी है।
पेड़ हैं। हरियाली है।
सबने लिखा है।
मैंने भी लिखा है- घर पर, दोस्तों को-
‘यहाँ नदी है’
लिखकर खुश हुआ हूँ
कि नदी है।
देखों अगर पास से बहती है मंद-मंद।
देखो अगर ऊपर से
ठहरा हुआ पानी है।
शांत नदी
हलचल मचाती है मन में।
सुबह गुवाहाटी में ब्रह्मपुत्र के किनारे चाय पीते हुए
Posted on 05 Oct, 2013 02:49 PMकाँव कौंवों की।उतरतीं सूर्य किरणें।
उधर अब भी- उस तरफ
कुछ दूर, कोहरा तना।
पीठ पीछे सो रहे या
अभी जागे घर।
वृक्ष, अपनी जगह पर,
कुछ सिहरती-सी हवा।
जल लहरियाँ डोंगियाँ नावें
आँख की ही भाँति
उभरतीं उत्सुक।
इधर को या उधर को
कुछ झुक!
वहाँ, उस विस्तार में वह
एक मोटर बोट-
दृश्य की ही ओट
वाराणसी में गंगा के तट पर एक शाम
Posted on 05 Oct, 2013 02:47 PMसांध्य तटआहट
निकट
अँधियार की-
चमकती रेती
वहाँ उस
पार की!
वृक्ष चुप-से खड़े
उड़ती हुईं
चिड़ियाँ
दूर!
रह-रह
बोलती कोयल।
उभरती नाव-
छोटी नाव के आकार की-
घाट
आकृतियाँ
टँगी हैं झंडियाँ कुछ,
थाह कुछ तो
सोचती
मँझधार की!
न जाने किस रंग में
क्या कहेगी,